Crop Cultivation (फसल की खेती)

गेहूं में जल प्रबंध

Share

25 जनवरी 2021 भोपाल । गेहूं फसल असिंचित अद्र्धसिंचित तथा पूर्ण सिंचित परिस्थितियों में उत्पादित किया जाता है। असिंचित गेहूं की खेती खरीफ के रिक्त खेतों में मानसून वर्षा के संरक्षित जल पर आधारित होती है। अद्र्धसिंचित गेहूं की खेती कुओं, नलकूप, वाटर हारवेस्टिंग/ संग्रहित तालाब व नहरी सैंच्य क्षेत्र के छौर पर कम सिंचाई जल पहुंचाने की परिस्थितियों में तथा पूर्ण सिंचित गेहूं की खेती स्त्रोत में पर्याप्त सिंचाई जल उपलब्धता होने पर की जाती है। सिंचाई जल उपलब्ध होने पर कृषक की प्रथम पसंद गेहूं उगाना ही होता है। क्योंकि यह कम जोखिम वाली फसल है। दलहन-तिलहन की अपेक्षा इसमें कीट-व्याधि वे मौसम परिवर्तन का कम प्रभाव होता है तथा इसमें प्राप्त भूसे का उपयोग जानवरों के काम में भी आ जाता है। गेहूं का उत्पादन जलवायु गेहंू की किस्म, बोने का समय व तरीका, भूमि का प्रकार एवं सिंचाई जल उपलब्धता, प्रबंधन व फसल व्यवस्था पर निर्भर करती है। इसमें सिंचाई जल एक मुख्य घटक है। जनसंख्या वृद्धि व कल कारखानों के कारण जो कि भविष्य में खेती के लिये कम उपलब्ध होगा। अत: गेहूं उत्पादित करने के लिए जल सिंचाई का प्रबंधन इस प्रकार करने की आवश्यकता हो जिसमें कम क्षेत्र से सीमित जल उपलब्धता से अधिकतम प्राप्त हो सके।

गेहूं में सिंचाई जल प्रबंध निम्र बिन्दुओं पर ध्यान में रखकर करें। सिंचाई कब करें- सिंचाई का निर्धारण- सामान्यतया ऊंची किस्मों की जल आवश्यकता 25-30 सेमी तथा बोनी की 40-45 सेमी होती है। जब मिट्टी में समाहित जल में 60 प्रतिशत कमी हो जाये जिससे पौधे की वृद्धि एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे की संभावना हो तो सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है। बोने गेहूं में अन्य आदानों के साथ सिंचाई के उपयुक्त प्रबंधन से प्रति इकाई जल से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। निम्र विधियों द्वारा पानी की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है। पौधे के बाहरी गुणों को देखकर- जल की कमी होने पर पौधों में निम्र परिवर्तन होने लगता है, जैसे-
1. पत्तियां मुरझाने व ऐठने लगती है-
2. तना झुकने लगता है।

भूमि का प्रकार- हल्की मिट्टियों में गेहूं में कम अंतराल पर सिंचाई देना पड़ती है तथा भारी मिट्टियों में गेहूं में कम अंतराल पर सिंचाई देना पड़ती है तथा भारी मिट्टियों में चंूकि जलधारण क्षमता अधिक होती है। अत: सिंचाईयों के अंतराल में बिना कोई उपज हानि के बचाया जा सकता है। इस प्रकार बहुत हल्की मिट्टियों में बोनी जाति के गेहूं में जहां 10-12 सिंचाई एवं भारी काली मिट्टियों में 4-6 सिंचाईयों से ही अधिक उत्पादकता प्राप्त हो जाती है।
भूमि की दशा और गुण देखकर- पौधों की जड़ों के पास की मिट्टी लेकर मु_ी में दबाने व फेंकने पर बिखरती नहीं है तो तत्काल सिंचाई देने की आवश्यकता नहीं है व यदि बिखर जाती है तो यह जल की आवश्यकता की जानकारी देती है नमी मापक उपकरणों जैसे टेंसीयोमीटर, जिप्सम ब्लाक आदि का उपयोग भी सिंचाई सूचक के रुप में किया जा सकता है। भूमि में जब 50-60 प्रतिशत नमी उपलब्धता जहां 60 सेमी गहराई पर रहे जाये तो सिंचाई कर देना चाहिए।

