Editorial (संपादकीय)

किसान का शोषण कब तक

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केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 24 जनवरी 2017 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में किसानों द्वारा लिए गये ऋण पर दो माह नवम्बर-दिसम्बर 2016 पर लगे ब्याज को माफ करने का फैसला लिया है। यह लाभ उन किसानों को मिलेगा जिन्होंने कृषि तथा ग्रामीण विकास, नेशनल बैंक तथा इससे सम्बन्धित ग्रामीण सहकारिता बैंकों से ऋण लिया था। इस कार्य के लिए केन्द्रीय सरकार में 1060.50 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार पड़ेगा। देश में 11.86 करोड़ वास्तविक किसान है, इसके अतिरिक्त 14.43 करोड़ कृषक श्रमिक हैं। यदि केन्द्रीय सरकार द्वारा माफ की गयी राशि को 11.86 किसानों में बांटा जाय तो यह मात्र 89 रु. आती है। इससे किसान का कोई बड़ा लाभ नहीं होने वाला है। यदि किसान को वास्तविक फायदा देना है तो किसानी में लगने वाली वस्तुओं बीज, उर्वरक, कृषि रसायनों, डीजल, कृषि यंत्रों आदि पर करों को कम किया जाये ताकि फसल उत्पादन की लागत को कम किया जा सके। इससे किसान तथा उपभोक्ता दोनों को राहत मिलेगी।
दूसरी ओर किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य मिले इसकी व्यवस्था सरकारों को करनी चाहिए। किसान एक फसल उगाने में 4-5 माह दिन-रात एक कर देता है। यह सोच कर पैसा भी लगाता है कि उसे उसके उत्पाद की वर्तमान कीमतें तो मिल ही जायेंगी, परन्तु फसल आने पर उसे पता पड़ता है कि कीमतें बुआई के समय की कीमतों की आधी या तीन चौथाई ही रह गयी है। जबकि व्यापारी इन उत्पादों को कम कीमतों में खरीद कर 3-4 माह संग्रहित कर 40-60 प्रतिशत लाभ पर बिना मेहनत के बेचती है जिसमें उसका सिर्फ पैसा लगता है। उत्पाद के लाभ का यह कार्य एक व्यवस्थित तरीके से होता है। सरकार भी कीमतों के उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करने में अपने को असहाय अनुभव करती है। जब तक कीमतों को व्यवस्थित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाये जाते तब तक किसान के हितों की रक्षा नहीं की जा सकती है और किसान की दशा में कोई परिवर्तन होने की कोई सम्भावना नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकारों को किसानों के उत्पादों को कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की व्यवस्था करनी चाहिए तथा उपभोक्ताओं के हित में न्यूनतम विक्रय मूल्य भी कृषि उत्पादों के लिए निश्चित करने चाहिए।

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