दलहन बेचारी बड़ी परोपकारी
वनस्पति जगत के महत्वपूर्ण कुल लेग्यूमिनेसी के अन्तर्गत वर्गीकृत खाद्य लेग्यूम या फलीदार फसलें जिनके सूखे दानों को उपयोग किया जाता है, दलहनी फसलें कहलाती हैं। इनकी फलियों में एक से 12 तक पैदा होने वाले दानों को सब्जी, सूप, आटा या दाल बनाकर उपयोग में लाया जाता है। मनुष्य के भोजन के अतिरिक्त ये फसलें चारा फसलों के रूप में भी प्रयुक्त होती हैं। इन फसलों में उपलब्ध प्रोटीन पोषक तत्व, आवश्यक अमीनो अम्ल, विटामिन्स तथा मिनरल्स के कारण इन्हें प्रोटीन टेबलेट्स, प्रकृति का अनमोल उपहार आदि विश्लेषणों से अलंकृत किया जाता है। प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ.एम.एस.सुब्रमण्यम के अनुसार दलहनी फसलें सभी फसलों में अद्वितीय रत्न हैं।
प्रस्तुत लेख के शीर्षक ”दलहन बेचारी, बड़ी परोपकारीÓÓ में वर्णित चार शब्द इन फसलों की खेती एवं इनमें विद्यमान पौष्टिक गुणों को पूर्ण रूप से व्यक्त करते हैं। ”बेचारीÓÓ इसलिए कि खाद्यान्न फसलों यथा धान, गेहूं की अपेक्षा दलहनी फसलें उपेक्षित रही हैं और अपेक्षाकृत कम उपजाऊ क्षेत्रों में न्यूनतम आदानों के द्वारा उत्पादित की जाती हैं। हरितक्रान्ति में उपेक्षित दलहनी फसलों के उत्पादन एवं प्रति व्यक्ति उपलब्धता में उल्लेखनीय गिरावट देखने को मिलती है। भारतवर्ष में विगत पांच दशकों में धान, गेहूं तथा दलहनों के उत्पादन आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सन साठ के दशक में भारतीय दलहन उत्पादन 11 मिनियन मैट्रिक टन था जोकि वर्ष 2012-14 में बढ़कर 18 मिलियन मैट्रिक टन हो गया अर्थात विगत पचास वर्षो में दलहन उत्पादन में केवल 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि इसी अवधि के दौरान देश में गेहंू का उत्पादन 850 प्रतिशत तक बढ़ गया। वर्तमान में गेहूं उत्पादन दलहन उत्पादन से लगभग 5 गुना अधिक है। हरित क्रान्ति के पूर्व इन दोनों फसलों का उत्पादन लगभग बराबर था। यदि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता के आधार पर देखें तो वर्तमान में गेहूं की उपलब्धता लगभग 180 ग्राम प्रतिदिन है जबकि दलहन उपलब्धता (41 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन) अनुशंसित मात्रा के मुकाबले लगभग 50प्रतिशत कम है। अत: दलहन फसलों को बेचारी कहना युक्ति संगत होगा। परोपकारी इसलिये कि विशाल शाकाहारी जनसंख्या की प्रोटीन पोषण की आवश्यकता पूर्ण करने में दलहनी फसलों का जवाब नहीं। साथ ही भूमि सुधार में सहयोगी ये फसलें इनके उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के लिए परोपकारी तो हैं ही।
भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व अनादिकाल से है। अट्ठारहवीं शताब्दी में नामचीन फारसी कवि सैयद नियमतुल्ला बिन नुरूद्दीन (मृत्यु 1738 ईस्वी) ने अपनी प्रथम भारत यात्रा के वृतान्त में उल्लेखित किया है कि ”ये भारतीय लोग अत्यन्त अद्भुत हैं और आश्चर्यजनक रूप से ये लेाग अन्न को अन्न के साथ मिलाकर खाते हैं जिसे ये दाल-रोटी कहते हैंÓÓ। विश्व में ऐसे कम देश हैं जहां पर अन्न को अन्न के साथ मिलाकर खाया जाता है। हमारे देश में दाल-रोटी, दाल-भात, खिचड़ी, राजमा-चावल, इडली-सांबर, छोला भटूरा आदि में एक भाग दाल का अवश्य होता है। विश्व की सर्वाधिक शाकाहारी जनसंख्या