फसल की खेती (Crop Cultivation)

ग्रीष्म कालीन ग्वार की उन्नत खेती

  • लाखन सिंह मोहनिया (पी.एच.डी. स्कॉलर सस्य विज्ञान)
  • डॉ. जन्मेजय शर्मा (वैज्ञानिक सस्य विज्ञान)
  • डॉ. अमिता शर्मा (वैज्ञानिक कृषि वानिकी)
    राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय, ग्वालियर

 

5 अप्रैल 2023, ग्रीष्म कालीन ग्वार की उन्नत खेती – ग्वार एक फलीदार (लेग्युमिनस) फसल है जिसके उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान अग्रणी राज्य है। फलीदार दलहनी फसल होने से मोठ नत्रजन के स्थिरीकरण द्वारा मृदा की उर्वराशक्ति को बढ़ाता है। ग्वार का शाब्दिक अर्थ गौ आहार है, अर्थात् प्राचीन काल में इसकी उपयोगिता केवल पशुओं के लिए पोष्टिक चारे एवं दाने के लिए थी। परन्तु बदलती परिस्थितियों के साथ इसका उपयोग हरी/सूखी सब्जी एवं हरी खाद के रूप में किया जाने लगा तथा इसके अतिरिक्त ग्वार से निकलने वाले गोंद का उपयोग उद्योगों में लिया जाता है। जमीन मे ग्वार की जड़ें गहरी जाने के कारण यह सूखा सहिष्णु पौधा कहलाता है, तथा कम सिंचाई में होने के कारण बारानी क्षेत्रों मे इससे अन्य फसलों की अपेक्षा ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है।

जलवायु

ग्वार एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है। इसको गर्म मौसम की आवश्यकता होती है। बुवाई के समय 30 से 35 डिग्री सेन्टीग्रेड तापक्रम अच्छे अंकुरण के लिये और 32 से 38 डिग्री सेन्टीग्रेड तापक्रम पर वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है। किन्तु फूल वाली अवस्था में अधिक तापक्रम के कारण फूल गिर जाते है। यह 45 से 46 डिग्री सेन्टीग्रेड तापक्रम को सहन कर सकती है।

भूमि का चुनाव

इसकी खेती मध्यम से हल्की भूमि जिसका पीएच मान 7.0 से 8.5 तक हो सर्वोत्तम रहती है। खेत में पानी का ठहराव फसल को अधिक हानि पहुंचाता है। भारी दोमट भूमियां इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त है। अधिक नमी वाले क्षेत्रों में ग्वार की वृद्धि रूक जाती है।

भूमि की तैयारी

रबी फसल काटने के पश्चात एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से या डिस्क हैरो से करें और उसके बाद में 1 से 2 बार देशी हल या कल्टीवेटर से कॉस जुताई कर खेत को खरपतवार रहित करने के उपरान्त पाटा चलाकर खेत को समतल करें।

उन्नत किस्में

दाने व गोंद हेतु- एच जी- 365, एच जी- 563, आर जी सी- 1066 और आर जी सी- 1003 आदि।

सब्जी हेतु- दुर्गा बहार, पूसा नवबहार और पूसा सदाबहार आदि।

चारा हेतु- एच एफ जी- 119, एच एफ जी- 156 आदि।

बुआई का समय

ग्वार की बुवाई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च तक की जानी चाहिए।

बीज की मात्रा

बीज उत्पादन हेतु- 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।

सब्जी उत्पादन हेतु- 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।

चारा तथा हरी खाद उत्पादन हेतु– 40 से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उचित रहता है।

बीजोपचार

मिट्टी जनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम थीरम व 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम या 3 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम की दर से शोधित करें। फफूंदनाशी दवा से उपचार के बाद बीज को राइजोबियम कल्चर की 600 ग्राम प्रति हेक्टेयर बीज दर के हिसाब से उपचारित करके बोयें। इसके लिये 250 ग्राम गुड़ को 1 लीटर पानी में घोलकर उस घोल में राइजोबियम कल्चर मिलाते हैं तथा इस घोल से बीजो को उपचारित करते हैं।

फसल अंतराल

पंक्ति से पंक्ति- 45 से 50 सेंटीमीटर (सामान्य), 30 सेंटीमीटर (एकल तना किस्म हेतु), पौध से पौध 10 से 15 सेंटीमीटर होना उचित है।

उर्वरक की मात्रा

उर्वरकों का प्रयोग किसानों को मिट्टी परीक्षण के आधार पर करें। यदि मिट्टी परिक्षण नहीं किया है, तो ग्वार की विभिन्न फसल उपयोग हेतु प्रति हेक्टेयर इस प्रकार करें, जैसे-

दाने हेतु- नाइट्रोन 20 से 25 किलोग्राम, फास्फोरस 40 से 45 किलोग्राम,  पोटाश 20 से 25 किलोग्राम, गंधक 20 से 25 किलोग्राम, जिंक 20 किलोग्राम दें।

सब्जी हेतु- नाइट्रोन 25 से 30 किलोग्राम, फास्फोरस 45 से 50 किलोग्राम,  पोटाश 20 से 25 किलोग्राम, गंधक 20 से 25 किलोग्राम, जिंक 20 किलोग्राम दें।

चारा हेतु– नाइट्रोन 25 से 30 किलोग्राम, फास्फोरस 45 से 50 किलोग्राम,  पोटाश 20 से 25 किलोग्राम दें।

नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश उर्वरकों की पूरी मात्रा बुबाई के समय 5 से 10 सेंटीमीटर गहरी कुडों में आधार खाद के रूप में दें।

सिंचाई और जल निकास

फसल में फूल आने तथा फलियां बनने की अवस्था में सिंचाई करने से उत्पादन में वृद्धि की जा सकती हैं। ग्वार फसल, खेत में भरे पानी को सहन नहीं कर पाती है।

खरपतवार नियंत्रण

ग्वार में प्रथम निराई-गुड़ाई 20 से 25 दिन पर व द्वितीय निराई-गुड़ाई बुवाई के लगभग 40 से 45 दिन बाद करें। यदि रसायनिक दवाओं का उपयोग करना हो तो ग्वार फसल में अंकुरण पूर्व पेण्डीमिथालीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व और अंकुरण के पश्चात 20 से 25 दिन में इमेजाथायपर 40 ग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व का 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करने पर सफलतापूर्वक खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता हैं। व्हील हो व हैन्ड हो से निराई-गुड़ाई करने पर लागत खर्च में कमी की जा सकती हैं। छिडक़ाव के लिए फ्लैट फेन नोजल पम्प का उपयोग करें।

कटाई और मड़ाई

दाने हेतु- जब ग्वार के पौधों की पत्तियां सूख कर गिरने लगे और 50 प्रतिशत फलियां एकदम सूखकर भूरी हो जाये तब कटाई करें। कटाई के बाद फसल को धूप में सुखाकर श्रमिकों या थ्रेशर मशीन द्वारा उसकी थ्रेशिंग (मड़ाई) करें। दानों को अच्छी तरह धूप में सुखा कर उचित भण्डारण करें।

सब्जी हेतु- सब्जी के लिए उगाई गई फसल से समय-समय पर लम्बी, मुलायम और अधपकी फलियाँ तोड़ते रहें।

चारा हेतु- चारे के लिए उगायी गई फसल को फूल आने की अवस्था पर काट लें। इस अवस्था से देरी होने पर फसल के तनों में लिग्निन का उत्पादन होने लगता है, जिससे हरे चारे की पाचकता एवं पौष्टिकता घट जाती है।

ग्वार की खेती से पैदावार

उपरोक्त उन्नत विधि से ग्वार की खेती करने पर 10 से 17 क्विंटल पैदावार प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। चारे के लिए फसल के फूल आने पर या फलियाँ बनने की प्रारम्भिक अवस्था में (बुवाई के 50 से 85 दिन बाद) काटें। ग्वार की फसल से 250 से 300 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।

उपयोगिता
  • हरी फलियों का सब्जी के रूप में उपयोग।
  • पशुओं के लिए हरा पौष्टिक चारा उपलब्ध।
  • हरी खाद के रूप में 40 से 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन प्राप्त होना।
  • भूमि में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर करती हैं।
  • भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है।
  • गोंद प्राप्त होता है।
अधिक उत्पादन लेने हेतु आवश्यक बिंदु
  • ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई तीन वर्ष में एक बार अवश्य करें।
  • बुवाई पूर्व बीजोपचार अवश्य करें।
  • पोषक तत्वों की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही दें।
  • पौध संरक्षण के लिये एकीकृत पौध संरक्षण के उपायों को अपनायें।
  • खरपतवार नियंत्रण अवश्य करें।
राज्यवार प्रमुख किस्में

राजस्थान- आरजीसी- 1033, 1066, 1055, 1038, 1003, 1002, 986, आर जी एम-112 और आर जी सी- 197 प्रमुख है।

हरियाणा- एचजी- 75, 182, 258, 365, 563, 870, 884, 867, एच जी- 2-204 प्रमुख है।

पंजाब– एजी- 112 और जल्दी पकने वाली हरियाणा राज्य की किस्में भी शामिल है।

उत्तर प्रदेश– एचजी- 563 और एचजी- 365 प्रमुख है।

मध्यप्रदेश- एचजी- 563 और एचजी- 365 प्रमुख है।

गुजरात- जीसी- 1 और  जीसी- 23 प्रमुख है।

महाराष्ट्र- एचजी- 563, एचजी- 365 और आरजीसी- 9366 प्रमुख है।

आंध्र प्रदेश– आरजीएम- 112, आरजीसी- 936, एचजी- 563, 365 प्रमुख किस्में है।

कीट नियंत्रण

रस चूसक कीट- जैसिड, एफिड, सफेद मक्खी इत्यादि फसल का रस चूसकर पौधों को कमजोर करते हैं तथा बीमारियों का संचार भी करते हैं। इनके नियंत्रण के लिये डायमिथोएट 30 ई सी, 1.7 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या इमिडाक्लोरोप्रिड, 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें और दूसरा छिडक़ाव 10 से 12 दिन बाद करें।

दीमक– यह भूमिगत कीट है, जो पौधे की जड़ों को काटकर नुकसान पहुँचाता है। जिससे प्रति हेक्टेयर पौध संख्या में कमी आ जाती है।

नियंत्रण 
  • अच्छी प्रकार पकी हुई गोबर की खाद का ही उपयोग करें।
  • बीज को बुवाई पूर्व क्लोरोपायरीफॉस कीटनाशी से 2 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें।
  • अंतिम जुताई के समय क्लोरोपायरीफॉस चूर्ण 1.5 प्रतिशत, 20 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में मिलायें।
रोग नियन्त्रण

बैक्टीरियल ब्लाइट– खरीफ के मौसम में बैक्टीरियल ब्लाइट सर्वाधिक नुकसान पहुंचाने वाली बीमारी है।

नियंत्रण 
  • रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग करें।
  • बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रभावी नियंत्रण के लिए 56 डिग्री सेंटीग्रेट पर गरम पानी में 10 मिनट तक बीजोपचार करें या बीज को स्ट्रेप्टोसाइक्लिीन के 200 पीपीएम, 0.2 ग्राम प्रति लीटर घोल में 3 घंटे भिगाकर रखें।
  • खड़ी फसल में कॉपर आक्सीक्लोराइड का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करें।
  • एन्ट्रेकनोज और एल्टरनेरिया लीफ स्पॉट- इन बीमारियों के नियंत्रण हेतु मेन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करें, दोबारा यदि आवश्यकता हो तो 15 दिन के अंतराल पर पुन: छिडक़ाव करें।

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