सोयाबीन में रोगों का प्रबंधन
- डॉ प्रशांत जाम्भुलकर, सह प्राध्यापक , डॉ. मीनाक्षी आर्य, वैज्ञानिक
पादप रोग विज्ञान,
रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी
21 अगस्त 2021, सोयाबीन में रोगों का प्रबंधन – विगत कुछ वर्षों से सोयाबीन फसल में फफूंदजनित रोग गेरूआ रोग, पीला मोजेक रोग, चारकोल सडऩ, का प्रकोप प्राय: देखा जा रहा है एवं इससे सोयाबीन के उत्पादन में आर्थिक नुकसान भी बढ़ा है। कई फसलों पर रोग पनपने की एवं आमतौर पर उपयोग किये जाने वाले फफूंदनाशकों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता होने के कारण इन रोगों के प्रबंधन हेतु कृषकों को निम्न विधियों को अपनाने की सलाह दी जाती है:-
गेरूआ
पहचान: यह एक फफूंदजनित रोग है, जो केवल जीवित पौधों में ही फलता-फूलता है। वातावरण अनुकूल होने पर व रोग के जीवाणु की उपस्थिति में पौधे की किसी भी अवस्था में इसका संक्रमण हो सकता है। परन्तु प्राय: यह फूल बनने की अवस्था (जुलाई-सितम्बर) में ही देखा गया है। रोग आगमन पौधों पर छोटे-छोटे, सुई के नोक के आकार के मटमैले भूरे व लाल-भूरे, सतह के उभरे हुए धब्बे के रूप में पत्तियों पर समूह में होते है। इस धब्बों के आसपास का हिस्सा पीला होता है। धब्बे पहले व अधिक संख्या में नीचे की पत्तियों की निचली सतह पर आते है। बाद में यह धब्बे गहरे भूरे-कालू रंग के हो जाते है व धीरे-धीरे पूर्ण पत्ती पीली पडक़र सूख जाती है। ग्रसित पत्तियों को उंगली से थपथपाने पर भूरे रंग का पाउडर जैसा निकलता है।
प्रबंधन
- किसी भी अवस्था में रबी व गर्मी में सोयाबीन की काश्त न करें। स्व-अंकुरित सोयाबीन पौधों को निकाल दें। फसल चक्र अपनायें। फसल चक्र में मक्का, ज्वार, अरहर या कपास ले सकते हंै। जिस क्षेत्र में गेरूआ रोग का प्रकोप हर वर्ष होता है वहां तो चक्र से भरपूर लाभ होगा। इसके अलावा इन्ही फसलों को सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसल के रूप में लें। बीज की उपलब्धता पर सोयाबीन की गेरूआ सहनशील किस्में जैसे – पीेएस 1029, पीेएस 1024, एमएयूएस 61-2,एमएयूएस 61, इंदिरा सोया-9 की काश्त करें एवं एक से अधिक किस्मों की काश्त करें।
- रोग की शुरूआत में ग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें व फसल हेक्जाकोनाझोल (कन्टॉफ) या प्रोपीकोनाजाल (टिल्ट) 800 मि.ली. या ट्राइडिमेफोन (बेलेटॉन) या आक्सी कार्बोक्सिन (प्लान्टा वेक्स) 800 ग्राम दवा एक हेक्टेयर में छिडक़ाव करें। रोग की अधिकता पर दूसरा छिडक़ाव 15 दिनों के अंतर पर करें।
- ऐसे क्षेत्र जहां पर गेरूआ रोग पिछले वर्ष (या हर वर्ष) तीव्र रूप में आया हो, वहां इन चारों में से किसी भी एक दवा का सुरक्षात्मक छिडक़ाव बुवाई के 35 से 40 दिन बाद करें।
अफलन
- ऐसे खेतों पर जहां अफलन हर साल उग्र रूप में आता है, वहां रोकथाम के लिए 750 लीटर पानी में ट्राइजोफॉस 800 मि.ली. या मिथोमिल 1 किलो या क्विनालफॉस 1.5 लीटर मिलाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दो छिडक़ाव करें – पहला बुवाई के 18 से 20 दिन बाद व दूसरा 28 से 30 दिन बाद। उन खेतों में जिनमें अफलन पहली बार आया है या उग्र रूप से नहीं आया है इन्हीं में से किसी एक कीटनाशी दवा का बुवाई के 28 से 30 दिन बाद केवल छिडक़ाव करें।
रोकथाम
- रोग से ग्रसित फसल के बीज को बुवाई के काम न लायें क्योंकि वे कम गुणवत्ता वाले व अवस्थ होते है।
