कृषि संकट की जड़ें – जावेद अनीस
आज भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं, उनके लिये खेती-किसानी बोझ बन गया है हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है। 2013 में जारी किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाये तो देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 47 हजार रुपए का कर्ज है। इधर मौजूदा केंद्र सरकार की तुगलगी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ के रख दी है यह नोटबंदी ही है जिसकी वजह से किसान अपनी फसलों को कौडिय़ों के दाम बेचने को मजबूर हुए, मंडियों में नगद पैसे की किल्लत हुई और कर्ज व घाटे में डूबे किसानों को नगद में दाम नहीं मिले और मिले भी तो अपने वास्तविक मूल्य से बहुत कम। आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम 40 फीसदी तक कम मिला। जानकार बताते हैं कि खेती- किसानी पर जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जायेगी। मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के आलावा कुछ खास नहीं किया है। आज भारत के किसान अपने अस्तित्व को बनाये और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके दावं पर उनकी जिंदगियां लगी हुई हैं। एक हथियार गोलियां-लाठियां खाकर आन्दोलन करने का है तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को ख़त्म कर लेने का।
दरअसल यह केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे ‘कृषि क्षेत्र का संकट हैÓ, यह एक कृषि प्रधान देश की कृषक प्रधान देश बन जाने की कहानी है। 1950 के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत था, 1991 में जब नयी आर्थिक नीतियां को लागू की गयी थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 34.9 प्रतिशत था जो अब वर्तमान में करीब13 प्रतिशत के आस- पास आ गया है। जबकि देश की करीब आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है। नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सेवा क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा अर्थव्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उस अनुपात में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है। नतीजे के तौर पर आज भी भारत की करीब दो-तिहाई आबादी की निर्भरता कृषि क्षेत्र पर बनी हुई है। इस दौरान परिवार बढऩे की वजह से छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है जिनके लिए खेती करना बहुत मुश्किल एवं नुकसान भरा काम हो गया है और कर्ज लेने की मजबूरी बहुत आम हो गयी है। एनएसएसओ के 70वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल 9.02 करोड़ काश्तकार परिवारों में से 7.81 करोड़ (यानी 86.6 फीसदी) खेती से इतनी कमाई नहीं कर पाते जिससे वे अपने परिवार के खर्चों को पूरा कर सकें। खेती करने की लागत लगातार बढ़ती जा रही है जिससे किसानों के लिए खेती करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। दरअसल खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियां कूट रही हैं,भारत के कृषि क्षेत्र में पूँजी अभी भी सीधे तौर पर दाखिल नहीं हुआ है, अगर इतनी बड़ी संख्या में आबादी लगभग जीरो प्रॉफिट पर इस सेक्टर में खप कर इतने सस्ते में उत्पाद दे रही है तो फौरी तौर पर इसकी जरूरत ही क्या है, इसी के साथ ही किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल-फूल रहे हैं। फर्टिलाइजर बीज, पेस्टीसाइड और दूसरे कृषि कारोबार से जुड़ी कंपनियां सरकारी रियायतों का फायदा भी लेती हैं। यूरोप और अमरीका जैसे पुराने पूंजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं कि इस रास्ते पर चलते हुए अंत में छोटे और मध्यम किसानों को उजडऩा पड़ा है क्योंकि पूँजी का मूलभूत तर्क ही अपना फैलाव करना है जिसके लिए वो नये क्षेत्रों की तलाश में रहता है। भारत का मौजूदा विकास मॉडल इसी रास्ते पर फर्राटे भर रही है जिसकी वजह देश के प्रधानमंत्री और सूबाओ के मुख्यमंत्री दुनिया भर में घूम-घूम कर पूँजी को निवेश के लिये आमंत्रित कर रहे हैं, इसके लिए लुभावने आफर प्रस्तुत दिये जाते है जिसमें सस्ती जमीन और मजदूर शामिल हंै।
भविष्य में अगर विकास का यही रास्ता रहा तो बड़ी पूँजी का रुख गांवों और कृषि की तरफ मुड़ेगा ही और जिसके बाद बड़ी संख्या में लोग कृषि क्षेत्र छोड़ कर दूसर सेक्टर में जाने को मजबूर किये जायेंगें, उनमें से ज्यादातर के पास मजदूर बनने का ही विकल्प बचा होगा। यह सेक्टोरियल ट्रांसफॉर्मेशन बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय साबित होगा। मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ भी चुकी है, इस साल अप्रैल में नीति आयोग ने जो तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया है उसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि में सुधार की रूपरेखा भी प्रस्तुत की गई है। इस एक्शन प्लान में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए जिन नीतियों की वकालत की गई है उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे उपाय शामिल हैं। कुल मिलाकर पूरा जोर कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर है, यह दस्तावेज एक तरह से भारत में ‘कृषि के निजीकरणÓ का रोडमैप है। (सप्रेस)
हमारे राजनीतिक दलों के लिये किसान एक ऐसा चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर इसलिए भी नजऱंदाज़ नहीं कर सकते क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर बन चूका है,विपक्ष में रहते हुए तो सभी पार्टियाँ किसानों के पक्ष में बोलती हैं और उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं जहाँ खेती और किसानों की कोई हैसियत नहीं है. सरकारें आती जाती रहेंगीं लेकिन मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने वजूद की लड़ाई लडऩे के लिए अभिशप्त हैं. सतह पर आन्दोलन भले ही शांत हो गया लगता हो लेकिन किसानों का दर्द, गुस्सा और आक्रोश अभी भी कायम है.
राजनीति दलों के लिए किसान एक ऐसा चुनावी मुद्दे की तरह है जिसे वे चाह कर भी नजरअंदाज नहीं कर सकते क्योंकि यह देश की करीब आधी आबादी की पीड़ा है जो अब नासूर बन चुका है। विपक्ष में रहते हुए सभी पार्टियां किसानों के पक्ष में बोलती हैं और उनकी आवाज को आगे बढ़ाती हैं लेकिन सत्ता में आते ही वे उसी विकास के रास्ते पर चलने को मजबूर होती हैं जहां खेती और किसानों की कोई हैसियत नहीं है। मौजूदा व्यवस्था में किसान अपने बजूद की लड़ाई लडऩे के लिए अभिशप्त है। – का.सं. |