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खरीफ फसल हेतु आवश्यक उपाय

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अधिकांश रूप से ऐसा देखा गया है कि या तो वर्षा समय पर प्रारंभ नहीं होती या उसका वितरण फसल की आवश्यकता के अनुसार नहीं होता है, जिसके कारण कई अवस्थाओं में या तो पानी अधिक होता है, जिससे हानि होती है या इतना कम पानी होता है, जिससे अच्छी फसल नहीं उगाई जा सकती। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि केवल शुष्क पदार्थ का कितना भाग अनाज में परिवर्तित हुआ है, वहीं हमारे लिए महत्वपूर्ण है। प्राय: हमारे यहां बाजरा, ज्वार, मक्का और अन्य फसलों में, जो वर्षा पर बिल्कुल आधारित रहती है, कटाई सूचकांक 10 से 25 प्रतिशत तक रहता है, जो अपने आप में बहुत कम है। अच्छी फसल तभी कही जा सकती है जब उसका कटाई सूचकांक 40 प्रतिशत से कम न हो।
देशी खादों का उपयोग
इतना ऊंचा कटाई सूचकांक प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है कि भूमि में न तो पोषक तत्वों की कमी हो, न उनकी अधिकता हो और साथ ही फसल पकते समय इतना पानी रहे, जिससे दाना न सिकुडऩे पाए। ऐसा प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि हमारे पास जितनी देशी खादें हैं या फसलों के अवशेष हैं, उनकी ऐसे ढंग से खाद बनाएं, जिससे पोषक तत्वों का हृास न होने पाए, जहां तक हो सके फसल के अवशेष और गोबर को गड्ढे में डालकर सड़ा कर खाद बनाएं। खाद के ढेर को लम्बे समय तक खेत में न पड़े रहने देना चाहिए। खाद डालने के पश्चात उसे मिट्टी में बिखेर कर अच्छी तरह से मिला दें।
वर्षा जल सहेजें
यह उल्लेखनीय है कि खरीफ फसल उत्पादन कार्यक्रम के मध्य में ही सूखा पड़ जाना और समय से पहले ही मानसून समाप्त हो जाना आदि प्रमुख कारणों से फसलोत्पादन में की जटिल समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। वर्षा के समय में अनिश्चितता की स्थिति बनी रहती है। उक्त कारणों के फलस्वरूप ही किसान फसलोत्पादन में लक्ष्य आधारित वृद्धि करने में अपने आपको असमर्थ पाता है, इसलिये फसलोत्पादन सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से वर्षाजल का संरक्षण आवश्यक है, जिससे कि भूमि के अंदर अधिकतम नमी संरक्षण हो जाय।
खेत समतल हों
खरीफ के मौसम में सफल फसलोत्पादन के लिए खेत का समुचित रूप से समतल होना अति आवश्यक है, क्योंकि खेत के ऊंचे-नीचे होने की स्थिति में वर्षा जल का वितरण समान गति और समान रूप से नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप खेत मेें नमी का विस्तार एक समान नहीं हो पाता है। खेत का समतलीकरण करने के बाद खेत के चारों तरफ मेढ़बंदी कर देनी चाहिए, जिससे कि वर्षा जल खेत के बाहर न जा सके और खेत के अंदर ही जल का अधिकतम अवशोषण हो सके। डॉ. वी.पी.एन सिंह और डॉ. एस.के. उत्तम ने उल्लेख किया है कि किसान असिंचित दशा में देशी हल से लगातार एक निश्चित गहराई पर जुताई का कार्य करते हैं, जिससे भूमि सतह के 12-15 से.मी. नीचे की मिट्टी का स्तर अत्यधिक कठोर हो जाता है और परिणामस्वरूप भूमि के अंदर कठोर पर्त वर्षा जल को नीचे प्रवेश करने में व्यवधान उपस्थित कर देती है। उक्त दशा के उत्पन्न होने पर मिट्टी पलटने वाले हल से सबसे पहले कठोर पर्त को तोडऩा चाहिये, जिससे भूमि के अंदर की अनावश्यक कठोरता समाप्त हो जाती है और मिट्टी की भौतिक संरचना में सुधार होने से मिट्टी के अंदर वायु आवागमन सुगमतापूर्वक होने लगता है और साथ ही साथ वर्षा का भूमि के अंदर अधिकतम अवशोषण होता है। फलस्वरूप अपधावन कम होने के कारण फसलोत्पादन वृद्धि में सहायता मिलती है।
