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किसानों की आत्महत्या, गलत परम्परा – ज्ञान का अभाव

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दूरदर्शन व समाचार पत्रों में प्रतिदिन किसानों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार, उसके कारण व निवारण के बारे में सोचने पर विवाश करते हैं। बुढ़ापा, विपत्तियां व मृत्यु जिन्दगी के अटल सत्य हैं। जिंदगी जिंदा दिली का नाम हैं मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं। असमय मृत्यु को गले लगाना कहीं से भी न्यायोचित नहीं लगता यदि सुख सदा रहता नहीं तो दुख का भी अंत हैं, यह जानकर निज चित्त से विचलित न होना संत हैं। विकासखंड जोबट, जिला -अलीराजपुर में अपनी पदस्थापना के दौरान कृषि महोत्सव व अन्य कृषक संगोष्ठियों में मैं शाजापुर, सीहोर व राजगढ़ के किसानों की उन्नति के उदाहरण दिया करता था व वहां के कर्मठ व भोले किसान बड़े ध्यान से सुनते थे मेरे मन में हमेशा एक जिज्ञासा बनी रहती है कि क्या 70-80 के दशक में जीवन स्तर आज से बेहतर था हर किसी का साधारण सा जवाब होगा नहीं। मोटा खाते थे, मोटा पहनते थे, मेहनत ज्यादा करते थे लेकिन लोग संतुष्ट थे।
गोधन, गजधन, वाजधन और रतन धन खान, जब आवे संतोष धन सवधन धूरि समान। वर्तमान समय में अधिकांश लोग सभी सुख-सुविधाओं के साधनों का उपभोग करने के बावजूद इतने निराश व हताश क्यों हैं? पहले मनोरंजन के साधनों के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों में रामलीला, हरीशचंद्र लीला, नरसी, कथा नल दमयंती जैसे नाटकों का मंचन होता था। जिससे स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ जीवन में आने वाली कठिनाईयों से उबरने का धर्म समस्त रास्ता लोगों को मिलता था। लोगों में एक-दूसरे का सहयोग करने की भावना थी। संयुक्त परिवार व धार्मिक भावना के कारण लोग अभाव में भी खुश रहने की कला जानते थे। लोक कल्याण की भावना से शासन द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं, बड़ता हुआ उत्पादन, घटती हुई आय व एकल परिवार और बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं ने लोगों को आलसी सुविधा भोगी बना दिया हैं। जरा सी विषम परिस्थिति पैदा होते ही विचलित होकर आत्महत्या करने जैसा कठोर निर्णय ले लेता हैं। ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करिह सो तस फल चाखा।
‘कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ए, इंसान यह है गीता का ज्ञान’ कर्म ही पूजा है, संघर्ष ही जीवन हैं, हम सभी जानते हैं कि अगर उपयोग में ले आयें बहतु समस्याओं का निदान संभव हैं। किसानों की अगर पूरी जमीन सिंचित हो जाये व उनके उत्पादित माल का वाजिब दाम अगर मिल जाये तो किसान जैसा दाता इस पृथ्वी पर कोई नहीं शासन अगर चाहे तो धर्म, सम्मत, जागरूकता, अभियान चलाकर किसानों का मार्गदर्शन कर सकती हैं।
प्रिय मिलन सम सुख जग नाही, नहि दरिद्र सम दुख जग माही। गरीबी से बड़ी कोई अभिशाप नहीं बड़ा दुख की बात है हमारे देश के साथ या बाद में स्वतंत्र हुए देश हमसे आगे निकल गये हमारा देश विविधताओं से भरा हैं। सनातन संस्कृति हैं। ‘वसुधेव कुटुम्बकम’ को मानने वाली विचारधारा हैं। जिन किसानों ने आत्महत्या कर ली हैं उनकी जिन्दगी तो लाना संभव नहीं लेकिन भविष्य में किसान या कोई भी व्यक्ति ऐसा अप्रिय कदम न उठाये उसके लिये पहल होना आवश्यक हैं।
‘बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन गावा।’ परम पिता परमात्मा की सबसे सुन्दर रचना मनुष्य ही हैं। अधिकारों के साथ कुछ कर्तव्य भी निर्धारित किये गये हैं समझना होगा। जिन किसानों ने आत्महत्या की हैं वर्तमान समय की सुख सुविधाओं से पूर्णत: वंचित रहे हों यह विश्वास नहीं किया जा सकता। संघर्ष के पहले हार मान लेना कायरता हैं। बैंक, साहूकार व अन्य संस्थाओं को भी विचार करना होगा कि हमारा ऋणी अगर सलामत है तो देर सबेर वसूली हो जायेगी। अगर ऋणी ही नहीं रहेगा तो वसूली किससे करोगे। किसी भी धर्म में आत्महत्या स्वीकार नहीं है। व अधोगति के परिणाम बताये जाते हैं। समय व परिस्थिति अनुसार मितव्ययी बने ‘यही पंडिताई हैं, यही चतुराई हैं, यही अच्छी बुद्धिमानी हैं कि आमदनी से कम खर्च करें।’ आजकल एक कहावत बहुत प्रचलन में हैं कि इंसान अपने दुख से कम दुखी दूसरे के सुख से ज्यादा दुखी हैं। सतयुग से वर्तमान घनघोर कलयुग तक अमीरी-गरीबी शासक- शासित, कमजोर-बलवान, हर वस्तु का विलोम हैं तभी यह संसार हैं। इसमें सामंजस्य बैठाकर अपने से गरीब लोगों को देखकर परम पिता परमात्मा का शुक्रिया अदा करें। मैंने अपनी जिंदगी में कई धनवानों को गरीब एवं कई गरीब लोगों को धनवान होते देखा है मेरा व्यक्तिगत अनुभव है जिन्दगी अवसर देती हैं समझदार लोग फायदा उठा लेते हैं, अंत में यही कहना चाहूंगा मेहनत करें ईश्वर पर भरोसा रखें व समय का इंतजार करें। सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी का कल्याण हो, जिन्दगी में दुख का नामो निशान न हो। इसी आशा व विश्वास के साथ धन्यवाद।
– संतोष कुमार पवैया
ग्रा.कृ.वि.अधिकारी, वि.ख., शुजालपुर

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