काहे को झूठी बनाओ बतियाँ
लेखक: ध्रुव शुक्ल, मो.: 9425201662
04 सितम्बर 2024, भोपाल: काहे को झूठी बनाओ बतियाँ – कवि जयदेव के ‘गीत में है गोविन्द’ की याद आ रही है. कमला के कुचमण्डल का आश्रय करने वाले, कुण्डल और वनमालाधारी हे देव! आपकी जय हो। ये वही देव हैं जो गोकुलग्राम ओकृष्ण की देह में उतर आये और इनके प्रेम में डूबी राधा को संदेह है कि ये तो किसी और से मिलकर आये लग रहे हैं और मुझसे झूठ बोल रहे हैं। इनकी देह और वस्त्रों में परमिलन के सबूत साफ दिख रहे हैं। श्रीकृष्ण अपने बचाव में विफल है और राधा उलाहना देते हुए कह रही है. हरि हरि याहि माधव याहि केशद मा वद कैतववादम। प्रेम के सौन्दर्य में डूबा यह झूठ नृत्य में आज भी अभिनीत होता है और नर्तकी सहृदयों की सभा को आनंद से भरती है। सगीतकार उस्ताद फैयाज खां साहब भी तो भैरवी दादरा में इसे गाते थे जाओ, जहाँ रहे तुम रतियों, काहे को झूठी बनाओं बतियों। श्रीकृष्ण तो यही भरोसा दिला रहे हैं कि माढ़ी पीति के कारण सब एक दूसरे में बसे हुए है। दूसरा कोई है ही नाहीं। पर कोई माने तब ना। जब कवि जयदेव की याद आती है तो कवि विद्यापति की याद आये बिना नहीं रहती। उनकी याद भी आ रही है प्रेम की गहराई में डूबी देह के अंतरतम में जल उमड़ रहा है. देह की धूरी डगमगा रही है और प्राण ऐसे व्याकुल हो रहे हैं जैसे प्रलयकाल आ गया हो। देह ऐसे खूब रही है जैसे किसी बीते युग का अवसान हो रहा हो। पर देह में घटती इस जलप्रलय के बाद प्रेम की नयी भूमि भी तो ऊपर उठती दीख रही है और राधा फिर उसी भूमि पर नये नेह से भरती जा रही है। पण्डित कुमार गंधर्व भी तो राग कामोद-नट एकताल-दूत में कवि सूरदास का पद गाते थ… नथी नेह, नथौ गेह, नयी रस नवलकुंवरि वृषभानु किसोरी। प्रेम ही तो है जिसमें बार-बार नयी पृथ्वी रची जाती है और नये युग बदलते हैं। पर प्रेम नहीं बदलता। वह तो वही बना रहता है। प्रेम का अन्त कभी नहीं आता। केवल प्रेम ही है जिसमें झूठी बतियों भी सौन्दर्य से भरकर खिल उठती है। प्रेम में झूत के पकड़े जाने का मजा कुछ और ही है। अगर लोक प्रतिनिधि भी प्रेम से भरे हुए ही तो नवयुग की शुरुआत होने में देर नहीं लगेगी। किसी-किसी के लिए प्रेम एक अहसास भर है और किसी के लिए आहट सा सुनायी पड़ता है। किसी के लिए वह एक सवाब-सा है और किसी के लिए हाथों में आ गयी पूरी दुनिया-सा I
जो प्रेमातुर हैं वे छिपने की जगहें तलाशते है और प्रेम धियाये नहीं छिपता। प्रेमी खुद प्रेम का रंग कहां जानते हैं। इस रंगते रंगते मान लेते हैं कि यही होता होगा प्रेम का रंग। प्रेम मिल जाये तो उसे पहचानना बहुत मुश्किल है। प्रेम होने के बाद खुद प्रेमी नहीं जान पाते कि वह सचमुच हो गया है। पास रहकर भी दूर नजर आते और दूर रहकर भी बहुत करीब से लगते हैं। प्रेम देर रात संयोग से मिल गयी आखिरी बस जैसा लगता है। वह प्लेटफार्म पर हौले होले सरकती आ रही रेलगाड़ी जैसा भी तो है। यह दरवाजे पर पोस्टमेन की दस्तक जैसा लगता है। वह दराज में बंद किसी डायरी और कोटो एलचम जैसा है। वह सांझ थिरते ही तुलसी चौरे पर रखे दीये की ली में झलमलाती आंखों जैसा है। वह अगवारों में फूलती रोटी जैसा है। यह खेत में सूनी मदैया जैसा है। यह संध्या के सुमिरन में दबी किसी हुक जैसा है। वह आंखों की कोर पर ठिठके आंसू जैसा है। वह बाट जोहती अधखुली किंवरियों जैसा है। वह सूनी सेज और फीकी होती जाती बिंदिया जैस है। प्रेमी तो सदियों से यह भी कहते आये है कि अगर हम जानते कि प्रेम करने से दुख होता है तो नगर में पहले ही दिदोरा पीटकर सबको आगाह कर देते कि कभी प्रेम मत करना। दरअसल प्रेम के बारे में कोई कुछ नहीं जानता। यह तो बिना जाने बूझे ही कर बैठता है। जिन्हें हो जाता है वे कहते हैं कि मिल गया है। जिन्हें मिल जाता है वे कहते फिरते हैं कि हो गया है। वैसे प्रेम की गली बहुत सकरी होती है, उसमें दो नहीं समाते, उन्हें एक होना पड़ता है। प्रेम अमुलियों के पोरों पर ठहरे समय जैसा भी है जो किसी स्पर्श से बहने लगता है। वह सदन प्रतीक्षा में घटते जाते नयनों जैसा भी तो है। प्रेम को खुदा मान लेने का रिवाज भी आम है तो फिर प्रेम ही सूजन है, प्रेम ही पालन है और प्रेम ही संहार है।
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