भारत में ही निवास करती है और दलहनी फसलें इस विशाल शाकाहारी जनसंख्या के दैनिक आहार का अविभाज्य अंग है। यहां तक कि मांसाहारी भारतीय भी सप्ताह के कुछ दिन शाकाहारी ही होते हैं। सम्पूर्ण विश्व में दलहन उत्पादन, उपभोग और आयात में भारतवर्ष प्रथम स्थान पर है। हमारे देश में अन्य देशों की अपेक्षा सर्वाधिक प्रकार की दलहनी फसलें लगाई जाती हैं। जिनमें अरहर, मूंग, उड़द (खरीफ), चना, मसूर, मटर (रबी) तथा ग्रीष्मकालीन मूंग प्रमुख हैं।
सम्पूर्ण विश्व में दलहनी फसलों के रकबे एवं उत्पादन में भारतवर्ष का योगदान क्रमश: 34 तथा 25 प्रतिशत है जबकि उत्पादकता लगभग 780 किलेाग्राम प्रति हेक्टेयर ही है जोकि अन्य देशों (फ्रांस, कनाडा, अमेरिका, रूस, चीन आदि) की अपेक्षा काफी कम है। विश्व खाद्य संगठन सांख्यिकी 2013 के अनुसार विश्व में कुल दलहनी फसलों के अन्तर्गत रकबे एवं उत्पादन की दृष्टि से प्रथम 15 देशों की सूची में भारत प्रथम स्थान पर है जबकि फ्रांस का स्थान अन्तिम है परन्तु उत्पादकता में फ्रांस का स्थान प्रथम है जबकि भारत चौदहवें स्थान पर है। हमारे देश में दलहनी फसलों के उत्पादन में अनेक बाधायें हैं, जिनके फलस्वरूप हम दलहन उत्पादन में आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं।
भारतवर्ष के सकल वार्षिक दलहन उत्पादन में 70 प्रतिशत योगदान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश राज्यों का है। इन राज्यों मे विपरीत मौसम या कीट व्याधि का प्रकोप भारतीय दलहन उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डालता है। वर्तमान में विगत लगातार दो वर्षो में अनियमित मानसून से दलहन उत्पादन कम हुआ है विशेषत: महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं उत्तर प्रदेश राज्य प्रभावित रहे। उत्तर प्रदेश का बुन्देल खण्ड क्षेत्र जिसकी दलहन उत्पादन में लगभग 40 प्रतिशत की भागीदारी है, वर्तमान में सूखे की समस्या से जूझ रहा है। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत और पश्चिमी मध्यप्रदेश में रबी दलहनी फसलें पाले से प्रभावित होती हैं।
सीमान्त तथा लघु कृषकों द्वारा अपेक्षाकृत अधिक उत्पादित किये जाने तथा मुख्य व्यवसायिक फसलों की श्रेणी में न आने के कारण दलहनी फसलों पर खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा उन्नत किस्मों का विकास कम ही हो पाया है। अत: उन्नत एवं लागत सम्वेदी उच्च उपज क्षमतायुक्त किस्मों के बीज की उपलब्धता कम है। इसके अतिरिक्त आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत कमजोर दलहन उत्पादक फसल उत्पादन आदानों का आवश्यक तथा संतुलित उपयोग नहीं कर पाते हैं जिससे उत्पादन प्रभावित होता है।
खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा दलहन फसलों के अनुकूल कृषि नीतियों यथा उत्पादन क्रय विक्रय तथा विपणन प्रोत्साहन की कमी से भी दलहन उत्पादन प्रभावित होता है। दलहन अनुसंधान में अपर्याप्त निवेश भी दलहन उत्पादन के अवरोधकों में प्रमुख हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष 2016 के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा दलहन उत्पादन को प्रोत्साहन एवं आयात खर्च को कम करने के लिए कुछ कदम उठाये गये हैं। केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री राधा मोहन