ढाल के विपरीत बुवाई
खरीफ के मौसम में वर्षा आश्रित भूमि में कृषि कार्य में की जाने वाली जुताई, बुआई, निराई-गुड़ाई आदि का कार्य सदैव ढाल के विपरीत दिशा में करना चाहिये जिससे प्रत्येक कूंड़ वर्षा के जल बहाव को नियंत्रित करके, एक प्रकार से अवरोधक का कार्य करता है और वर्षा जल की अधिकांश मात्रा का भूमि के अंदर अधिक से अधिक अवशोषण होता है और खेत के बाहर पानी कम बहता है।
खरीफ में मक्का, ज्वार, बाजरा और दलहनी फसलों की बुआई ढाल के विपरीत मेड़ों पर अथवा बुआई के बाद बनाना फसलोत्पादन के दृष्टिकोण से उपयोगी पाया गया है। इस तरीके में अत्यधिक वर्षा होने पर अतिरिक्त वर्षा जल कूंड़ों में अत्यधिक वर्षा होने पर अतिरिक्त वर्षा जल कूंड़ों में इकट्ठा हो जाता है, जिससे फसल को दोहरा लाभ होता है। अत्यधिक वर्षा जल के कुप्रभाव से जहां फसल को समुचित सुरक्षा मिलती है, वहीं सूखा की स्थिति उत्पन्न होने पर कूंड़ों में एकत्रित जल का भूमि के अंदर अवशोषित हो जाने के कारण फसल को लम्बी अवधि तक उपलब्ध होता रहता है। ये बात स्थानीय कृषि महाविद्यालय, ग्वालियर के कृषि विज्ञान केन्द्र में पदस्थ प्रभारी कृषि वैज्ञानिक डॉ. यादवेन्द्र सिंह चौहान ने बताई।
पानी का हिसाब रखें
अत: शुष्क क्षेत्रों में खेती करने में फसल की बढ़वार के अंतराल में कितना पानी बरसता है, कितना पानी वाष्पीकरण से उड़ जाता है और कितने ऐसे अवसर आते हैं, जिनमें फसल को पंद्रह दिन और उससे अधिक समय के लिये पानी नहीं मिल पाता है, की जानकारी आवश्यक है। इन बातों का ठीक से लेखा-जोखा करना चाहिए और इसके साथ-साथ ही सूर्य की रोशनी की प्रचण्डता का सही माप होना आवश्यक है, न कि वातावरण के तापमान का।अन्यथा वर्षा निर्भर खेती में असफलता ही हाथ लगेगी। ऐसा शस्य विज्ञानी डॉ. यादवेन्द्र सिंह चौहान का कहना है।
वर्षा आधारित खेती को सफल बनाने के लिये इसकी मूलभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि असिंचित खेती में यदि वर्षा के पानी का ठीक से संरक्षण कर लिया जाये और उस क्षेत्र की औसत वर्षा और उसके वितरण को ध्यान में रखकर फसल उत्पादन की योजना बनायी जाये तो इसकी सफलता के आसार ही नहीं बढ़ जाते हैं, बल्कि अधिक उत्पादन भी लिया जा सकता है।
सूखे को झेलने वाली फसलें
हर फसल में वातावरण के सूखा सहने की अलग-अलग क्षमता होती है। पर ऐसी फसलें, जिनमें पानी सुगमता से मिलने पर पत्तियों की बढ़वार अधिक हो जाये, उनमें सूखा सहन करने की क्षमता कम होती है। असिंचित परिस्थितियों के लिये उपयुक्त फसल वह है, जिसकी जड़ का फैलाव अधिक से अधिक हो, दिन में जिसकी पत्तियों के रंध्र बन्द रहे और जिनमें गर्मी सहने की शक्ति हो। खरीफ की फसलों में सूखा रोधकता सिर्फ पानी की कमी सहने से ही नहीं आती, अपितु भूमि के अधिक तापमान सहने की क्षमता भी इसके लिए आवश्यक है। मूंग, ग्वार और बाजरे में अधिक सूखा रोधकता है। पर ऐसी स्थितियों