सत्याग्रह के प्रयोग की प्रासंगिकता
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने विश्व भर के देशों में हलचल मचा रखी हैं। विश्व की सबसे प्राचीन पारिवारिक उत्पादन की परम्परा को केन्द्रीय और बड़े पैमाने की उत्पादन की प्रणाली ने हिलाकर रख दिया हैं। इससे उत्पन्न पर्यावरण संकट ने मनुष्य के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया हैं।
हमारे देश में भी उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप आम आदमी के सम्मुख आमदनी, रोजगार और पर्यावरण का संकट खड़ा हो गया हैं। इससे कई राज्यों में असंतोष, आक्रोश और अलगाव के स्वर उठने लगे हैं। इस तरह की सामाजिक असहमतियों को पक्ष और विपक्ष की राजनीति कह देना समस्या का सरलीकरण हैं।
गांधी जी के चम्पारण सत्याग्रह का यह शताब्दी वर्ष हमारे देश के संकट के इस दौर में आशा की एक किरण के रूप में आया हैं। यह समय किसी एक सरकार पर दोषारोपण का नहीं हैं। देश की पिछली सरकारों ने गांधीजी को पूज्यनीय महापुरूष के रूप में स्थापित कर रखा था, परन्तु सरकार की नीतियों में गांधी कहीं नही थे।
आज हमारे सामने अत्यन्त उदारीकृत पूँजीवाद संकुचित आस्थाओं के गठजोड़ के साथ उपस्थित हैं। महात्मा गांधी के विचार बड़े पैमाने पर उत्पादन के विरोध में कार्लमाक्र्स से भी अधिक क्रांतिकारी हैं। इसीलिए गांधीजी के पूज्यनीय महापुरूष के स्वरूप को ही विलोपित करने के प्रयास हो रहे हैं। यह भी एक स्वागत योग्य प्रयास हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि पूजा-भाव ओर निन्दा-भाव मे गांधीजी है ही नहीं ।
हमारे सामने चम्पारण सत्याग्रह के इस शताब्दी वर्ष में एक अवसर आया हैं कि हम हाड़मांस के चलते-फिरते गांधी के विचारों और कार्यों को समझें। अन्तत: जमीन पर चलता हुआ निडर गांधी ही हमारे काम आयेगा। हमें यह समझने में देर हो गई हैं कि गांधी इस देश की विराट परम्परा के गर्भ से पैदा हुए थे और यह विराट परम्परा कभी खत्म होने वाली नहीं हैं।
गांधी जी ने सिर्फ राजनीतिक लड़ाई लड़ी होती तो वे सिर्फ इतिहास की चीज बनकर रह जाते। गांधी ने अपनी लड़ाई को एक सभ्यता के सांचे में ढाला था। यह पूछने पर कि आप किस धर्म के अनुयायी हैं? गांधी ने कहा था- मैं कहा करता था मैं ईश्वर में विश्वास करता हूँ। पहले मैं ईश्वर सत्य हैं ऐसा कहा करता था। अब मैं कहता हूँ सत्य ईश्वर हैं। ऐसे लोग तो हैं जो ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करते हैं किन्तु ऐसा कोई नहीं हैं जो सत्य के अस्तित्व से इंकार करता हो। इस तरह गांधी ईश्वर को एक काल विशेष से निकालकर हर युग के सत्य के रूप में स्थापित कर देते हैं।
आजकल कई लोग गांधी के चरखे का मजाक उड़ाते हैं। वे नहीं जानते कि औद्यौगिक उपनिवेषवाद और गरीबी से लडऩे में स्वदेशी आन्दोलन का कितना भारी दबाव इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था पर पड़ा था। लन्दन की प्रतिष्ठित पत्रिका यूनिटी में 6 नवम्बर 1922 को प्रकाशित एक लेख के अनुसार गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन के कारण हिन्दुस्तान में आंतरिक राजस्व में 7 हजार करोड़ पौंड और इंग्लैंड पहुँचने वाले राजस्व में 2 हजार करोड़ पौंड की गिरावट केवल 1 वर्ष में देखी गई हैं। भारत में माल न बिकने के कारण लंकाशायर और मैनचेस्टर में कपड़ों की मिलें एक के बाद एक बन्द होने लगी हैं। आज के मूल्यों पर 9 हजार करोड़ पौंड की वह हानि कितनी बड़ी होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता हैं।
गांधीजी जब प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने 1931 में इंग्लैंड पहुँचे थे तो वहाँ की अधिकांश कपड़ा मिलें बन्द थीं। इंग्लैंड के मजदूरों ने गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन के विरोध में प्रदर्शन किया था। गांधीजी ने मजदूरों की सभा में बताया कि इंग्लैंड में बेरोजगारों की संख्या 30 लाख हैं जबकि इंग्लैंड की नीतियों के करण भारत में 30 करोड़ लोग बेरोजगार हो गये हैं। गांधीजी ने आगे कहा कि इंग्लैंड के मजदूरों को 70 सिलिंग प्रतिमास की दर से बेरोजगारी भत्ता मिल रहा हैं जबकि भारत के लोगों की कुल औसत आय 7 सिलिंग 6 पैसे प्रतिमाह प्रति व्यक्ति थीं।
इसी सभा में गांधीजी ने अपनी प्रसिद्ध उक्ति कही थी – ईश्वर में भी हिम्मत नहीं है कि वह भूखे के सामने रोटी के अलावा किसी ओर शक्ल में उपस्थित हो सके।
आज उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की चूलें हिलाकर रख दी हैं। इसीलिए गांधीजी के सत्य के प्रयोग का एक और अवसर हमारे सामने हैं। हम चाहें तो गांधी आज भी हमारे साथ चलने को तैयार हैं। हमें यह भी याद रखना होगा कि गांधीमार्ग पर चलने के लिये हमें बहुत कुछ जोडऩा नहीं हैं वरन् अपना बहुत कुछ छोडऩा हैं। अपने आपको हल्का करना है।
- डॉ. कश्मीर उप्पल