वर्षा ऋतु में पशुओं को गलघोंटू से बचाएं
समय एवं प्रभावित क्षेत्र- यह रोग वर्षा ऋतु में अचानक उत्पन्न होता है और कभी-कभी पौष और माघ की वर्षा अथवा बूंदा-बांदी के बाद भी उत्पन्न हो जाता है, वैसे यह रोग कभी भी फैल सकता है किन्तु वर्षा ऋतु में इसका संक्रमण कुछ अधिक ही होता है। यह रोग उन स्थानों में अधिक होता है जहां निचले स्थान में जल भरा रहता है। यह रोग जुगाली करने वाले पशु विशेषकर भैंस पर हमला करता है। कभी-कभी यह इतना भयंकर होता है कि 80-90 प्रतिशत रोगग्रसित पशु मौत के घाट उतर जाते हैं।
रोग का कारण:- यह रोग एक जीवाणु पाश्चुरैला बोवीसेप्टिका द्वारा फैलता है। इसका संक्रमण मुंंह और गले के भीतर चारा-दाना के द्वारा जाता है और शरीर के अन्दर रक्त प्रणाली में पहुॅंच कर जीवाणु अपना विकास करता है तथा रोग को फैलाता है।
रोग फैलने का ढंग
आहार द्वारा:- यह रोग पशुओं में उनके आहार द्वारा फैल सकता है। जब कोई रोगग्रस्त पशु चारागाह में चरने जाता है तो वहां की घास को दूषित कर देता है और जब स्वस्थ पशु उस दूषित घास को चरता है तो वह भी संक्रमित हो जाता है। पशु का जूठा चारा खाने से भी संक्रमण हो जाता है।
श्वांस नलिका द्वारा:- रोगग्रसित पशु के दूषित वायु से भी जीवाणु स्वस्थ पशु के श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
परजीवी द्वारा:- यह रोग स्वस्थ पशुओं में मक्खियों, मच्छरों तथा चीचडिय़ों द्वारा भी फैलता है।
रोग की अवधि ‘- रोग के लक्षण प्राय: 1 से 3 दिन के भीतर प्रकट हो जाते हैं। पशु के गले पर जब सूजन हो जाती है तो लक्षण प्रकट होने में अधिक समय लगता है। कभी-कभी यह अवधि 2-5 दिन भी हो सकती है।
रोग के लक्षण:- रोगग्रस्त पशु में इस रोग की तीन अवस्थायें होती हैं-
तीव्र रक्त पूतित अवस्था:- प्राय: पशु चारागाह से चरकर आता है और कान नीचे की ओर लटकाकर बगैर जुगाली किये एक स्थान पर सुस्त खड़ा हो जाता है। पशु का तापक्रम एकाएक बढ़ कर 104-108 डिग्री फा. तक पहुंच जाता है।
त्वचा अथवा शोथ रूप:- रोग की इस अवस्था में जीभ और गले की सूजन अधिक बढ़ जाने पर रोगी को सांस लेने में कठिनाई होती है और वह घुर्र-घुर्र की आवाज करने लगता है, जीभ काफी बाहर निकल आती है। घुर्र-घुर्र की आवाज काफी दूर तक सुनी जा सकती है।
अन्त में पशु बेचैन होकर गर्दन मरोड़कर जमीन पर गिर पड़ता है। फलस्वरूप 24-36 घण्टे में मृत्यु हो जाती है।
फुफुसीय या अंश अवस्था:- सांस में घड़घड़ाहट अथवा खडख़ड़ाहट की आवाज दूर से सुनायी देती है। सूजन सख्त होती है और छूने प गरम तथा दबाने पर दुखती नहीं है और मुॅंह खुला रहता है।
सावधानी:
- यदि रोगी पशु की जीभ काफी बाहर निकल आये, तो उसकी चिकित्सा न करें।
- पेट फूलने की स्थिति में बायीं कोख पर तारपीन, हींग गर्म पानी के साथ मिलाकर हाथ से खूब मालिस करें। मालिस मुठ्ठी बांधकर आगे से पीछे को।
- रोग ठीक होने पर पशु को एकाएक चारा/ घास आदि खाने को न दें, उसे कम से कम एक सप्ताह तक दूध दलिया पर ही रखना चाहिये।
अति घातक स्थिति में: पशु के श्वांस लेने में अधिक कठिनाई होने पर ट्रेकियोटॉमी इसकी एकमात्र चिकित्सा है।
रोकथाम:- रोग से बचाव हेतु – टीकाकरण
एच. एस. एण्टी सीरम – गाय/भैंस में 10-20 मिली. एवं भेड़ों में 5 मिली. सबकुटैनियस विधि से देना चाहिए।
एच. एस. वोथ या एलम प्रेसिपिटेटेड वैक्सीन – गाय/भैंस में 5-10 मिली. एवं भेड़ों में 3-5 मिली. सबकुटैनियस विधि से देना चाहिए।
एच.एस. असयल एडजुवेन्ट वैक्सीन – गाय/भैंस में 3 मिली. एवं भेड़ों में 1 मिली. मांसपेशीगत विधि से देना चाहिए।
रोग के लक्षण एक नजर में
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चिकित्सा
अनुभूत चिकित्सा
विशेष: अधिक सूजन की स्थिति में उपरोक्त चिकित्सा के साथ-साथ इन्जेक्शन इस्जीपाइरीन 10-20 मिली. मांस में 2-3 दिन तक लगायें। |
आवश्यक सुझाव एवं निर्देश
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