में पौध संख्या कम करके कुछ हद तक फसल का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। ऐसी फसलों में फूल एक साथ और इतनी संतुलित संख्या में निकलें जिनसे दाने पूरे बन जाएं। चाहे दाने भले ही कम हों। फसल में जितनी जल्दी फूल आते हैं, इसी पर भी फसल की सूखा रोधकता निर्भर करती है। अत: ऐसी प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए, जिनका जड़-तना अनुपात अधिक हो, जिनमें फूल एक साथ और शीघ्र आते हो, जिनमें दिन के समय या तो पत्तियों के रंध्र सिकुड़ जाते हों या फिर बंद हो जाते हों और भूमि और वातावरण का ताप सहने की क्षमता हो। यदि भूमि में वर्षा से प्राप्त नमी का सही संरक्षण कर लिया जाये तो ज्वार, तिल और बाजरे की फसलों से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।
मिट्टी की गहराई अनुसार फसल लें
असिंचित खेती में सफलता का एक प्रमुख राज है मिट्टी की गहराई के अनुसार फसल का चयन। असिंचित खेती में भूमि संरक्षित जल एक पूंजी है। अलग-अलग गहराई वाली मिट्टी में इस संचित पूंजी की अलग-अलग मात्रा उपलब्ध होती है। खरीफ की फसलों को वर्षा समाप्त होने, अनिश्चित होने या असामयिक होने पर इसी संचित जल पर अपना निर्वाह करना होता है। अत: यह आवश्यक एवं वैज्ञानिक तथ्य है कि जितनी मिट्टी गहरी होगी, कुल जल की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। अत: मिट्टी की गहराई के अनुसार ही फसल किस्मों को चुना जाना जरूरी है। उथली काली मिट्टी में अधिक उपज देने वाली अल्पावधि खरीफ फसलें और उनकी किस्में जैसे संकर-मक्का+ सोयाबीन, संकर ज्वार+ सोयाबीन, मध्यम गहरी काली मिट्टी में संकर ज्वार, संकर बाजरा, संकर मक्का के साथ सोयाबीन, उड़द या अरहर की मध्यावधि किस्में और गहरी काली मिट्टी में अल्पावधि वाली खरीफ की फसलें जैसे संकर मक्का, संकर बाजरा के साथ सोयाबीन या अरहर की मध्यावधि किस्मों को बोना चाहिए।

वर्षा आधारित खेती में ज्वार में सूखा सहन करने की विपुल क्षमता है
ज्वार की जड़ें पौधों से काफी दूर तक फैली होती हैं। इनकी आम गहराई 3 या 4 फीट होती है। जमीन में यह जड़ें काफी अच्छी तरह फैली होती है। ज्वार में रेशेदार मूल पद्धति, जिसका जन्म तने की सबसे वाली गांठ से होता है, पौधे को जीवन में खास महत्व रखती है। वास्तविक रूप में मूलांकुर ही अस्थायी होता है, अर्थात् बाकी जड़ें पौधे के सारे जीवन काल तक रहती हैं। ज्वार की जड़ों के भ्रूण पोषक सतह में सिलिका की परत जमा हो जाती है। इसकी मोटाई किस्म के ऊपर निर्भर करती है। इसी परत के कारण इस फसल में सूखा को सहन करने की ताकत आती है, क्योंकि पानी की कमी के कारण इस फसल में सूखा को सहन करने की ताकत आती है, क्योंकि पानी की कमी के कारण जो अत्यधिक दबाव पैदा हो जाता है उससे सहन करने की शक्ति, इस परत की मोटाई पर निर्भर करती है। ज्वार की जड़ें विस्तृत पाश्र्व शक्ति गर्भित मूल और सूक्ष्म पाश्र्वमूल का एक सम्मिश्रण होती है। ज्वार की फसल में काफी हद तक ऊंचे तापमान को सहन करने की शक्ति है। भूमि में जल का अति अभाव होने पर ज्वार और बाजरा की पत्तियां दिन के सर्वाधिक गर्म भाग में गोलाकार मुड़ाव ले लेती हैं, जो कि इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करने की एक प्राकृतिक विधि है। प्राय: