पशुपालन (Animal Husbandry)

सिनबॉयोटिक की कुक्कुट आहार में उपयोगिता

प्रोबायोटिक क्या होते हैं? :
प्रोबायोटिक शब्द की उत्त्पति ग्रीक भाषा के शब्द प्रायोबॉस (Probio) से हुई है, जिसका अर्थ होता है जीवन के लिए (for life)। परिभाषानुसार, ”प्रोबॉयोटिक जीवित माइकोबिल पूरक आहार है, जो पशु-पक्षी की आंत पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

आदर्श प्रोबॉयोटिक के गुणधर्म-

  • उसी पशु-पक्षी से उत्पन्न।
  • संक्रमणहीन।
  • संग्रह तथा प्रोसेसिंग के लिए उपयुक्त।
  • ग्रेस्टिक अम्ल एवं बाइल (पित्त) प्रतिराधी।
  • एपीथ्ििलयम ऊतक या म्यूकस से चिपकने वाला।
  • पाचन तंत्र में रहने की क्षमता वाला।
  • प्रतिरोधी पदार्थ उत्पन्न करने वाला।
  • शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला।
  • सूक्ष्म जीवाणुओं के कार्यकलाप को परिवर्तित करने वाला।

प्रीबॉयोटिक क्या होते हैं?

प्रीबॉयोटिक को इस तरह से परिभाषित किया जा सकता है ”प्रीबॉयोटिक अपचाच्य भोज्य पदार्थ होते हैं, जो पशु/पक्षी की बड़ी आंत में चयनात्मक रूप से एक या अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं की वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

प्रीबॉयेाटिक के गुणधर्म-

  • यह शरीर के एंजाइम या ऊतक के द्वारा टूटते या अवशोषित नहीं होते हैं।
  • चयनात्मक रूप से एक या अनेक वांछित सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करते हैं।
  • बड़ी आंत के सूक्ष्म जीवाणुओं हेतु लाभप्रद होते हैं।
  • शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता हेतु लाभप्रद होते हैं।

सिनबॉयोटिक क्या होते हैं?

  • प्रोबॉयोटिक तथा प्री-बॉयोटिक का सम्मिश्रण सिनबॉयोटिक कहलाता है।
  • एण्टीबॉयोटिक (प्रतिजैविक) क्या होते हैं?
  • एण्टीबॉयोटिक रोगाणु प्रतिरोधी पदार्थ होते हैं, जो जीवाणु की संख्या में वृद्धि को रोकते हैं या उन्हें मार देते हैं
  • कुछ एण्टीबॉयेाटिक में प्रति प्राटोजोआ क्रियाशीलता भी होती है। एण्टीबॉयोटिक सामान्यतया विषाणु (वाइरस) के विरूद्ध जैसे इन्फ्लुएंजा/सर्दी जुकाम कार्य नहीं करते हैं। विषाणुरोधी दवायें एण्टीबॉयोटिक से अलग भिन्न होती है।
  • कभी-कभी एण्टीबॉयोटिक शब्द जिसका अर्थ होता है। जीवन के विरूद्ध (“Opposite life”) का उपयोग सूक्ष्म जीवाणु रोधी (Antimicrobial) के लिए भी किया जाता है। एण्टीबैक्टिरियल शब्द का उपयोग दवाईयों (Medicine) में हेाता है।

एण्टीबॉयोटिक का उपयेाग पशु-पक्षियों में किस तरह किया जाता है?

लगभग 80 प्रतिशत एण्टीबॉयोटिक का उपयोग पशु/पक्षी रोग उपचार में किया जाता है। लगभग 20 प्रतिशत एण्टीबॉयोटिक पानी या आहार द्वारा उनकी वृद्धि दर को बढ़ाने तथा उन्हें फार्म के अनुकूल रहने हेतु उपयोग की जाती है।

रोग प्रतिबंधात्मक उपचार – थैरेपी का अर्थ होता है, एक या अनेक पशुओं का बीमार की दशा में उनका रोग प्रतिबंधात्मक उपचार करना। जब पशु प्रक्षेत्र के पशु/पक्षियों में रोग के लक्षण दिखने लगते हैं, तो उपयुक्त एण्टी बॉयोटिक द्वारा उनका उपचार किया जाता है। पशु औषधि विज्ञान में तरक्की होने के कारण स्वास्थ्य से संबंधित किसी भी नाकारात्मक स्थिति को परिभाषित, पहचाना एवं उपचारित किया जाना संभव है। इससे सम्पूर्ण कृषि क्षेत्र किसी भी पशु/पक्षी की हानि से बचाया जा सकता है। एण्टीबॉयोटिक दवाओं को उपयेाग करने का मूलभूत सिद्धांत यह है कि यह शरीर में उपस्थित किसी भी संक्रमण एवं संक्रमित के कारण सूक्ष्म जीवाणुओं को खत्म कर दें तथा इसका उपयेागकर्ता शरीर पर कम से कम हानिकारक प्रभाव हो। एण्टीबॉयोटिक का पशु प्रक्षेत्र मवेशियों पर रोग प्रतिबंधात्मक उपयोग पशु उत्पादकता तथा लाभ बढ़ाने हेतु किया जाता है, जिसमें कम कीमत में उच्च गुणवत्तायुक्त पशु से प्रोटीनयुक्त आहार प्राप्त हो सके। खाद्य एवं औषधि प्रशासन एण्टीबॉयोटिक के उपयोग की पशुओं पर प्रभाव व उपचार की निगरानी करता है तथा पशु उत्पादों माँस एवं दूध इत्यादि पर इसकी सुरक्षा को देखता है। इस तरह एण्टीबॉयोटिक का रोग प्रतिबंधात्मक उपयोग से पशुधन स्वस्थ होते हैं जिससे उनसे स्वच्छ पशु उत्पादों की प्राप्ति होती है। अत: एण्टीबॉयोटिक को वृद्धि कारक के स्थान पर रोग प्रतिबंधात्मक रूप से उपयोग करना श्रेयकर है।

