राष्ट्रीय कृषि समाचार (National Agriculture News)

कृषि और आहार की सनातन संस्कृति

लेखक: प्रमोद भार्गव

15 जनवरी 2025, नई दिल्ली: कृषि और आहार की सनातन संस्कृति – प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा,कृषि और गोवंश थे। प्राकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय-भंडार के रूप में शुद्ध और पवित्र जल स्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव-विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और ऋतुओं के अनुकूल पोषक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पौष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी।

Advertisement
Advertisement

ऊं सह नाववस्तु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवाव है तेजस्विनाव-धीतमस्तु मा विद्विशाव है। भारतीय ज्ञान परंपरा में यह भोजन का मंत्र है, जो आज भी गाया जाता है। आहार के प्रति सम्मान का द्योतक है। आहार का सीधा संबंध उदर से है। अतएव उदर को आहार का भंडार गृह भी कहा जाता है। भोजन ग्रहण करने के बाद शरीर में पोषण के लिए आवश्यक रासायनिक व शारीरिक क्रिया होती है। यही भोजन को पचाने का काम करती है। पाचन की प्रक्रिया इसे पचाकर सप्त धातुओं में बदल देती है।

मानव जीवन अन्न पर निर्भर है। अन्न की उत्पादकता कृषि पर आश्रित हैं। कृषि के लिए उत्तम गुणवत्ता के बीजों की आवश्यकता रहती है। तथापि भोजन केवल कृषि से ही नहीं मिलता है, अपितु फल-फूल और जल व वन्य जीवों से भी मिलता है। परंतु उत्तम आहार अनाज की विभिन्न किस्मों और फलों को ही माना जाता है। इन सब भोज्य पदार्थों की उपलब्धता के तत्पश्चात भी दूध और शहद ऐसे आहार हैं, जिन्हें दोष रहित संपूर्ण आहार माना जाता है। इसलिए बीमारी की अवस्था में चिकित्सक दूध और फल के सेवन की सलाह देते हैं। ज्यादातर आयुर्वेदिक दवाएं मधु (शहद) के साथ खाई जाती हैं। शुद्ध शहद हजारों वर्षों तक खराब नहीं होती। हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के उत्खन्न में पांच हजार साल से भी ज्यादा पुराना शहद का भरा मिट्टी का मटका निकला था, जिसकी शहद खाने योग्य थी।

Advertisement8
Advertisement

सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही अन्न की आवश्यकता अनुभव हुई। इस समस्या के निवारण की दृष्टि से ही कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि, अन्न और आहार एक-दूसरे के पर्याय हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है। कृषि कार्य में अनाज की उपलब्धता है और अनाज मानव जीवन की ऊर्जा है, अतएव कृषि को मानव कल्याण का साधन माना गया है। इसीलिए यजुर्वेद में राजा के प्रमुख कतृत्च च के बारे में कहा है कि वह कृषि की उन्नति करे, जिससे धन-धान्य में वृद्धि हो। शतपथ ब्रह्मांड में कृषि कार्य को चार प्रकारों में बांटा गया है। एक, कर्षण (खेत की जुताई करना), दो वपन (बीज बोना), तीन लवण (पके खेत की कटाई करना) और चार मर्दन अर्थात् दाएं करके स्वच्छ अन्न प्राप्त करना। ऋग्वेद और अथर्ववेद में राजा वेन के पुत्र पृथु को कृषि विद्या का प्रथम आविष्कारक और इंद्र को पहला कृषक माना गया है। इंद्र ने मरुत देवों के साथ मिलकर सरस्वती नदी के किनारे की उर्वरा भूमि पर माधुर्ययुक्त जौ की खेती की-इमं देवा मधुना संयुतं यवं, सरस्वत्यार्मांध मणावचर्कृशु:। इंद्र आसीत सीरपति: षतक्रतु: कीनाषा आसन् मरुत: सुदानव: -अथर्ववेद:6.30.1 आर्य और अनार्यों के युग में जौ या गेहूं की खेती बीज भूमि में फेंककर की जाती थी। कालांतर में हल का आविष्कार हुआ और खेती हलों में बैल जोतकर की जाने लगी। हल का उपयोग भविष्य में एक अस्त्र के रूप में भी हुआ। बलराम का अस्त्र हल ही है। वैदिक काल में हलेष्टि यज्ञ होता था। सम्राट हल चलाकर खेत में उत्तम फसलों के बीज बोते थे। भारत कृषि प्रधान देश होने के साथ यहां की अर्थव्यवस्था की नींव कृषि पर ही टिकी है। हल कृषि कार्य का प्रतीक है। वेद और रामायण काल में हल दहेज में दिया जाता था। वधू चरखा साथ लेकर ससुराल जाती थी। राजा जनक ने हल चलाया था। यही हल एक घड़े से टकराया तो उसमें से सीता उत्पन्न हुईं। महाभारत काल में राजा कुरु ने जिस क्षेत्र में हल चलाया था, वह कुरुक्षेत्र कहलाया। बौद्ध काल में राजा हल चलाते थे और रानी बीज बोती थी। हमारे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देकर शौर्य और कृषि को चिन्हित किया था। लोक कवि धाध ने कहा था, ‘हल लगा पाताल, मिट चला सब अकाल।’

