Horticulture (उद्यानिकी)

दुखिया एक किसान है रोवै औ खोवै

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तरकारियों के भाव आसमान पर टँग गए। ठेलेवाले कुम्हड़े तक के दाम पौव्वा में बताते हैं। पूछो तो इसके पीछे भगवान को दोषी मानते हैं कि वे ज्यादा बरसे इसलिए ये समस्या है। गए साल बताते थे कि भगवान कुछ ज्यादा ही कुपित रहे, बरसे ही नहीं, इसलिए सब्जी के दाम तोले में उतर आए। अपने यहां हर बात के लिए भगवान दोषी। सरकार दोषमुक्त।

सानों ने जिस प्याज को औने-पौने बेंचा या सड़कों में फेक दिया, वही प्याज अब सौ पार चली गई। व्यापारियों ने फोकट के भाव स्टोर कर लिया अब दो रुपए की प्याज सवा सौ में बेंच रहे हैं। किसान ठगा सा ये सब देख रहा है। व्यापारियों की चिट्ट भी, पट्ट भी अंटा उनके बाप का।
सरकार किसानों को जो रियायतें भी देती है उसमें इतने छेद होते हैं कि सब रिसकर उनकी तिजोरी में चला जाता है। जब भावांतर योजना बनी तो व्यापारियों ने भाव ही दबा दिए। अच्छे जिन्स को घटिया बताते हैं। किसान मंडी में अकबकाया सा खड़ा है। जिनको किसानों का साथ देना चाहिए वे शाम को व्यापारी की गादी में भाव तय करते नजर आते हैं।
किसान हर साल खुद को दाँव में लगाता है व्यापारी उसे मनमाने नीलाम करते हैं। अब प्याज अस्सी-सौ के भाव बिक रहे हैं। किसान सोच रहे होंगे चलो प्याज ही लगा लें अच्छे दाम मिल जाएंगे। वे मुगालते में हैं, प्याज पैदा होते ही उसके दाम भी भक्क से गिर जाएंगे, पिछले साल जैसे।
किसान कहां जाए क्या करे ? कोल्ड स्टोर और गोदाम सभी व्यापारियों के नियंत्रण में हैं। जल्दी खराब होने वाली सब्जियों को वे डीप फ्रीजर में स्टोर कर लेते हैं। फिर वही दो रुपये का टमाटर हम साठ में खरीदते हैं। सरकार किसानों के हितों का सिर्फ ढोल पीटती है। असली काम व्यापारियों के हक में होता है।
गेंहूं, धान के भाव के लिए भी किसान भटकता है। एक एकड़ में जितनी लागत आती है समर्थन मूल्य से भी उसकी भरपाई नहीं हो पाती। खेती गुलामी की ओर उन्मुख है। पारंपरिक बीज डंकल खा गए। जो बीज बाजार से मिलता है उसमें इतनी व्याधियां होती हैं कि सारा मुनाफा उसी में घुस जाता है। हासिल आए शून्य। सीमांत किसान की और भी मरन है। छोटी जोत के लिए बैलों की जोड़ी मुफीद होती थी वे भी खेत से बाहर हो गए।
अब ट्रैक्टर, हारवेस्टर वालों की सूदखोरी में किसान फँस गया। कहीं-कहीं जोताई, बुबाई और कटाई अधिया-तिहरा पर होने लगी। यह नए किस्म का चलन शुरू हुआ है। मान लो आपके पास एक इंच भी जमीन नहीं, लेकिन ट्रैक्टर हारवेस्टर, समेत कृषि यंत्र हैं तो आप बैठे ठाले बड़े किसान बन जाएंगे। गाँवों में ऐसे ही हो रहा है। बाहर से लोग लावलश्कर के साथ जाते हैं और सीमांत किसानों से अच्छा खासा वसूल कर लौट जाते हैं। जिनके पास एक इंच भी जमीन नहीं वे लोहलंगड़ के दम पर किसानों के भी किसान बन बैठे। गोरू-मवेशी, चीतल, रोंझ का आतंक ऐसा कि हर साल जोत की जमीन सिकुड़ रही है।