वृद्धि कारक के रूप में – पशु प्रक्षेत्र पशुधन में एण्टीबॉयोटिक का इसका उपयोग वृद्धिकारक के रूप में होता है। वृद्धिकारक (growth promoter) का अर्थ होता है, एण्टीबॉयोटिक दवाओं का पूरक आहार के रूप में लम्बे समय तक उपयेाग करना जिससे उनसे अधिक उत्पादन लिया जा सके। अनेक एण्टीबॉयोटिक दवायें ऐसी हैं, जिनमें पशु/पक्षी के भार (वजन) में वृद्धि होती है तथा आहार रूपांतरण क्षमता (स्नष्टक्र) में सुधार होता है। एण्टीबॉयोटिक वृद्धि कारक के रूप में आंत्र के सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या को परिवर्तित करते हैं, जिसमें आहार का पाचन अच्छे तरीके से होता है।

मानव पर प्रभाव- एण्टीबॉयोटिक दवाओं को पशु-पक्षियों में वृद्धिकारक (growth promoter) के रूप में उपयोग करने के कारण इनके अवशेष पशु/पक्षी उत्पादों में पँहुचते हैं तथा पशुओं एवं मानव शरीर पर एण्टीबॉयोटिक प्रतिरोधात्मक उत्पन्न हो जाती है। एण्टीबॉयोटिक दवाओं का उपयेाग वृहद स्तर पर मानव रोगों के उपचार एवं रोकथाम के लिए होता जाते हैं। जिससे पशुओं की आँत में यह एण्टीबॉयोटिक का उपयोग करने पर भी रहने लगते हैं और अपने अंदर प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। रोधक क्षमता उत्पन्न करने हेतु ये अपने आनुवांशिकी पदार्थ ष्ठहृ्र में स्वत: उत्परिवर्तन (Mutation) कर नया DNA (प्लाज्मिड) बना लेते हैं। बैक्टिरिया अपने अंदर तीन तरीकों से प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं।

अंत: कोशकीय लक्ष्य को परिवर्तित करके– यह स्वत: उत्पे्ररित म्यूटेशन द्वारा ष्ठहृ्र एवं उसके प्रोटीन की सरंचना में परिवर्तन द्वारा होता है।

एण्टीबॉयोटीक को अपने से बाहर निकालना- (Pumping) यह बैक्टिरिया द्वारा उपार्जित ष्ठहृ्र के निर्देश से एण्टीबॉयोटिक कोशिका के बाहर निकल जाती है।

एण्टीबॉयोटीक को नुकसान रहित करना- यह भी बैक्टिरिया के DNA में उसके निर्देशों के अनुसार होता है। एण्टीबॉयोटिक के स्थान पर अन्य वैकल्पिक पूरक आहार सम्मिश्रण कौन से हैं।
अन्य वैकल्पिक पूरक आहार सम्मिश्रण जिन्हें एण्टीबॉयोटिक के स्थान पर उपयोग किया जा सकता है। प्रोबॉयोटिक, प्रीबॉयोटिक, सिनबॉयोटिक, फायटो बॉयोटिक इत्यादि।

प्रोबॉयोटिक तथा प्रीबॉयोटिक के क्या-क्या लाभ है?

  • आँत के सूक्ष्म जीवाणुओं में परिवर्तित कर सुधार।
  • VFA का अधिक उत्पादन (वाण्पित फैटी अम्ल)।
  • रोग प्रतिरोधी क्षमता का विकास।
  • आँत के जीवाणुओं में वृद्धि एवं सही मल निकास।
  • सूजन क्रियाओं (Inglammation) में कमी।
  • अधिक विटामिन B का आँत में उत्पादन।
  • रोग कारक जीवाणुओं की संख्या में कमी।
  • खनिज लवण का अवशोषण बढ़ाना।
  • पशु उत्पादक क्षमता को बढ़ाना।
  • कैंसर रोधी।
  • शव में जीवाणु के प्रकोप को कम करना।
  • रक्त में कॉलेस्ट्राल घटाना।
  • अमोनिया तथा यूरिया का उत्सर्जन घटाना।
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