खेत की तैयारी एवं अंकुरण के लिये- यद्यपि गेहूं के अंकुरित होने के लिए बीज को डालने की गहराई पर 22 प्रतिशत नमी पर्याप्त है, परंतु अचछे अंकुरण एवं प्रारंभिक बढ़वार के लिए क्षेत्र क्षमता का 50-70 प्रतिशत नमी युक्त होना आवश्यक है। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल काटने के बाद यदि पर्याप्त नमी न हो तो पलेवा देकर जमीन तैयार की जाये तथा तुरंत बाद बोनी करें। जिससे खेत तैयारी के बाद बची नमी में ही बीज का अंकुरण हो सके। जिन खेतों में खेत तैयार करने हेतु पर्याप्त नमी है वहां इस नमी का उपयोग खेत में खेत तैयार करने में करें तथा बोनी के बाद सिंचाई कर दें। जहां बोनी में देरी होने की संभावना हो वहां भी बोनी के बाद सिंचाई करें। बोनी के बाद सिंचाई करने की परिस्थिति में बीज की उथली बोनी (2-3 सेमी गहराई ) पर करें।

पौधों की बढ़वार एवं अधिकतम उपज हेतु- अधिक उपज प्राप्त करने के लिए क्रांतिक अवस्थाओं पर भूमि मेें ज्यादा नमी आवश्यक है। अन्यथा इन अवस्थाओं पर भूमि में नमी की कमी से उपज पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
क्रांतिक अवस्थाओं पर- ऊंची जातियों में तीन तथा बोनी जातियों में छह अवस्थाएं सिंचाई की दृष्टि से क्रांतिक होती हं। भूमि में नमी ज्ञात की सिंचाई करना- इस विधी में खेत के विभिन्न भागों से 1-30 सेमी की गहराई तक की मिट्टी का नमूना लिया जाता है। तथा उसमें उपलब्ध नमी की मात्रा की गणना की जाती है। मिट्टी का नमूना सुखाकर यह मात्रा निकाली जाती है। आद्र्रता तनाव मापी एवं आद्र्रता मापी का 15-20 सेमी ऊपरी सतह में उपयोग गकर नमी अथवा आर्द्रता तनाव ज्ञात किया जाता है। अन्य तरीकों के आधार पर- यदि उपरोक्त तरीके अपनायें जा सके तो नमूना मिट्टी में फसल की स्थिति का अंदाजा लगाकर सिंचाई देना चाहिए, इसमें बोये जाने वाले खेत के एक या दो जगह एक घन मीटर की मिट्टी निकालकर उसको 50 प्रतिशत बालू+50 प्रतिशत मिट्टी के मिश्रण से पुन: भर दें तथा खेत में फसल बोते समय ही खाद उर्वरकों के साथ सामान्य बुआई करें। बालू की अधिक मात्रा के कारण नमी का ह्रास इन दिनों खेत के शेष भागों की तुलना में अधिक होगा एवं इन स्थानों के पौधे जल्दी मुरझाने लगेंगे। अत: जैसे ही इन स्थानों पर सुबह के समय पौधे मुरझाने लगें तो खेत में सिंचाई देना आवश्यक समझना चाहिए।