- अनुशंसित बीज दर का उपयोग कर प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या नियंत्रित रखें।
- सनई व तिल की फसल सोयाबीन अफलन रोग के पाए जाने वाले क्षेत्रों में नहीं लें।
पीला मोजेक
पहचान: इस रोग का प्रमुख लक्षण पत्तियों पर पीले हरे रंग की पच्चीकारी बनना है। पत्तियों पर पीलापन या तो इधर-उधर छितरा हुआ होता है पत्तियों की मुख्य शिराओं के साथ-साथ होता है। बाद में पत्तियों के पीले हिस्सों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे हो जाते है व धीरे-धीरे पत्तियों झुलसी हुई प्रतीत होती है। यह रोग बीज जनित नहीं है व सफेद मक्खी इस वायरस (विषाणु) के वाहक का कार्य करते हुए रोग को फसल पर फैलाती है। इस रोग से उत्पादन में 5 से 90 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है।
प्रबंधन: इस रोग के सुरक्षात्मक उपाय के रूप में बीज को थायमिथाक्सम 70 डब्ल्यू.एस. (3ग्राम/किग्रा./बीज की दर से) उपचारित करें। रोग के लक्षण दिखने पर इसको फैलाने वाली सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु इथोफेनप्रॉक्स 1 लीटर या थायमिथाक्सम 25 डब्ल्यू.जी. 100 ग्राम को 750 लीटर प्रति हे. पानी में घोलकर छिडक़ाव करें।
चारकोल सडऩ
पहचान: यह एक फफूंदजनित रोग है। इसके लिए कम नमी व 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तापक्रम अनुकूल होता है तथा इसके प्रकोप से उत्पादन में 77 प्रतिशत तक का नुकसान देखा गया है। इस बीमारी से पौधों की जड़ें सडऩे एवं तत्पश्चात पौधे सूखने लगते हैं जिससे पौधे कमजोर होकर मर जाते हैं। पौधे के तने का जमीन से उपरी हिस्सा लाल-भूरे रंग का हो जाता है तथा पौधे की पत्तियां पीली पडक़र पौधे मुरझाये से दिखते हंै।
प्रबंधन
- फसल चक्र अपनाने के साथ-साथ अनाज की फसलों के साथ मिश्रित खेती करें।
- संतुलित पोषण प्रबंधन एवं अनुशंसित बीज दर का प्रयोग करें।
- संभव होने पर खेत की मिट्टी में अधिक नमी बनाये रखें।
- वीटावैक्स पावर या थायरम+कार्बेन्डजिम 2:1 का प्रति किलो बीज से उपचार करें।
- इसके स्थान पर ट्राइकोडर्मा हरजियानम व ट्राईकोडर्मा विरिडी के कल्चर (8-10 ग्राम प्रति किलो बीज ) का भी प्रयोग किया जा सकता है।
- रोग के लिए सहनशील किस्में जैसे एमएयूएस 162, जे.एस. 20-98 व जेएस 20-34 का उपयोग करें।
अंगमारी व फली झुलसन
पहचान: यह बीमारी अधिक तामक्रम व नमी होने पर प्रकट होती है। इसका फफूंद बीज व ग्रसित पौधों के अवशेषों में जीवित रहता है। सोयाबीन में फूल आने के समय तने, पर्णवृन्त व फली पर लाल से गहरे भूरे रंग के किसी भी आकार के धब्बू दिखाई देते है। बाद में यह धब्बे फफूंद की काली संरचानाओं (एसरवुलाई) व छोटे कांटों जैसी रचनाओं से ढंक जाते है तब इन्हें खुली आँखों से भी देखा जा सकता है।
प्रबंधन: साफ स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। पहचान होने पर ग्रसित पौधों के अवशेषों को तुरन्त नष्ट करें। थायरम या केप्टान (3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज) से बीज उपचार तथा रोग के लक्षण दिखते ही जाइनेब या मेन्कोजेब (2 ग्राम प्रति लीटर) का छिडक़ाव करें। रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे: एनआरसी 2, जेएस 76-205, जेएस 95-60, एमएयूएस 47 आदि का बुवाई में प्रयोग करें।