फसल की खेती (Crop Cultivation)

कृषि जैव विविधता का संरक्षण

ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं के माध्यम से

  • बादल कुमार, स्कालर
  • डांगी पूजा अरुण
    असिस्टेंट प्रोफेसर, कृषि अर्थशास्त्र एवं प्रसार विभाग लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी,
    जालंधर, पंजाब

30 नवम्बर 2022, भोपाल । कृषि जैव विविधता का संरक्षण  – जैव मतलब जीव और उस जीव में पाए जाने वाले विविधता मतलब विभिन्नता है। जीव जंतुओं में कई प्रकार की विभिन्नता एवं उसकी विशेषताएं ही जैव विविधता कहलाती है कृषि जैव विविधता का ही एक उप समूह है। प्रत्येक पारिस्थितिक तंत्र में उपस्थित सभी जीव ऊर्जा के लिए अर्थात् भोजन के लिए एक-दूसरे पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आश्रित रहते हैं। जब सभी जीव एक दूसरे पर आश्रित हैं तो यह बेहद जरूरी हो जाता है कि सभी जीवों का संरक्षण हो, ताकि सभी का जीवन सुचारु रुप से चल सके।

जब संरक्षण की बात करते हंै तो सवाल आता है संरक्षण करें किसका? जवाब कई हंै पर यहां हम सिर्फ कृषि जैव विविधता के बारे में बात करेंगे। इसमें हम फसल की किस्में, पशुधन की नस्लें, मछली की प्रजातियां एवं भोजन के लिए शिकार किए गए जंगली जानवरों के संरक्षण पर चर्चा करेंगे। जब कृषि जैव विविधता के संरक्षण की हम बात करते हैं तो इनका संरक्षण भी वही करेंगे; जो इन से ज्यादा जुड़े हुए लोग और वह लोग हैं हमारे ग्रामीण किसान एवं आदिवासी जिनका मुख्य काम खेती है और वह अपना जीवन कृषि से संबंधित कार्यों में एवं जंगलों में कार्य कर बिताते हैं। बदलते युग के साथ-साथ आजकल ग्रामीण एवं आदिवासी पुरुष भी अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए अपने गांवों को छोडक़र शहर की ओर ज्यादा कमाई के लिए जाने लगे हैं, जिसके कारण खेती का ज्यादातर जिम्मा गांव के ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं ने ले लिया है एवं वे भी कृषि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी आज हमारे ग्रामीण इलाकों की महिलाएं एवं आदिवासियों के बीच शिक्षा का अभाव है जिसके कारण उन्हें कृषि से संबंधित वैज्ञानिक तरीकों के बारे में काफी कम जानकारी है जिनसे कृषि जैव विविधता का संरक्षण हो सकता है एवं उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत हो सकती है। स्थानीय ज्ञान एवं संस्कृति भी कृषि जैव विविधता का एक अंग है जिनसे यह ग्रामीण पूरी तरह वाकिफ हैं।

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कृषि जैव विविधताओं का संरक्षण

ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं की मदद से किस प्रकार कृषि जैव विविधताओं का संरक्षण हो रहा है या उसमें किस प्रकार बढ़ावा दिया जा सकता है। खेती में हो रहे रसायनिक उर्वरक एवं रसायनिक कीटनाशक के तबाड़-तोड़ प्रयोग से कई बुरे असर देखने को मिल रहे हैं जिससे कि मिट्टी की उर्वरा क्षमता कम हो रही है एवं भोजन में जहरीले तत्व बढ़ रहे हैं नए-नए बीमारियों का जन्म हो रहा है। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि जैविक खेती पर जोर दिया जाए जिससे इन सभी दुष्परिणामों से बचा जा सके। जैविक खेती करने से किसानों की लागत लगभग 25 से 30 प्रतिशत कम हो जाती है एवं उसके खेतों की उर्वराशक्ति लंबे दिनों तक बनी रहती है उनके मिट्टी में कार्बनिक अवशेष की मात्रा बढ़ जाती है जिससे किसानों को फसलों की उच्च पैदावार होती है।

आदिवासियों द्वारा कई पेड़-पौधों को उनके देवी देवताओं के निवास स्थान के रूप में देखा जाता है जिनसे वे उनका पूजा-पाठ करते हैं एवं इसी बहाने उस पौधे का संरक्षण भी हो जाता है, इसके अलावा यह लोग कई तरह के फसलों के बीज, कंदमूल, फलों एवं कई प्रकार के पौधों का भी संरक्षण करते हैं ताकि वह उनसे अपनी खाद्य जरूरतों को पूरा कर सकें। यूं कहें तो आदिवासी एवं जैव विविधता एक दूसरे के पूरक हैं। आज भी आदिवासी एवं ग्रामीण लोगों को कई औषधीय पौधों की जानकारी है, जबकि वह अशिक्षित हैं एवं फिर भी वे इसे संरक्षित करते हैं और समय पर वे अपनी बीमारी में उपयोग भी करते हैं। आदिवासी लोग झूम खेती करते हैं जिसमें वह किसी एक जगह पर खेती करते हैं एवं खेती पूरी होने के पश्चात वहां पर मौजूद जंगल के पौधों की टहनियों को जलाकर उनके अवशेष को वहीं छोड़ देते हैं जिससे कुछ दिन में उस मिट्टी में पुन: उर्वराशक्ति आ जाती है जिससे सतत विकास को भी बढ़ावा मिलता है।

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अगर सरकार इन ग्रामीण एवं आदिवासी महिलाओं को एनजीओ, स्वयं सहायता समूह एवं क्षेत्रीय शिक्षकों की मदद से कृषि जैव विविधता की जानकारी एवं उनके फायदे के बारे में उन्हें बताएं या क्षेत्रीय हाट एवं मेलों में कैंप लगाकर उन्हें शिक्षित करें की जैव विविधता से भविष्य में क्या फायदे हो सकते हैं एवं उन्हें आर्थिक रूप से क्या मदद मिल सकती है तो ये लोग और भी अच्छे तरीके से कृषि जैव विविधता का संरक्षण करने में सक्षम हो पाएंगे।

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  • करें प्रण अब कृषि को रक्षित,
    तभी होगा जीवन सुरक्षित।

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