प्रति सिंचाई पानी की मात्रा- गेहूं को करीब 40-45 सेमी कुल जल की आवश्यकता होती है। सिंचाई द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी देने से जहां मूल मण्डल से नीचे चले जावेगें। वहीं भविष्य में जल लग्नता एवं ऊसर भूमि की समस्या पैदा होने की संभावना होती है। सिंचाई में बहुत कम मात्रा में जल देने से बार-बार कम अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है, तथा बार-बार सिंचाई करने से वाष्पन तथा इधर-उधर जल बहने से जल की अधिक हानि होती है।हल्की भूमियों में प्रति सिंचाई जल की मात्रा (6 सेमी) लगती है। परंतु कुल सिंचाई संख्या अधिक होती है। इसके विपरीत भारी मिट्टियों में प्रति सिंचाई पानी की मात्रा अधिक (7.8 सेमी) लगती है परंतु सिंचाई संख्या कम लगती है। जोनल कृषि अनुसंधान केन्द्र, पवारखेड़ा, होशंगाबाद में हायब्रिड 65 किस्म में 5, 7.5 एवं 10 सेमी गहराई की सिंचाईयां की गई और यह पाया गया कि 5 सेमी पानी सिंचाई उतनी ही अच्छी उपज देती है जितनी की ज्यादा पानी की मात्रा। परंतु इतनी हल्की सिंचाई केवल समतल खेतों में ही देना संभव है। अत: 7.5 सेमी पानी प्रति सिंचाई देना गहरी काली मिट्टी के लिए उपयुक्त है।

सिंचाई कैसे करें- सिंचाई का मुख्य उद्देश्य कम पानी से कम समय से अधिकाधिक जल का उपयोग करना है। सामान्यत: गेहूं की फसल में सिंचाई मुख्यत: बार्डर, क्यारी एवं $फुहार पद्धति द्वारा की जाती है।
बार्डर पद्धति- इस पद्धति द्वारा पानी लगाने के लिए खेत को लम्बी-लम्बी पटिटयों में बांट दिया जाता है। इन पट्टियों की चौड़ाई 3-4 मीटर रखते हैं तथा दो बार्डरों के बीच 30 सेमी चौड़ी व 20-25 सेमी ऊंची मेढ़ बनाई जाती है। दोनों मेढ़ों के बीच में पानी फैलाकर आसानी से फसल को मिल जाता है। इस विधी में 60-70 प्रतिशत सिंचाई क्षमता मिल जाती है और क्यारी पद्धति की तुलना में 20-30 प्रतिशत पानी की बचत होने के साथ-साथ एवं श्रम की बचत भी होती है।

सावधानी- ध्यान रहे कि इस विधि में पानी का प्रवाह पट्टी की लम्बाई का 70-80 प्रतिशत तक होने के बाद दूसरी पट्टी में पानी लगा देना चाहिए। रेतीली भूमि में पट्टियों की लम्बाई 50 मीटर से अधिक नहीं रखना चाहिए। तथा चौड़ाई भी 1.5 से 2 मीटर के बीच होनी चाहिए।

क्यारी पद्धति- जहां ढाल खेत की दोनों दिशाओं में हो अथवा खेत हल्का सा ऊबढ़-खाबड़ हो वहां क्यारी पद्धति से सिंचाई करना लाभदायक है। इस हेतु 10&7.5 मी क्यारी उत्तम होती है। इस पद्धति में पाली द्वारा पानी दूर-दूर तक ले जाया जाता है, जिससे अधिकांश जल रिसकर व्यर्थ चला जाता है। जहां ट्यूबवेल द्वारा पानी दिया जाता है। वहां यह विधि अधिक अपनाई जाती है। इसमें पानी लगाने की क्षमता मात्र 40-45 प्रतिशत तक ही होती है तथा 10-15 प्रतिशत भूमि नालियों व मेढ़ों में व्यर्थ चली जाती है। साथ ही इसमें समय एवं श्रम भी अधिक लगता है क्योंकि नालियों को बार-बार खोलना एवं बंद करना पड़ता है। फुहार (स्प्रिंकलर) पद्धति- जहां पर ज्यादा हल्की भूमि (बालू) अथवा ऊबड़-खाबड़ हो वहां पर फुहार सिंचाई पद्धति सबसे उपयुक्त होती है। इस विधी में 70-80 प्रतिशत सिंचाई क्षमता मिल जाती है। इस पद्धति में पानी की उचित मात्रा का उपयोग होता है। कम समय व पानी में अधिक क्षेत्र में सिंचाई की जा सकती है। साथ ही उर्वरक एवं दवाईयां भी आसानी से प्रयोग की जा सकती है।

 

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *