Editorial (संपादकीय)

खाद्यान्न उत्पादन हेतु उपलब्ध नवीनतम तकनीकें

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जलवायु में लगातार आ रहे परिवर्तन के कारण फसलों की उत्पादकता लगातार प्रभावित हो रही है। इससे भारत जैसे विकासशील देश ज्यादा प्रभावित हैं क्योंकि कृषि हमारा मुख्य व्यवसाय है। खेती में मशीनों में ईंधन के प्रयोग से, रसायनों तथा उर्वरकों के निर्माण में तथा कल कारखानों से बहुत बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं जिससे आज विश्व का तापमान प्रति वर्ष 2 डिग्री सेंटीग्रेड की दर से बढ़ता जा रहा है तथा वर्षा की भी मात्रा कम व अनियमित होती जा रही है जिसका खेती, पशुओं व वनों पर विपरीत प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखने लगा है। उत्पादन बढ़ाने के कुछ उपाय हैं – उत्पादकता में वृद्धि, संसाधन दक्षता, उत्पादन लागत में कमी, फसल सघनता में वृद्धि तथा उच्च मूल्य वाली फसलों द्वारा विविधता में वृद्धि। प्रधानमंत्री जी का दृष्टिकोण 2022 तक किसान की आय दुगुनी करने का है जिसमे समाहित है – प्रति बूंद ज्यादा उत्पादन, बीज प्रतिस्थापन दर में वृद्धि, मृदा परीक्षण के आधार पर पोषण प्रबंधन तथा मृदा स्वास्थ्य कार्ड का वितरण, कृषि उपज सुरक्षित रखने हेतु वेयरहाउस व शीत गृह का निर्माण, कृषि उपज का मूल्य संवर्धन, राष्ट्रीय कृषि मंडी का निर्माण,  ई-पटल के द्वारा देश की सभी मंडियों को जोडऩा, ज्यादा से ज्यादा फसलों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत लाना व किश्त की राशि कम रखना तथा सहायक कृषि कार्यों जैसे मुर्गीपालन, रेशम उत्पादन को बढ़ाना। उत्पादन में आयी कमी तथा उत्पादन लक्ष्य में आयी दरार को पाटने हेतु निम्न अद्यतन तकनीकं कारगर साबित हो सकती हैं –

उपग्रह संचार तथा मानचित्रण तकनीक 

भारत के बहुत से उपग्रह अंतरिक्ष से जानकारी  लगातार भेजते रहते हैं जो कि मौसम, बाढ़, तूफान, प्राकृतिक आपदाएं जैसे मृदा क्षरण आदि से संबधित होते हंै। भविष्य में सेवा प्रदाताओं द्वारा किसानों व स्थानीय प्रशासन को उपरोक्त जानकारी समय पर उपलब्ध कराने होने वाले संभावित खतरे को कम किया या टाला जा सकता है। आज स्मार्ट फोन द्वारा अनेकों एप के माध्यम से भी किसान उपरोक्त जानकारी को समय रहते प्राप्त कर सकते हैं। पत्ती सेंसर द्वारा फसल जल मांग का समय व देने वाले जल की मात्रा का भी निर्धारण किया जा सकता है। पशुओं के कान में लगे सेंसर से उनकी नींद, बैठने व खाने की जानकारी संग्रहित कर उनका उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। 

सिंचाई प्रबंधन 

यह अनुमान लगाया गया है कि जलवायु परिवर्तन जल उपलब्धता को घटाएगी अत: कम जल लागत वाली तकनीक जैसे लेजर मशीन से भूमि समतलीकरण, धान उत्पादन की एसआरआई (श्री) विधि, धान की सीधी बुवाई, स्थाई ऊँची क्यारी पद्धति (रेज्ड बेड) का अनुकरण ही लाभदायक होगा। तकनीकों द्वारा जल गुणवत्ता, उपस्थित लवणों की सांद्रता इत्यादि के बारे में पता लगाया जा सकता है। सौर ऊर्जा का प्रयोग पम्प व मोटर चलाने में किया जा सकता है। खुली सिंचाई का प्रयोग न करके स्प्रिंकलर व टपक सिंचाई पद्धति का प्रयोग करके जल की बचत की जा सकती है। 

उन्नत बीज का प्रयोग 

जीएम (अनुवांशिक रूप से परिवर्तित) तथा संकर किस्मों का प्रयोग किया जाये जिसमे कीटों व बीमारी से बचाने के गुण मौजूद हों ताकि हानिकारक रसायनों का प्रयोग खेती में कम से कम किया जा सके व पर्यावरण संतुलन बना रह सके। कम अवधि की किस्मों का तथा ऐसी किस्मों का प्रयोग किया जाये जिनकी जल मांग कम हो तथा प्रतिकूल परिस्थिति में भी इष्टतम उपज दे सकें। बीज प्रतिस्थापन दर बढ़ाई जाये ताकि पुरानी किस्मों का स्थान नयी किस्में एक तय अंतराल पर लेती रहें। बीज का उपचार फफूंदनाशी, कीटनाशी व जैव उर्वरकों से करने के बाद ही बोनी करना चाहिए। 

