क्या अर्थव्यवस्था का – मेरूदण्ड होगा मजबूत ?
(सुनील गंगराड़े) बीत गया वर्ष 2017। ये साल खेती-किसानी के लिए भारी उथल-पुथल भरा रहा। विदर्भ में किसानों की दुर्भाग्यपूर्ण आत्महत्याएं, मंदसौर में किसानों पर गोली चालन और किसानों की मौत, देश-प्रदेश के विभिन्न कोनों में प्याज लगाने वाला किसान, गन्ना उगाने वाला कृषक, उड़द बोने वाला, टमाटर की फसल लेने वाला, सभी की स्थिति सोचनीय रही। |
भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती को मेरूदण्ड का स्थान प्राप्त है। परन्तु केन्द्र सरकार और सूबे के हाकिम, किसानों की पीठ को सत्ता साकेत पर चढऩे का पायदान ही समझते रहे हैं। वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करने का फार्मूला समझाते- समझाते अपने वोट बैंक को बरगलाए रखने की कोशिश ही है। किसानों की तकलीफों पर लंबी तकरीरे होती हैं पर उनकी समस्याओं का स्थायी हल किसी भी सरकार ने नहीं दिया।
देश में 95 प्रतिशत किसान सीमांत और छोटे किसान हैं, जिनके पास 5 हेक्टेयर या उससे कम जमीन है। देश की खेती योग्य जमीन का लगभग 69 प्रतिशत इन किसानों के पास है।
जिस देश में आधी से भी ज्यादा श्रम शक्ति लगभग 64 प्रतिशत आबादी, अपनी रोजी-रोटी के लिए केवल खेती पर आश्रित हो, उसके लिए नीति नियंताओं, राजनेताओं के पास जबानी जमा खर्च के अतिरिक्त कुछ और ठोस उपाय नहीं है। आग लगने पर कुआं खोदने के प्रचलित मुहावरे पर सरकारें गंभीरता से अमल करती है। आजादी के 70 वर्ष बाद भी यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस क्षेत्र में कोई ठोस बुनियादी ढांचे का विकास नहीं हो पाया। सिंचाई, बिजली, मंडी, भण्डारण सभी क्षेत्रों में सुदृढ़ अधोसंरचना की आवश्यकता है।
आजादी के समय जहाज से मुख तक की स्थिति से उबर कर भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में 5 गुना वृद्धि कर 27 करोड़ टन की ऊंचाई हासिल की है। इस आसमां छूती तरक्की की विडम्बना यह है कि किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिल पा रहा है। सही दाम न मिलने की व्यथा में, प्याज सड़कों पर फेंका गया रोष में आकर टमाटर को मंडी में ही ट्रैक्टर से कुचल दिया, दूध गटर में डाल दिया गया। कौन अपने सृजन से ऐसा व्यवहार करता है। किसानों को मेहनत का मोल न मिलने पर उपजे रोष पर सरकार की परम्परागत निष्क्रियता भी ‘आग में घी’ का काम करती है।
मैथिलीशरण गुप्त ने किसानों की पीड़ा को इन पंक्तियों में रेखांकित किया है-
हो जाए अच्छी भी फसल,
पर लाभ कृषकों को कहां,
खाते खवाई, बीज, ऋण से है रंगे रखे जहां,
आता महाजन के यहां वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में।
सरकार की किसान हितकारी योजनाएं अभी भी अंतिम पंक्ति के अंतिम किसान को छू भी नहीं पाती है। चाहे प्रधानमंत्री की फसल बीमा योजना हो या मुख्यमंत्री की भावांतर भुगतान योजना। बीते वर्ष 2017 की विवेचना कर वर्ष 2018 किसानों के लिए सुखमय बने, हम सबकी यही कोशिश है। उम्मीद करते हैं कि देश-प्रदेश की सरकारें इतिहास से सबक लेकर खेती-किसानी के हित में सुविचारित और ठोस काम करेंगी ताकि ‘अन्नदाता’ सुखी रह सके।