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जेटली को क्या अधिकार है किसानों की कर्जमाफी रोकने का : केलकर

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प्रश्न : भाजपा का कहना है कि किसान आन्दोलन के पीछे विपक्षी पार्टियों का हाथ है, आपका क्या कहना है।
उत्तर-देश आज एक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है। यह ज्वालामुखी किसानों के खेतों में धधक रहा है। यह किसी भी दिन फट सकता है। देश में अलग-अलग स्थानों पर विरोध प्रदर्शन की घटनाएं हुई है। कोई भी यह नहीं कह सकता कि यह ज्वालामुखी किस दिन फटेगा। उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। दक्षिण भारत में नारियल उत्पादक किसान परेशान और नाराज है। राजस्थान के तिलहन उत्पादक किसान नाखुश हैं। गुजरात के मूंगफली उत्पादक किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इन सभी की नाराजगी जायज है। विपक्षी दलों का रोल इनके बाद आता है।
यद्यपि केन्द्र व राज्य सरकारें, किसानों को फसल उत्पादन में पानी व बिजली की मदद करती है, लेकिन मुद्दा उत्पाद के भण्डारण और विक्रय का है। उदाहरण के लिए सरकार किसानों को दलहन उत्पादन के लिए प्रोत्साहन देती है। म.प्र. में किसानों को चना उत्पादन के लिए विशेष सुविधाएं दी जाती है। उत्पादन भी अच्छा हुआ, लेकिन इस वर्ष चने की कीमतें गिर गई।
केन्द्र की ओर से किसानों को उनके उत्पादन पर कमाई मिल सके इसके लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं बनाई गई है। सीएसीपी (कमिशन फॉर एग्रीकल्चर कास्ट्स एण्ड प्राईज) में पिछले तीन वर्षों से किसानों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है। हमारी मांग है कि इसमें कम से कम एक किसान प्रतिनिधि भाजपा के किसान मोर्चे से या कोई कृषि विशेषज्ञ हो। सरकार कृषि की लगातार उपेक्षा कर रही है। योजनाएं ढेर सारी हंै, लेकिन कृषि के अधोसंरचना विकास के लिए कोई योजना नहीं है।
प्रश्न – आपकी क्या मांगें हंै?
उत्तर – संसद का कम से कम तीन दिन का विशेष सत्र बुलाया जाए जो पूर्णत: किसानों और कृषि के लिए हो। संसद कृषि और किसानों के संर्वांगीण विकास के लिए कम से कम पांच वर्षों के लिए एक रोडमैप बनाए। हम इस सम्बन्ध में लोकसभा स्पीकर से भी मिल चुके हैं। केन्द्र सरकार को इसकी पहल करना चाहिए। देश में किसानों की समस्याएं विकराल रूपधारण कर रही है, लेकिन केन्द्र सरकार किसान प्रतिनिधियों से कोई चर्चा नहीं कर रही है।
किसान यह भी चाहते हैं कि उनके उत्पादों पर गारंटी दी जाए। हम एमएस स्वामीनाथन रिपोर्ट का समर्थन नहीं करते, लेकिन हम चाहते हैं कि फसलों की लागत पर बीस से तीस प्रतिशत लाभांश मूल्य घोषित किया जाए या फसलों के न्यूनतम विक्रय मूल्य एमएसपी में इतनी वृद्धि की जाए। हमारी मांग है कि सरकार उत्पादकों और विक्रेताओं के बीच मध्यस्थता करें। काटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया का कार्य इसका अच्छा उदाहरण है कि कैसे सरकार किसानों को उनके उत्पादों के विक्रय में प्रभावी सहायता करती है। एफसीआई, एनएएफएडी (नाफेड) और अन्य भण्डारण एजेंसियां किसानों की सहायता में पिछले तीन वर्षों से असफल सिद्ध हुई है। इन एजेंसियों को न तो राज्य से और ना ही केन्द्र से कोई वित्तीय मदद मिल रही है।
भारतीय किसान संघ की यह भी मांग है कि जो व्यापारी किसानों से उनके उत्पाद एमएसपी से कम कीमत पर खरीद रहे हैं, उन्हें कानून बनाकर सजा दी जाए। साथ ही अनाजों और अन्य कृषि उत्पादों की इम्पोर्ट ड्यूटी बढाई जाए। इसके लिए एक व्यापक नीति होना चाहिए। इसके लिए कृषि विभाग, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग और वाणिज्य विभाग में उच्चस्तरीय समन्वय होना चाहिए।
प्रश्न – कर्जमाफी की घोषणा को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर – हम किसानों की कर्जमाफी के पक्ष में नहीं है, लेकिन केन्द्र का रवैया गुस्सा दिलाता है। केन्द्र सरकार विगत वर्षों में देश के शीर्ष उद्योगपतियों को 15 लाख करोड़ की मदद दे चुकी है। उद्योगों के एनपीए (नान परफॉर्मिंग असेट्स) को पाटने के लिए एक से दो लाख करोड़ रु. हर बार दिए जाते हैं, तो फिर किसानों के लिए राशि क्यों नहीं दी जाती।
इस पर भी वित्त मंत्री अरुण जेटली राज्य सरकारों से कहते हैं कि कर्जमाफी राज्य सरकारें स्वयं के बलबूते पर करें। अरुण जेटली कौन होते है किसानों की कर्जमाफी रोकने वाले, उनके कहने का आधार क्या है। आपके पास उद्योगों को देने के लिए ढेर सारा धन है। क्या उद्योग भी राज्य का विषय नहीं है। क्या उद्योग केन्द्र सरकार के विशेष स्नेहभाजन पुत्र है? ये वित्तमंत्री के बयान की ही प्रतिक्रिया है कि देश भर के किसान विरोध की मुद्रा में आ गए हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान ने किसानों को एमएसपी पर बोनस दिया तो केन्द्र सरकार ने हस्तक्षेप कर इस पर रोक लगवा दी। ये बोनस किसानों के पक्ष में राज्य सरकार का निवेश था। जब बोनस बंद किया गया तो हमने एमएसपी बढ़ाने की मांग की। इसमें वृद्धि तो हुई लेकिन नाममात्र की। इन्ही सब मुद्दों का अंत किसानों के विरोध प्रदर्शन के रुप में सामने आया।
मुद्दा यह है कि देश के नीति निर्धारकों का कृषि पर फोकस ही नहीं है। समस्या तब शुरु होती है, जब हम समाज का औद्योगिकरण करना शुरू कर देते हैं। राजनेताओं को प्रगति और विकास के बीच फर्क ही समझ में नहीं आता। विकास समग्र प्रगति पर आधारित होता है। ये कैसा विकास है जहां आधी आबादी को प्रगति ही नहीं करने दिया जाए। प्रगति, कृषि के विकास और कृषि अधोसंरचना के विकास पर आधारित होना चाहिए, तभी देश का विकास हो सकेगा।

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