संरक्षित खेती 

इस खेती का प्रथम प्रयास ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा कम करने का है तथा भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाने का है। जिससे मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ती है, मृदा संरचना में सुधार होता है, जल की अन्त: स्पंदन दर बढ़ती है फलस्वरूप बाढ़ खतरा कम होता है, मृदा क्षरण कम होता है तथा सूखे के समय फसल पर प्रतिकूल प्रभाव कम पड़ता है। इस विधि में मृदा की जुताई कम से कम की जाती है तथा फसल अवशेषों को जलाने पर पूर्ण प्रतिबंध होता है। इस खेती में मुख्यत: बिना जुताई  की खेती (जीरो टिलेज) जीरो टिल ड्रिल अथवा हैप्पी सीडर से की जाती है। पूर्व फसल के अवशेषों का निपटारा इसमें मुख्य समस्या होती है क्योंकि आजकल फसलों की कटाई कम्बाईन हार्वेस्टर से की जाती है जिसमे कटाई बाद फसल के अवशेष व नरवाई बचती है जो की अगली फसल हेतु खेत तैयार करने में कठिनाई पैदा करती है। इस समस्या से निपटने हेतु हैप्पी टर्बो सीडर सबसे उपयुक्त मशीन पाई गयी है जो खड़े फसल अवशेष के बीच एक बार में ही बखरनी तथा बोनी कर देता है। इसके कारण मृदा हलन चलन कम से कम होता है तथा खरपतवार के बीज कम से कम उगते हैं। धान के खेत को मचाकर बोनी करने की जगह सीधी बुवाई करने से समय पर बोनी होने के साथ पानी की बहुत बड़ी मात्रा की बचत होती है तथा खेत की मचाई से मृदा की संरचना को होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकता है।

फसल संरक्षण 

नए रसायनों, जैव पदार्थों व जैविक उत्पादों का प्रयोग बढ़ाया जाये जो कि लक्षित पीड़कों, बीमारियों तथा खरपतवारों का नियंत्रण कर सकें। समन्वित कीट व फसल नियंत्रण को अमल में लाकर खेती की लागत को कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए। सेवा प्रदाताओं द्वारा आर्थिक क्षति स्तर का आकलन करके समय रहते कीट व बीमारियों के बारे में आगाह किया जाये ताकि उत्पादन ह्रास को रोका जा सके। 

कृषि उपकरण, रोबोटिक व कृत्रिम बुद्धि आधारित मशीनें 

चालक रहित ट्रैक्टर, हार्वेस्टर व रोपाई मशीनों को उपग्रह से जोड़कर चलाने से बहुत सा मानव श्रम बचेगा जिनका प्रयोग और भी उत्पादक कार्यों में किया जा सकेगा तथा उत्पादन लागत में भी कमी आयेगी। छोटे मझोले व बड़े किसानों के उपयोग हेतु उपयुक्त मशीनें किराये पर सेवा प्रदाताओं (कस्टम हायरिंग) द्वारा उपलब्ध कराई जाये या उच्च श्रेणी के सेवा प्रदाता मशीन के साथ-साथ उसकी मरम्मत व सुधार भी समय-समय पर करें ताकि उनका समुचित उपयोग हो सके।

खड़ी/उध्र्व खेती

खेती के लिए उपलब्ध जमीन घटती जा रही है क्योंकि शहरों का विस्तारीकारण एवं जनसंख्या विस्फोट चरम पर है अत: इसके समाधान के तौर पर एरोपोनिक्स व अक्वापोनिक्स का चलन बढ़ाना होगा जिससे शहरी जनसंख्या को ताजे व रसायन रहित फल व सब्जी की उपलब्धता लगातार बनी रह सके। 

उपज उपरांत प्रबंधन

आधुनिक संग्रहण कक्ष/वेयरहाउस का निर्माण किया जाये जो कि कंप्यूटर से जुड़ा हो तथा जिसमे धूम्रण के द्वारा अनाज के कीड़ों व फफूंद का नियंत्रण आवश्यकतानुसार स्वत: होता रहे। प्रत्येक वेयरहाउस में ग्राम समूहों के उपज को रखने की सुविधा किराये आधार पर हो तथा ये आवागमन की सुविधा व बाजारों से जुड़े रहें ताकि कृषि उपज का उचित मूल्य मिल सके। अनाजों की निर्यात पैकिंग करने पर वे कीट मुक्त व ताजे बने रहते हैं।

पारंपरिक खेती से संरक्षित खेती में बदलाव के तरीके 
क्र.पारंपरिक तरीका संरक्षित तरीका 
1नरवाई जलाकर खेत तैयार करने  हेतु 4-5 जुताई फिर बुवाई। जीरो टिल तरीके से खड़े फसल अवशेष के बीच एक बार में ही बुवाई। 
2असमतल खेत में खेती। लेजर लेवेलेर से समतलीकरण करने के पश्चात् खेती ।
3धान की खेत मचाकर रोपाई। श्री विधि से धान का उत्पादन। 
4छिड़काव विधि से फसल की  बोनी करना।उचित कतार व पौध की दूरी का प्रयोग करते हुए उत्पादन लेना। मेड़ नाली पद्धति अथवा बेड प्लांटिंग तकनीक का प्रयोग करना। 
5बिना संस्तुति के खेत में उर्वरकों का धान में अंधाधुंध प्रयोग। लीफ कलर चार्ट का प्रयोग करते हुए आवश्यक उर्वरक का प्रयोग तथा नीम लेपित यूरिया का प्रयोग। 
6केवल उर्वरकों का प्रयोग करना। हरी खाद व राइजोबियम, पीएसबी तथा ट्राईकोडरमा कल्चर का इस्तेमाल करना। 
7सिंचाई हेतु खुले पानी विधि का इस्तेमाल करना।स्प्रिंकलर अथवा टपक सिंचाई विधि का इस्तेमाल करना। 
8एक या दो फसलों मात्र की ही खेती करना।एकीकृत कृषि प्रणाली अपनाना जिसमे खेती (अनाज के साथ दलहनी व तिलहनी फसलें)  के साथ पशुपालन, मुर्गी पालन, बकरी पालन, फल व सब्जी उत्पादन,  मधुमक्खी पालन, रेशम कीट पालन कृषि वानिकी आदि का आवश्यकतानुसार व मंडी अधार पर समावेश हो।
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