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गांधी समाज का बदलता पर्यावरण

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महात्मा गाँधी के जन्म के 150 वर्ष मनाने के लिये सभी अपनी-अपनी तरह से कोशिश कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि गाँधी-विचार की महत्ता 149 वर्ष में कम हो और 150 में बढ़ जाये! यह 150 केवल एक अंक है। जैसे सफर पर निकले लोगों के लिये मील का पत्थर होता है, कुछ वैसे ही ‘गाँधी 150Ó हमारे लिये है। यहाँ पहुँच कर हम हिसाब लगाते हैं हम कहाँ से निकले थे और कितनी दूर आ गए? कहाँ जा रहे हैं? क्या हमारा रास्ता ठीक है, दिशा ठीक है हमारी? हम जहाँ पहुँचना चाहते हैं, वहाँ तक पहुँचने के लिये क्या करें?
गाँधीजी के लोकशक्ति को गुलामी की राजशक्ति का सामना करने के लिये सक्षम बनाया था। उन्होंने कमजोर लोगों को मजबूत बनने के दो तरीके दिये- सत्य और अहिंसा। देश की राजनीतिक आजादी के समय हमारे सामने एक बड़ी चुनौती थी। हमें सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की ओर बढऩा था। राजनीतिक आजादी तो केवल एक जरिया थी, हमारे समाज में जिम्मेदारी, संयम और स्वाध्याय लाने की। गाँधीजी के अनेक सहयोगियों ने उनके जाने के बाद यह काम बहुत लगन से किया। भूदान और सर्वोदय-आन्दोलन इसी प्रवृत्ति के दो अनूठे उदाहरण हैं। उस समय के नेतृत्व को गाँधीजी ने खुद तैयार किया था। विनोबा, जे.सी. कुमारप्पा और काका कालेलकर आदि जैसे लोगों ने उनके साथ कन्धा-से-कन्धा मिलाकर काम किया था। गाँधी-विचार को उन्होंने किताबों से नहीं समझा था। उनमें वह देसी परम्परा जीवित थी जिसे गाँधीजी ने अपनी जीवन-साधना से जगाया था। उनमें सामाजिक ऊँचाई थी, उदारता थी, प्रवीणता थी।

पर्यावरण तो गांधी-समाज का भी बदलता है । यह समाज निष्प्रभावी हुआ है । जो संस्थाएं सामाजिक काम के लिए बनी थी,उनके भीतर भी सत्ता, साधन और संपत्ति को लेकर खींचतान रहने लगी है । गांधी विचार का काम सिर्फ प्रभाव और प्रेरणा से हो सकता है आज गांधी को केवल प्रतीक बनाकर ही न छोड़ा जाए, बल्कि उन्हे अपने विचार और मूल्यों के केन्द्र में रखें ।

