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भावांतर की भंवर में किसान !

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मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह किसान आंदोलन से आंदोलित होकर किसानों को साधने के लिये नित नई योजनायें बना रहे हैं, घोषणायें कर, किसानों की आमदनी दुगनी करने के उपाय खोज रहे हैं, तरह-तरह की रियायतों की घोषणा कर किसानों को लुभाने के लिये प्रयासरत हैं, इसके बावजूद किसान हैरान परेशान हो कर्ज के दलदल में फंस कर विवशता में आत्महत्या कर रहा है। लगातार पांच बार कृषि कर्मण पुरस्कार केंद्र से मिलने के साथ कृषि उत्पादन दोगुना होने पर भी किसान बेचैन है। नई कृषि तकनीक और सुलभ ऋण उपलब्धता के कारण भरपूर उत्पादन के बावजूद कृषि उत्पादन लागत में बेतहाशा वृद्धि के कारण ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रूपैया’ इस अर्थशास्त्र में उलझ कर रह गया है। खेती में लगने वाले डीजल के बढ़ते दामों के लिए मनमाने तरीके से टैक्स वसूलने वाली सरकार को क्या किसानों की कोई परवाह है। कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के लिये आयोग गठन करने की बजाए इसे शासकीय कर्मचारियों के बढ़ते वेतन से अनुपातिक रूप से जोडऩे में अथवा मूल्यवृद्धि सूचकांक से जोडऩे में कौन सी आफत है?