मजदूरों के लिए तो योजनाओं की बरसात। एक दिन कमाएं महीने भर खांएं, खटिया तोड़े। बच्चा पेट में आने से लेकर नौकरी, शादी ब्याह तक के इंतजाम के लिए सरकार है न। सो खेतों में काम करने वाले मजूर ढ़ूंढे नहीं मिलते। सीमांत किसान की चौतरफा मुसीबत है। वही सबसे ज्यादा मर रहे हैं।
खेती भी जल्दी ही कारपोरेट सेक्टर में जाने वाली है। पंजाब, हरियाणा से शुरुआत हो चुकी है। बड़ी कंपनियां किसानों की एक मुश्त जमीनें लीज पर लेंगी। शुरुआती भाव इतना आकर्षक होगा कि झंझट से मुक्ति के लिए किसान उसी तरह खुशी-खुशी दे देगा जैसे सिंगरौली में या अन्य औद्योगिक इलाकों में।
कारपोरेट का जमीन हड़पने का फंडा जबरदस्त है। उसके दलाल पहले हिसाब निकालते हैं कि दस एकड़ में सालभर में कितने कीमत की फसल निकलती है। फिर दस एकड़ जमीन की कीमत जब करोड़ से ऊपर बताते हैं और समझाते हैं कि इसकी ब्याज से वह पुश्तों घर बैठे खा सकता है तो किसान उछलते हुए सौदे को तैयार हो जाता है।
मैंने सिंगरौली के कई गांवों में ऐसा देखा है कि जो लोग किसानों को ये समझाते हैं कि जमीन मत दो,खेती ही करो, वे उनकी नजर में दुश्मन हो जाते हैं। मैं इस क्षेत्र के ऐसे कई भूतपूर्व किसानों को जानता हूँ जिन्होंने करोड़ों में जमीन बेंची पर अब या तो दारू पीपी के मर गए या जुएँ में सब कुछ गँवा बैठे। कारपोरेट के दलाल उन्हीं गाँवों में दारू के ठेके भी ले लेते हैं व जुएं के फड़ भी शुरू कर देते हैं। यानी एक हाथ से दिया दूसरे हाथ से लिया। सीमेंट और बिजली बनाने वाले कारपोरेट अब तेजी से खेती की तरफ आ रहे हैं। ये खेती के लिए खेतों का अधिग्रहण करेंगे ठीक उसी तर्ज में जैसा की ऊपर बताया और किसान भी उसी तर्ज में बरबाद होंगें जैसा कि ऊपर जिक्र किया।
सरकारें ऐसी ही स्थितियां पैदा कर रही हैं अन्यथा खेती को व्यापार व सेवा क्षेत्र की अर्थगणित के हिसाब से देखती। कृषि विशेषज्ञ श्री देविंदर शर्मा अपने एक अध्ययन के निष्कर्ष में बताते हैं- 1970 में गेहूं 76 रूपये क्विंटल था। 2015 में करीब 1450 रुपए क्विंटल हुआ, यानी कि 19 गुना बढ़ा। जबकि इस दौरान सरकारी कर्मचारियों का मूलवेतन डीए 120 गुना बढ़ा। प्रोफेसर रैंक में ये बढोत्तरी 150 से 170 गुना और कारपोरेट सेक्टर में ये बढ़ोत्तरी 300-1000 गुना की थी। इस अनुपात में किसान की तुलना करें तो गेहूं कम से कम 7600 रुपये क्विंटल होना चाहिए।
क्या यह अर्थगणित क्या सरकार के नीतिनियंता नहीं जानते? जानते हैं लेकिन वे इसका भी इलाज कारपोरेटीकरण में देखते हैं। अभी खेती को इसीलिए इतना दुश्कर बनाया जा रहा है ताकि किसान तंग आकर खेती भी बड़े औद्योगिक घरानों के हवाले कर दे जो कि अमेरिका के तर्ज पर कब से तैयार बैठे हैं।

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