सिंह कहते हैं कि इस वर्ष दलहन उत्पादकों को न केेवल उन्नत किस्मों के बीज उपलब्ध कराये जायेंगे अपितु इसकी खेती में मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि की जानकारी भी दी जायेगी। सरकार द्वारा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अन्तर्गत सात फसलों यथा धान, गेहूं, दलहन, जूट, गन्ना, कपास और मोटे अनाज को सम्मिलित किया गया है जबकि वर्ष 2013-14 में केवल तीन फसलें धान, गेहूं, दलहन ही शामिल थी। इस अभियान हेतु आवंटित कुल बजट की आधी राशि केवल दलहनी फसलों के लिए सुरक्षित की गई है इसके चलते दलहन उत्पादन के अपरम्परागत राज्यों जैसे जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा पूर्वोश्रर राज्यों में विशेष ध्यान दिया जा रहा है। सम्पूर्ण देश में 27 राज्यों में 623 जिलों में 474 कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से उक्त अभियान क्रियान्वित किया जा रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों को धान की पैदावार के बाद दलहनी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए पृथक बजट दिया गया है। ग्रीष्मकालीन मूंग के उत्पादन पर भी ध्यान दिया जा रहा है। दालों की उपलब्धता बनाये रखने तथा कीमतों पर नियंत्रण रखने हेतु 1.5 लाख टन का बफर स्टाक बनाने का तथा इसके लिए बाजार मूल्य पर दलहनों की खरीद का निर्णय लिया गया है। दलहनी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की जाकर उसे वास्तविक रूप से क्रियान्वित करने की दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं।
दलहन व्यापार में सुधार के लिए भी आवश्यक कदम सरकार द्वारा उठाये जा रहे हैं। सम्पूर्ण विश्व में लगभग 182 देश दलहन व्यापार में संलग्न हैं जिनमें भारतीय उप महाद्वीप की भागीदारी 30 प्रतिशत से भी अधिक है। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा चीन जैसे देशों में पादप प्रोटीन की ओर बढ़ता आकर्षण तथा मोरक्को और मिश्र जैसे देशों में परम्परागत खाद्य फसलों की ओर वापसी जैसे कारणों से दलहन व्यापार वृद्धि के अच्छे संकेत हैं। केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना के अन्तर्गत इलेक्ट्रानिक बाजारों की व्यवस्था की जा रही है। जिससे देश के 585 नियमित थोक बाजारों को आपस में जोड़ा जा सके। आगामी तीन वर्षो में इस योजना में 200 करोड़ रूपये खर्च करने का लक्ष्य है। वर्तमान में आठ राज्यों की 214 मण्डियों का चयन किया गया है जिसमें मध्यप्रदेश की 50 मण्डियां सम्मिलित की गई है। मध्यप्रदेश में अपै्रल 2016 तक चयनित मण्डियों में ई-ट्रेडिंग पोर्टल की स्थापना हेतु 15 करोड़ रूपयों की राशि उपलब्ध कराई गई है। सरकार के इन नीतिगत फैसलों के परिणामस्वरूप देश में वर्ष 2015-16 में विगत वर्ष की तुलना में दलहन के रकबे में वृद्धि हुई है। कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अनुमान के अनुसार चालू वर्ष में दलहनी फसलों की बुवाई एक करोड़ 24 लाख हेक्टेयर में की गई है जोकि विगत वर्ष एक करोड़ 22 लाख हेक्टेयर से अधिक है। आशा है कि नीति निर्धारकों, अनुसंधानकत्र्ताओं, प्रसार कार्यकताओं एवं दलहन उत्पादकों के संयुक्त प्रयास अन्तर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष 2016 की सार्थकता सुनिश्चित करेंगे।