किसान भाई जब तक ‘राम भरोसे’ थे तब तक सुख चैन कायम था और जबसे ‘मामाजी’ के रास्ते पर चलने लगे, खेती से आमदनी दुगनी करने के फेर में हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते ‘राम’ को भूलकर सड़कों पर संतरे – टमाटर – प्याज फेंकने लग गये, सड़कों पर दूध ढोलने लग गये, कृषि बीमा, राजस्व परिपत्र के अनुसार मुआवजा पाने के फेर में पड़ गये, अधिक कमाई के लालच में मनमाने तरीके से धरती माता का खून चूसने लग गये, रसायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग और भूजल के अनियंत्रित दोहन में पिल पड़े, वृक्षों को काट -काट कर जंगल के जंगल साफ कर दिये, गौचरों और अपने खेतों की मेढ़ों को तोड़कर, खेती को जीवन जीने की प्रणाली न मान उद्योग मानकर निसर्ग के उपलब्ध संसाधनों का मनमाना दोहन करने लग गये, ऐसी परिस्थितियों से घिरे किसान से राम को तो रुठना ही था। प्रदेश में अल्पवर्षा के कारण अधिकतर जलाशय, बांध आधे भी नहीं भरे हैं और सूखे की जद में आधे से अधिक प्रदेश है इसके बावजूद जैसे – तैसे परिश्रम से किसान ने फसल उपजाई और जब पक कर लगभग कटने के लिये खेत तैयार हैं तब असमय वर्षा से तैयार फसल भी चौपट होने की कगार पर है।
लाईन में लगा किसान
इन घोषणाओं का लाभ लेने के लिए किसान चक्रव्यूह में उलझ गया है, उसे समझ ही नहीं आ रहा कि खेती में काम करें या शासकीय योजना के लिये तरह-तरह के पुरावे इकट्ठे करता फिरे। अधिक दूर जाने की बजाय शासन द्वारा घोषित नवीनतम कृषि उपज भावांतर योजना की ही बात करें तो इस योजना के अंतर्गत पंजीयन कराने के लिए ऋण एवं भू-अधिकार पुस्तिका, आधार कार्ड, समग्र आईडी बैंक खाते की पासबुक और पटवारी का बोई फसल के लिये प्रमाणीकरण का पत्र लेकर निर्धारित केंद्र में जाए। इतने ढेर सारे कागजों की क्या जरूरत हैं, किसान कोई चोर-उचक्का है या उसे पासपोर्ट बनवाना है? बैंक पास बुक वर्तमान में अधिकांशत: आधार कार्ड से लिंक हो चुकी हैं, तब अलग से आधार कार्ड देने की क्या आवश्यकता है? फसल बेचने के लिये समग्र आईडी की क्या आवश्यकता है? पटवारी प्रत्यक्ष निरीक्षण कर जब फसल कम्प्यूटर रिकॉर्ड में दर्ज करने के लिये उत्तरदायी है तो शासकीय कर्मचारी के तौर पर पटवारी को उसका काम समय से पूरा करने के लिये बाध्य करने की बजाय उससे लिखवा कर देने के लिए किसान को क्यों बाध्य किया जा रहा है? जब भूमि स्वामित्व संबंधी राजस्व अभिलेख में संबंधित किसान के आधार कार्ड, बैंक खाते और मोबाईल नंबर को दर्ज करने के लिए राज्यव्यापी अभियान प्रगति पर है तो बार-बार किसानों से कागजों को विभिन्न विभागों द्वारा क्यों मांगा जा रहा है? बरसों से विद्युत कम्पनियों के किसान उपभोक्ता हैं फिर भी उनसे नये सिरे से विद्युत कनेक्शन को आधार कार्ड से जोडऩे के लिये कहा जा रहा है। इसी प्रकार रसायनिक उर्वरक खरीदने के लिये भी आधार कार्ड की बाध्यता अनिवार्य की जा रही है। देश में किसानों की संख्या करोड़ों में है जबकि यूरिया का दुरूपयोग करने वाले उद्योगों की कुल संख्या एक लाख भी नहीं होगी, यूरिया के दुरूपयोग को रोकने के लिये इन उद्योगों पर नियंत्रण निरीक्षण करने की बजाय करोड़ों किसानों को घेरना, परेशान करना कौन सी अक्लमंदी है ठेठ देहात की भाषा में कहें तो ‘गधा से तो जीत नई सके गधैया के कान मरोडऩ लगे’। एक माल्या को तो पकड़ नहीं पा रहे पूरे देश को नोटबंदी में उलझा कर काम धंधे चौपट कर दिये। कालेधन को उजागर करने के फेर में बड़े-बड़े नेताओं, उद्योगपतियों, नौकरशाहों, व्यापारियों को तो पकड़ नहीं पा रहे, किसानों का गला जरूर पकड़ लिया है। ई गवर्नेन्स की सुदृढ़ व्यवस्था के ढोल पीटने वाली सरकार के पास हाल ही में उजागर हुए उद्यानिकी विभाग के घोटालों का क्या कोई जवाब है?
भावांतर का दिलफरेब सच
किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने, स्वामीनाथन कमेटी की कृषि उपज पर डेढ़ गुनी कीमत दिलाने, न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने की बजाए भावांतर योजना को किसान हितैषी बताना उसे मूर्ख समझ कर ‘मामू’ बनाने जैसा है। ऐसी सतही लोक-लुभावन योजनाओं के माध्यम से ठगा किसान मतदान के समय साबित करेगा कि ‘असली मामू’ कौन है। साल में तीन-तीन फसलें उगाकर समृद्ध होते किसान के लिये मुफ्त में भंडारण की सुविधायें देना कौनसी समझदारी है और प्रदेश की भ्रष्ट व्यवस्था के चलते शासकीय तंत्र की मिलीभगत से किसानों के नाम पर व्यापारी मुफ्त भंडारण सुविधा का लाभ लेकर जमाखोरी करेंगे तब उन पर किसानों की आड़ में कौन सा प्रतिबंधात्मक कानून लागू होगा? व्यापारियों द्वारा कृषि उपज की ग्रेडिंग के बाद बचा घटिया माल जब किसान के नाम भावांतर योजना में तुल जाएगा और उसके माध्यम से शासकीय खजाने की जो लुटाई होगी उस पर कैसे नियंत्रण होगा? मध्यप्रदेश में प्रशासनिक तंत्र की मिलीभगत से गेहूं खरीदी, दलहन खरीदी, प्याज खरीदी, अनाज भंडारण के लिये बोरों की खरीदी, भंडारगृहों के गोलमाल इन सब घोटाले के तथ्यों से प्रदेश की जनता भली-भांति अवगत है, इसके बावजूद भी शासन और उसके मुखिया को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि हमारी क्या रीति-नीति हो।

भावांतर के कैसे-कैसे भाव?
मध्यप्रदे्श शासन निरंतर उधार लेकर घी पी रहा है। सच्चाई तो यह है कि शासन को स्वयं धंधा करने की बजाय सुशासन की ओर ध्यान देना चाहिए। जिस प्रकार उद्योगपतियों को उनके कारखाने स्थापित करने और चलाने के लिये ‘इज आफ डू इंग बिजनिस’ के प्रयास किये जाते हैं, उसी प्रकार किसानों और व्यापारियों के लिये भी कार्य योजनायें तैयार करनी चाहिए, यदि इसकी समझ नहीं है तो अक्ल भी उधार मिलती है परंतु इसकी जरूरत न तो नेताओं को है और न ही अधिकारियों को। सभी अपनी अगली सात पीढ़ी के लिए इंतजाम करने में जुटे हैं तभी देश का सर्वोच्च न्यायालय पूछ रहा है? बताओ भाई पांच साल में पांच सौ गुनी कमाई कैसे हुई। शासकीय अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के वर्तमान दौर में तो किसानों को इस जंजाल से मुक्ति पाने के लिये ढूंढे से भी खेती के खरीददार नहीं मिल रहे, ‘माया मिली न राम’ यही उसकी नियति बन गई है।
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