खेती में जैविक उपाय कर गुणवत्तायुक्त फसल पैदा करें
लेखक: डॉ. रागनी भार्गव (सहायक प्रोफेसर), ओमपाल सिंह (डीन) कृषि विश्वविद्यालय, एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह, ragni.for19882gmail.com
23 सितम्बर 2024, भोपाल: खेती में जैविक उपाय कर गुणवत्तायुक्त फसल पैदा करें – भारत में हरित क्रांति का मुख्य उद्देश्य देश को खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर बनाना था, लेकिन इस बात की आशंका किसी को नहीं थी कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल न सिर्फ खेतों को बंजर बना देगा, बल्कि पर्यावरण को नुकसान पहँुचाते हुये किसानों की लागत से कमर तोड़ देगा। समस्या सिर्फ रासायनिक खादों के प्रयोग की नहीं है, देश के ज्यादातर किसान परम्परागत कृषि से दूर होते जा रहे हंै I
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्य ही कहा है कि ‘धरती में इतनी क्षमता है कि वह सब की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने में वह सक्षम नहीं हैं।Ó लेकिन हमने अपने लालच के लिए अर्थात् बिना किसी जैविक उपायों से भूमि को रासायनिक खादों व कीटनाशकों का अत्यधिक व अनावश्यक मात्रा में प्रयोग कर बंजर बना दिया है। जिसके कारण आज फसल उत्पादन एक जगह स्थिर हो गया है। एक बहुत पुरानी कहावत है- ‘समस्या बहुत बढ़ जाए तो मूल की ओर लौटो।Ó अब वक्त मूल की ओर लौटने का है अर्थात् परम्परागत कृषि की ओर, जब रासायनिक खाद व कीटनाशक नहीं थे। तब गोबर किसान के लिए खाद का काम करता था और नीम, हल्दी और गोमूत्र कीटनाशक के रूप में काम में लेते थे। परन्तु समय के साथ-साथ किसान रासायनिक खादों व किटनाशकों का अनावश्यक मात्रा में प्रयोग करने लगा है और भूमि के अत्यधिक दोहन से भूमि बंजर होने लगी है। अब समय आ गया है कि किसान फिर से आधुनिक तकनीकों व परम्परागत कृषि के तरीकों से खेती करें। सरकार ने भी किसानों के हित में परंपरागत कृषि की ओर लौटने के लिए ‘परम्परागत कृषि विकास योजनाÓ का शुभारम्भ कर दिया है इससे किसानों को उचित लाभ प्राप्त होगा।
अत: किसान जैविक खादों का खेतों में उपयोग व जैविक उपायों से फसलों में कीटों का नियंत्रण करें जिसका विवरण इस प्रकार है-
जैविक खेती हेतु खादे
गोबर खाद, वर्मीकम्पोस्ट, कम्पोस्ट एवं अखाद्य/खाद्य खलियों की खाद का प्रयोग- बुवाई से पूर्व अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर या 5 टन वर्मीकम्पोस्ट या 5 टन कम्पोस्ट खेत में 3 सप्ताह पूर्व मिलायें व नत्रजन की अच्छी पूर्ति हेतु अखाद्य/खाद्य खलियां जैसे नीम की खली, अरण्डी की खली, मूंगफली की खलियों का खाद के रूप में प्रयोग लाभदायक साबित हो सकता है। और इन सभी खादों में उपयुक्त मात्रा में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश उपलब्ध रहते हैं।
हरी खाद- हरी खाद से नत्रजन की उचित मात्रा में स्थिरीकरण किया जा सकता है जिसके लिए हरी खाद के रूप में सनई, लोबिया, ढ़ैंचा, ग्वार एवं मूंग को खेत में उगा सकते हैं। जिनसे क्रमश: 80, 75, 75, 60 एवं 60 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर स्थिरीकरण किया जा सकता है तथा फूल आने से पहले पलटाई कर देने से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की पूर्ति होती है। जो अगली फसल के लिये लाभदायक होता है। जिससे कम मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग होगा।
जैविक तरीकों से बिना दवा के फसलों में कीट व रोगों का नियंत्रण
फेरोमोन टे्रप- फसल में 8 से 10 फेरोमोन टे्रप एक-डेढ़ फीट ऊपर लगायें। ये टे्रप नर-मादा अथवा दोनों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं।
लाइट ट्रेप/प्रकाश पाश- कीटों को प्रकाश की ओर आकर्षित करने हेतु खेत की मेड़ों पर प्रकाशपाश या बल्ब या पैट्रोमैक्स लैम्प लगाकर जलायें तथा उसके नीचे केरोसीन मिले पानी 5 प्रतिशत की परात रखें, ताकि रोशनी पर आकर्षित कीट मिट्टी के तेल मिले पानी में गिरकर नष्ट हो जायें। यह प्रक्रिया मानसून की वर्षा प्रारम्भ होते ही करें तथा इसे सितम्बर अन्त तक जारी रखें।