Advertisement8
Advertisement

फसल में पौष्टिकता लाने के लिए वैदिक ऋषियों ने खाद के रूप में दूध, घी और शहद का मिश्रण डालने का उपाय किया था। उत्तम फसल के लिए धूप की भी आवश्यकता है। सूर्य की किरणों से फसल के पौधों को ऊर्जा मिलती है भोजन के रूप में ग्लूकोज मिलता है। सूर्य की किरणें ही बीज में अंकुरण और वृद्धि का कारण हैं। वायु से फसल को कॉर्बन डाइआक्साइड मिलती है। वैदिक युग में भिन्न फसलों की पैदावार प्रमुख रूप से होती थी। धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चना, कंगुनी, छोटा चावल, सांवा, कोदो, गेहूं और मसूर। दूध और उससे बनने वाले दही व घी का भोजन में सर्वाधिक प्रयोग होता था। प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा, कृषि और गोवंश थे। प्राकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय-भंडार के रूप में शुद्ध और पवित्र जल स्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव-विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और ऋतुओं के अनुकूल पोषक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पौष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी।

आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषि-मनीषियों ने नए-नए प्रयोग किए। कृषि फसलों के विविध उत्पादनों से जुड़ी। फलत: अनाज, दलहन,चावल,तेलीय फसलें और मसालों की हजारों किस्में प्राकृतिक रूप से फली-फूलीं। 167 फसलों और 350 फल प्रजातियों की पहचान की गई। अकेले चावल की करीब 80 हजार किस्में हमारे यहां मौजूद हैं। 89 हजार जीव-जंतुओं और 47 हजार प्रकार की वनस्पतियों की खोज हुई।

ऋषियों ने आहार प्रणालियों में विकास के साथ इनके महत्व का निर्धारण करते हुए इन्हें मुख्य रूप से तीन प्रकारों में विभाजित किया। सात्विक आहार, राजसी आहार और तामसिक आहार। सबसे प्रमुख सात्विक आहार माना गया। राजसी आहार तामसिक और राजसिक गुणों वाला होता है। इसे आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें तामसिक तत्वों की अधिकता होती है। तामसिक आहार को सनातन संस्कृति में उचित नहीं माना गया है।

यदि हमारा भोजन पौष्टिक और पवित्र बना रहता है तो हम यजुर्वेद के उस मंत्र को साकार रूप में बदलने में सफल होंगे जो भोजन और ऊर्जा के बीच अंतरसंबंध की व्याख्या करता है। शरीर को जिंदा रहने के लिए आहार की और आत्मा को अच्छे विचारों की जरूरत पड़ती है, जो शुद्ध और सात्विक भोजन से ही संभव है,

ऊॅ यन्तु नद्यौ वर्शन्तु पर्जन्या सुपिप्पला ओशधयो भवन्तु, अन्नवताम मोदनवताम मामिक्षगमयति एशाम राजा भूयासम्। ओदनम् मुद्रवते परमेश्ठी वा एश: यदोदन:, पमावैनं श्रियं गमयति।

Advertisement8
Advertisement

यजुर्वेद में दिए इस मंत्र का अर्थ है, ‘हे ईश्वर! बादल पानी बरसाते रहें और नदियां बहती रहें। औषधीय वृक्ष फलें-फूलें और सभी वृक्ष फलदायी हों। मुझे अन्न और दुग्ध उत्पादन करने वालों से लाभ प्राप्त हो और ऐसी धरती का मैं राजा बनूं। हे ईश्वर! थाली में रखा हुआ भोजन आपके द्वारा दिया प्रसाद है। यह मुझे स्वस्थ और समृद्ध बनाए रखेगा।Ó साफ है, राजा प्रकृति और अन्नदाता से उत्तम भोजन की सामग्री देते रहने की प्रार्थना कर रहा है। यही प्रार्थना एक समय सभी सनातन संस्कृति के उपासक परमात्मा से करते रहे हैं।


(नवीनतम कृषि समाचार और अपडेट के लिए आप अपने मनपसंद प्लेटफॉर्म पे कृषक जगत से जुड़े – गूगल न्यूज़,  टेलीग्रामव्हाट्सएप्प)

(कृषक जगत अखबार की सदस्यता लेने के लिए यहां क्लिक करें – घर बैठे विस्तृत कृषि पद्धतियों और नई तकनीक के बारे में पढ़ें)

कृषक जगत ई-पेपर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

www.krishakjagat.org/kj_epaper/

कृषक जगत की अंग्रेजी वेबसाइट पर जाने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

www.en.krishakjagat.org

Advertisements
Advertisement5
Advertisement