ज्वार के पौधे की पत्तियां अन्य फसलों की तुलना में अधिक उष्णता भार को सहन करने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। ज्वार का केवल 4.2 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। अत: इन सभी क्षेत्रों में जल का समुचित प्रबंध करना, सफल खेती और उत्पादन स्थिरता की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है। अनुमान लगाया गया है कि कुल वर्षा का 60 से 70 प्रतिशत भाग वाष्पीकरण द्वारा और 10-20 प्रतिशत भू तल से बहाव द्वारा हृास होता है। केवल 10-12 प्रतिशत भूमि द्वारा सोखा जाता है। इसमें से लगभग 10 प्रतिशत भूगत जल निकास की प्रक्रिया में चला जाता है। लगभग 5 प्रतिशत भूमि में ऐसी अवस्था में रहता है, जिसका पौधे प्रयोग नहीं कर सकते हैं। पौधों की बढ़वार के लिए केवल 5-15 प्रतिशत वर्षा जल उपलब्ध हो पाता है। उक्त कथित सारी क्रियायें जल चक्र के विभिन्न अंग हैं। इस प्रकार यह बात स्पष्ट है कि मोटे अनाज वाले (ज्वार, बाजरा व मक्का) सभी क्षेत्रों में जल का वैज्ञानिक प्रबंध ही उनकी सफल खेती में सहायक हो सकता है। भूमि तल को समतल बना देने पर भूमि पर गिरने वाली वर्षा का समान वितरण होता है। फलस्वरूप पानी भूमि में लम्बे समय तक भरे रहने के कारण इसका उत्तम संरक्षण करना संभव होता है।

 

दो फसल साथ लगाएं
यह एक स्थापित सत्य है कि अकेली फसल की अपेक्षा अंतरवर्तीय फसल से अधिक उपज प्राप्त होती है, विपरीत मौसम में कीड़े, रोग आदि के प्रकोप से हानि की जोखिम कम हो जाती है। श्रम, भूमि और पशु शक्ति का सक्षम उपयोग होता है। अंतरवर्तीय फसल आर्थिक रूप से भी अधिक लाभदायक है।
असिंचित कृषि अनुसंधान परियोजना और अन्य परियोजनाओं में किये गये अनुसंधानों के आधार पर चयनित अन्तरवर्तीय फसलें और अनुपात जैसे ज्वार+अरहर (2:2), मक्का+सोयाबीन (2:2), सोयाबीन+मक्का (4:2 या 6:2), सोयाबीन +अरहर (2:2 या 4:2), मक्का + मूंगफली (3:1 या 4:2) और ज्वार +मूंगफली (2:4) को उपयुक्त पाया गया है। असिंचित खेती में उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण, जल की उपलब्धता के अनुसार तय किया जाना चाहिए। उर्वरकों की मात्रा के साथ-साथ उनका संतुलित रूप से उपयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। असिंचित फसलों में उर्वरकों के देने का समय, विधि और गहराई अत्यंत महत्वपूर्ण है। अधिक मात्रा में एवं अधिक समय तक नमी उपलब्ध होने पर पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। फसल और उनकी किस्मों का चयन भी नमी की उपलब्धता अवधि के अनुसार ही किया जाना चाहिये। गहरी मिट्टियों में हल्की मिट्टी की अपेक्षा देर से पकने वाली किस्में ली जानी चाहिये। किंतु वैज्ञानिकों अनुसार उर्वरकों को फसल के बीज के नीचे नमी युक्त गहराई तक पहुंचना बहुत जरूरी होता है, अन्यथा पोषक तत्व घुलकर पौधों की जड़ों को नहीं मिल पाते और तेज बारिश होने पर बहकर तेज धूप और गर्मी में गैस बनकर उड़ जाने की संभावना रहती है। फास्फोरस और पोटाशयुक्त उर्वरकों को भूमि की सतह पर बिखेर कर नहीं देना चाहिए, क्योंकि यह मिट्टी के कणों के साथ बंधकर पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाता है।

 

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