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पवित्र नदियों में स्नान का आयुर्वेद

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गंगा, क्षिप्रा, सिंधु हो या ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, यमुना भारतीयों में स्नान करना संस्कारगत है। ये संस्कार युगों से चले आ रहे हैं। अनेकों राजनीतिक सत्ताएं आईं लेकिन भारतीयों को पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करने की परंपरा को खंडित न कर सकीं। अंग्रेजों ने इसे अंधविश्वास कहा और इसकी आलोचनाएं कीं लेकिन भारतीयों के हृदय में सदियों से आ रही परंपरा को तोड़ा नहीं जा सका।
उपनिषदों में प्रत्येक वस्तुओं के सूक्ष्म रूपों का विश्लेषण है। इस संबंध में छांदोग्य उपनिषद की एक घटना है- श्वेतु केतु को उसके पिता आारूणिक उपदेश देते हुए कहते हैं कि खाए हुए अन्न का अत्यंत स्थूल भाग मल हो जाता है, मध्य भाग मांस और अत्यंत सूक्ष्म भाग मन का निर्माण करता है। इसी प्रकार जो जल ग्रहण किया जाता है उसका स्थूल भाग मूत्र बनता है, मध्य भाग व सूक्ष्म भाग से प्राण।
यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जल के सूक्ष्म भाग वाष्प द्वारा बड़ी-बड़ी मशीनरियां तक चलाई जाती हैं। इसी प्रकार हमारे शरीर के जलीय भाग या अंश का सूक्ष्मतम रूप प्राण है और जल को प्राणमय बताया गया है। अर्थात् जल से प्राणमय ऊर्जा का निर्माण होता है।
आयुर्वेदीय ग्रंथों में जल का शोधपूर्ण वर्णन ‘वीरवर्ग’ में है। आयुर्वेद के महान वैज्ञानिक आचार्य आत्रेय के शिष्य हारित ने अपनी ‘हारित संहिता’ में देश की संपूर्ण नदियों के जल पर शोध के क्रम में हिमालय पर्वत से उत्पन्न नदियों के जल को इस प्रकार वर्णित किया कि हिमालय से निकली नदियां पवित्र हैं, देव ऋषियों से सेवित हैं, भारी पत्थर और बालुका से युक्त बहने वाली हैं। उनका जल निर्मल, वात, कफ नाशक है, श्रम निवारक पित्त नाशक तथा त्रिदोष को शांत करता है।
इस प्रकार हिमालय से निकलने वाली सभी नदियां गुणों में समान हैं। 900 नदियां छोटी-बड़ी हिमालयी जड़ी-बूटियों से ओत-प्रोत होने के कारण गंगा बनी है। इसी प्रकार आत्रेय ने चर्मण्यवती, वेत्र वति, पासवती, क्षिप्रा, महानदी, शैवालिनी व सिंधु इन नदियों का जल, वात, पित्त, कफ नाशक, श्रम हारक, ग्लानि निवारक, वीर्यवद्र्धक बताया है। नर्मदा का जल अत्यंत पवित्र कहा गया है। यह जल घन, शीतल, पित्त नाशक, कफ कारक, वात विकार निवारक, हृदय के लिए हितकारी होता है।
इन पवित्र नदियों के जल में स्नान व आचमन करने का मात्र यही उद्देश्य है कि पवित्र व गुणकारी जल प्राणों को शुद्ध करें और उसके दोषों का निवारण करें, इससे हमारे प्राण (शरीर में स्थित पांचों प्राण) बलशाली हो जाते हैं। जल का सूक्ष्म रूप प्राण होने के कारण नदियों के जल में जो गुण है, वह हमारे प्राणों में आ जाते हैं और हमारे प्राणों की शुद्धि करते हैं। यही कारण है कि देश के महान ऋषियों ने इन पवित्र नदियों के किनारे, उद्गम स्थल और पवित्र क्षेत्रों में, आश्रमों की स्थापना कर आध्यात्मिक पवित्र विचारों को फैलाया है। दिव्य भारतीय ऋषियों के ये संकल्प व कार्य इतने पवित्र हुए कि पूरी दुनिया में ये स्थान तीर्थ रूप में प्रसिद्ध हो गए और इन पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करने का महत्व जन-जन ने स्वीकार किया।
आयुर्वेद में सामान्य स्नान करने के विषय में लिखा है, ”स्नान करने से शरीर में पवित्रता उत्पन्न होती है, आयु की वृद्धि होती है, बल बढ़ता है, केश और तेज की वृद्धि होती है, रति का श्रम नाश होता है, शक्ति उत्पन्न होती है, फिर नदियां तो परम पवित्र होती हैं। जो व्यक्ति इन नदियों में स्नान से वंचित रहते हैं, उन्हें आरोग्य के लिए विविध स्नानों से जोड़ा गया है। इसी प्रकार स्नान की कई प्रकार की प्रयोग विधि जैसे अगर मुलेठी, आंवलों को मल कर स्नान करने से कफ और तिमिर का नाश होता है। काले तिलों को मलकर स्नान करने से नेत्रों की दृष्टि बढ़ती है और वायु नाश होता है। इसीलिए मानवमात्र को अपने प्राणों को शक्तिशाली बनाने के लिए पर्वों पर तीर्थ हमारे देश की पवित्र जड़ी-बूटियों से युक्त नदियों के किनारों पर कुंभ और सिंहस्थ आयोजन व कल्पवास का विधान है। उज्जैन की क्षिप्रा नदी के जल में ज्वर का नाश करने के गुण हैं। उसी प्रकार नर्मदा नदी का जल निर्मल, शीतल, हल्का, लेखन, पित्त व कफ को शांत करने वाला और सर्वप्रकार के दोषों का नाश करने वाला है।
आज नदियों को प्रदूषित कर उसके गुणकारी जल को अशुद्ध किया जा रहा है जिसके कारण इनका जल भी बीमारियां फैला रहा है। देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि लोकहित में इन नदियों को गंदा न करे। इससे भी अधिक पवित्र नदियां जिन शहरों, गांवों, कस्बों से होकर बहती हैं उन लोगों का दायित्व है कि उनमें मैला बहा कर उन्हें गंदा न करें। आज विभिन्न नदियों के जो रूप नागरिकों और प्रशासन से बना दिए हैं, वे खेद जनक हैं। आने वाले दिनों में यदि नदियों के पानी को शुद्ध करने का प्रयास नहीं किया गया तो नए-नए रोगों की उत्पत्ति से प्राण संकट में पडऩे लगेंगे।

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