टे्रप फसल या रक्षक फसल- कीड़े अण्डे देने व खाने के लिए कुछ पौधे/फसल (हजारा आदि) की तरफ आकर्षित होते हैं, इन्हीं फसल/पौधों को टे्रप फसल कहते हैं। टमाटर की फसल के चारों तरफ हजारा के पौधे लगाने से हरी सुण्डी पहले हजारे के पौधों पर दिखाई देती है। तुरन्त हजारे पर कीटनाशक का छिड़काव कर हरी सुण्डी को खत्म करें। अन्य जैसे-कपास के चारों तरफ भिण्डी की कतारें, बाजरे के चारों तरफ ज्वार की कतारें लगायें।
एन.पी.वी. छिड़क़काव- हरी सुण्डी (लट) के नियंत्रण के लिए एक हेक्टर में 250 एल.ई. एन.पी.वी (न्यूक्लियर पॉली हैड्रोसिस वाइरस) का घोल छिड़कने से लटें 3-4 दिन में पौधों पर उल्टी लटक कर मर जाती हैं। किसान ऐसी लटों को इक_ा करके खुद एन.पी.वी. तैयार कर सकता है।
बी.टी.छिड़काव- तरल बी.टी (बैसीलस थूरिन्जेन्सिस) एक लीटर को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टर छिड़काव करने से फली छेदक लटें 1-3 दिन में मरने लग जाती हैं।
नीम दवा- नीम के सभी भागों में कीटनाशी तत्व पाया जाता है। 5 किलो नीम की निम्बोली को अच्छी तरह सुखाकर बारीक कूट लें और 5 लीटर पानी में इस पाउडर को 12 घण्टे तक भिगो दें। इस घोल को मोटे कपड़े द्वारा छान लें। इस घोल में 100 लीटर पानी प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें। इनका प्रयोग मुख्यत: कपास, तिलहन व टमाटर को हानि पहुंचाने वाले माहू, सफेद मक्खी, फुदका, कटुआ सुण्डी तथा फल छेदक सुण्डी पर प्रभावी होता है।
अरंडी व नीम से दीमक नियंत्रण- बुवाई के एक माह पूर्व अरण्डी की खली 500 किलोग्राम/ हेक्टेयर उपयोग कर या नीम तेल 4 लीटर सिंचाई के पानी के साथ देकर दीमक को नष्ट किया जा सकता हैै।
ट्राईकोग्रामा कीट- यह बहुत छोटा अण्ड परजीवी कीट है जो पतंगों और तितलियों के अण्डों में अपने अण्डे देती है। ट्राईकोग्रामा परजीवी प्रकृति में पाया जाता है। प्रयोगशाला में इसका प्रजनन करवाकर अण्डों को कार्ड पर चिपकाकर ट्राईकोकार्ड तैयार किये जाते हैं। एक कार्ड पर लगभग 20,000 अण्डे होते हैं। इसका प्रयोग विभिन्न फसलों जैसे मक्का, कपास, चना, टमाटर व बैंगन आदि में करते हैं। ट्राईकोग्रामा 10-15 दिन के अंतराल पर 3-4 बार लगाया जाता है। सामान्यतया 5 कार्ड प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करें। कार्ड लगाने के पश्चात खेत में किसी प्रकार के रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग न करें।
ट्राईकोडर्मा- ट्राईकोडर्मा-कल्चर 6 से 10 ग्राम प्रति किलो बीज को उपचारित कर बोने से कवक जनीत रोगों से फसलों को बचाया जा सकता है।
पक्षियों द्वारा कीट नियंत्रण- मित्र पक्षियों को आकर्षित करने के लिए खेत की मेड़ों पर लकड़ी की खप्पचियां लगायें। इस पर बैठकर पक्षी आकर्षित होकर फसलों में लगे कीड़ों एवं लटों को चुन-चुन कर खा जाते हैं। मित्र पक्षी जैसे मैना, किंग-क्रो, बटेर, बगुले आदि।
परभक्षी एवं परजीवी कीटों द्वारा नियंत्रण– किसान लाभदायक मित्र कीट एवं जीवों का संरक्षण कर व इनको प्रोत्साहन देकर तथा इनके लार्वा का खेत में प्रयोग करके हानिकारक कीटों का बिना किसी कीटनाशकों के नियंत्रण किया जा सकता है। जैसे- मेन्टिस, लेडी बर्ड बीटल, कोटेसिया, क्राइसोपरला, ट्राईकोग्रामा कीट, मकडिय़ां, छींगुर, चींटियां, ततैया, रोवर-फ्लाई, रिडूविड, मड-वेस्प, डे्रगन-फ्लाई एवं सिरफिड-फ्लाई आदि।
जैव उर्वरक
राइजोबियम- यह दलहनी फसलों में नत्रजन स्थिरीकरण करने का काम करता है। राइजोबियम जीवाणु 50 से 135 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर स्थिरीकरण कर सकता हैै। इसे बीजोपचार हेतु काम में लिया जाता है।
एजोटोबेक्टर, एजोस्पाईरिलम एवं एसीटोबेक्टर- इनका प्रयोग बीजोपचार, जड़ उपचार, एवं मृदा उपचार करके कर सकते है। यह भी अच्छी मात्रा नत्रजन स्थिरीकरण करने का काम करते हैं।
नील हरित शैवाल- यह एक प्रकार का शैवाल हैै। जो कि 30 से 50 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर स्थिरीकरण कर सकता हैै।
एजोला- एजोला एक फर्न है जिसको धान के खेत में प्रयोग करने 1 से 2 किलोग्राम नत्रजन प्रति दिन प्रति हेक्टेयर स्थिरीकरण कर धान की फसल में नत्रजन की पूर्ति करता हैै।
फास्फोरस विलायक जीवाणु- ये जीवाणु मृदा में उपलब्ध अघुलनशील फास्फेट को घुलनशील फास्फेट में बदलकर फसलों को उपलब्ध कराता है। इससे फसलोत्पादन में 10 से 25 प्रतिशत वृद्धि होती है।
माइकोराइजा- यह फास्फोरस अवशोषित करने वाला जैव उर्वरक है।
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