आजादी के 15-20 साल बाद तक लोकशक्ति संजोने का काम गाँधी-विचार के भाव से होता रहा। किन्तु उसके बाद, लोकशक्ति के उभरने की बजाय उसका अभाव बढ़ता गया। इसके साथ-ही-साथ राजशक्ति का प्रभाव हर क्षेत्र में बढ़ता गया। आज हालात बहुत तेजी से बिगड़ रहे हैं। राजशक्ति हर दायरे में अपनी पैठ बढ़ा रही है, लोकशक्ति क्षीण हो रही है। किसानों और बुनकरों की दुर्दशा तो किसी से भी छुपी नहीं है। रोजगार विज्ञान, शोध, उद्यम, तकनीकी…हर विधा में राजशक्ति हावी है। यही नहीं, जहाँ कहीं लोकशक्ति अपने आप को संयोजित करने का प्रयास करती है, वहीं पर राजसत्ता के प्रतिष्ठान उनकी वैधता पर सवाल उठाते हैं। जैसे कि जनता और समाज की वोट डालने के अलावा देश-समाज में कोई भूमिका ही नहीं हो! इस तरह तो कोई भी स्वस्थ समाज खड़ा नहीं रह सकता। इतिहास हमारी गुलामी का कारण भी इसी में बताता है- हमारी लोकशक्ति ने राजशक्ति के सामने घुटने टेक दिये थे।
आज हमारे पास राजनीतिक स्वतंत्रता है, लेकिन हम अपनी बनाई व्यवस्थाओं के ही सामने पराधीन हो रहे हैं। हम ‘विकासÓ की गुलामी में फँस रहे हैं। ऐसा विकास, जो प्राकृतिक साधनों को अन्धाधुन्ध दुहता है और उससे बने साधनों को राजशक्ति को अर्पित कर देता है। इतनी ताकत न तो राजशक्ति खुद से पैदा कर सकती है और न ही इतने साधन पचा सकती है। इसलिये वह निरंकुश पूँजीवाद और बाजार को अपना आधार बना रही है। बाजार और राजसत्ता ने ‘विकासÓ नामक बालक को बन्दी बना लिया है। इससे ठीक विपरीत, गाँधीजी ने सबसे कमजोर लोगों को ताकत दी थी, उनके मन से राजशक्ति का डर निकाला था। उन्होंने प्रमाणित किया था कि उद्यम अनैतिक ही हो यह जरूरी नहीं है, सामाजिक समरसता से लोग धर्म और जाति की संकुचित कोठरियों से बाहर आ सकते हैं। परन्तु यह नया अपहृत विकास तो निर्बल को और पराधीन बनाता है, कमजोर की बलि चढ़ाता है। आज दरिद्रता में फँसते लोगों के लिये विकल्प केवल अपराध और हिंसा ही बच रहा है। सत्य और अहिंसा पर आधारित उदाहरणों का अभाव है।
हमारे देश की एक विशेषता रही है। हमारे यहाँ गरीब और साधारण लोगों का रोजगार प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, पर्यावरण की स्थिति पर टिका है। पर्यावरण की आधुनिक चेतना के पीछे गाँधी-परिवार का एक सर्वोदयी कार्यकर्ता ही था। चंडीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में चिपको आन्दोलन ने सारी दुनिया को दिखाया था कि साधारण लोग अपने वन, अपने पर्यावरण की रक्षा करने में सक्षम हैं। क्योंकि उनका अपने पर्यावरण से जीवन्त सम्बन्ध है। उनका रोजगार जंगल-पानी पर टिका रहता है। राजशक्ति को जंगल में केवल कटाऊ लकड़ी ही दिखती है। चिपको ग्रामीण महिलाओं का आन्दोलन था, पर्यावरण चेतना का हरकारा।
किन्तु हमारे समाज के साधन-सम्पन्न वर्ग का खेतिहर और कामगार समाज से कोई रिश्ता नहीं बचा है। उसे सस्ता भोजन तो चाहिए, लेकिन वह किसान की, मिट्टी की चिन्ता नहीं करना चाहता। अगर इस वर्ग की जरूरत हमारे खेतों से पूरी न हो, तो वह अन्तरराष्ट्रीय बाजार की ताकत से विदेशी खाद्य वस्तुएँ ला सकता है। बाजार पर आधारित सम्बन्ध बाजारू ही होते हैं, उनमें सामाजिक बन्धनों की मिठास नहीं हो सकती। मायूसी में बुनकर आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन हमारा अभिजात्य वर्ग आयातित पोशाक पहन के तृप्त हैं। अपने लोग, अपने देश, अपनी मिट्टी, अपने नदी-तालाब के प्रति उसमें कोई राग नहीं है। केवल असीमित लोलुपता और उपभोग है, जिसे लूटने और अनीति करने में उसे कोई संकोच नहीं होता।
बाजार और राजशक्ति के नशे में रहने वाले इस वर्ग के मापदण्ड पश्चिम के उस समाज से आते हैं, जिसके असीम उपभोग से आज पृथ्वी की जलवायु बदल रही है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु-परिवर्तन से बड़ा संकट इससे बड़ा प्रलय मनुष्य मात्र ने देखा भी नहीं है। आने वाली शताब्दी में यह हमारी दुनिया को ऐसा उलट-पलट करेगा, जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। इसका सबसे बुरा प्रभाव हमारे जैसे गरीब देशों पर पड़ेगा, हालांकि इसकी जिम्मेदारी पड़ती है पश्चिमी देशों पर, उपभोग की तृष्णा पूरा करने वाले उनके औद्योगीकरण पर, जिसके विध्वंसक स्वभाव के बारे में गाँधीजी ने हमें बहुत पहले ही चेता दिया था।
जिस ‘ग्राम स्वराज्यÓ की बात गाँधीजी ने की, उसमें नदी कुएँ और तालाब ही नहीं, मिट्टी, पशु-पक्षी, मवेशी और सभी जीव-जन्तुओं के लिये जगह है। उसमें सम्बन्ध उपयोग और उपभोग भर की नहीं हैं, बल्कि पूरी सृष्टि को अपनेपन और ममत्व से देखने की बात है। वरना पर्यावरण की बात करने वाले गाँधीजी को इतना क्यों मानते?
पर्यावरण तो गाँधी-समाज का भी बदला है। हम निष्प्रभावी हुए हैं, क्योंकि हम आपसी झगड़ों में फँसे हुए हैं। जो संस्थाएँ सामाजिक काम के लिये बनी थीं, उनके भीतर भी सत्ता, साधन और सम्पत्ति को लेकर तनाव रहने लगा है, मन-मुटाव रहने लगे हैं। लोकशक्ति को संजोने के लिये बहुत-सा प्यार चाहिए, बहुत-सा लगाव और सामाजिकता भी। वरना राजशक्ति और पूँजी के सामने सत्य और अहिंसा हार जाएँगे। इसलिये नहीं कि सत्य और अहिंसा में ताकत नहीं है। इसलिये कि सत्य और अहिंसा के लोगों का अपने मूल्यों में विश्वास कमजोर हुआ है।
हमारे द्वेष इतने गहरे भी नहीं हैं। अगर हम सब एक-दूसरे से हारने को तैयार हो जाएँ, तो हम सभी की जीत तय है। हम गाँधी को केवल प्रतीक बना कर न छोड़ दें, उन्हें अपने विचार और मूल्यों के केन्द्र में रखें। (सप्रेस)

  • रामचन्द्र राही
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