विशेष आलेख
विकास के नाम पर विनाश को रोकें
पर्यावरण चिंतन
भारतीय वन सर्वे संस्थान देहरादून की वर्ष 2017 की रिपोर्ट में म.प्र. में तेजी से खत्म होते वन क्षेत्र को खतरे के रूप में अंकित किया है। राज्य के 51 जिलों में से 26 जिलों की स्थिति अति चिंतनीय है। राज्य के सागर जिले में मात्र दो वर्ष की अवधि में 76 फीसदी हरियाली समाप्त हुई है। जबकि 50 फीसदी एवं उससे अधिक हरियाली नष्ट करने वालों में राज्य के दो दर्जन जिले शामिल हैं। यदि राज्य के कुल वन क्षेत्र की बात की जाये तो विगत दो वर्षों में प्रदेश का 60 वर्ग किमी वन क्षेत्र कम हुआ है। नये वृक्ष लगाने के लिये राज्य सरकार प्रतिवर्ष लगभग 60 करोड़ रुपये का बजट में प्रावधान करती आयी है। बावजूद इसके सर्वेक्षण के आंकड़े से राज्य की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगने के साथ सरकारी राशि के दुरुपयोग की संभावना बलवती होती है। |
राज्य में विकास के नाम पर बिछाये जा रहे सड़कों के जाल के लिये पेड़ों को बेरहमी से काटा जा रहा है। जबकि निर्माण पश्चात नवीन वृक्ष लगाने के कोई भी प्रयास नहीं हो रहे हैं। पर्यावरण नीति कहती है कि विकास के नाम पर काटे गये वृक्षों से दुगनी संख्या में नये पौधे रोपने के साथ उनकी परवरिश भी होनी चाहिये। राज्य में निर्मित होने वाली सड़कों की निविदा में इस बात का भी उल्लेख होना चाहिए कि सड़क ठेकेदार निर्माण के साथ न केवल नये वृक्ष रोपेंगे। अपितु अगले पांच साल में वह सड़कों के रखरखाव के साथ लगाये पौधे की देखभाल एवं उन्हें पोषित करने का कार्य भी करेंगे।
शहरों एवं कस्बाई क्षेत्रों में कदम -कदम पर पनप रही अवैध कालोनियां प्राकृतिक हरियाली को कांक्रीट में तब्दील करने का कार्य कर रही है। इनके द्वारा नवीन हरियाली विकसित करने के कोई कार्य होते ही नहीं हैं। पार्कों एवं ग्रीन बेल्ट के नाम पर खाली जगह छोड़ दी जाती है। स्थानीय नगरपालिका, पंचायतें एवं नगर निगम प्रशासन सिर्फ डार्यवर्सन शुल्क वसूलकर बगैर किसी पर्यावरण चिंता के कालोनिया, मल्टी एवं भवन निर्माण की अनुमति दे रहा है। राज्य सरकार भी अवैध कालोनियों पर मामूली सा अर्थदंड लगाकर इन्हें वैधता का प्रमाणपत्र दे रही है। इन कालोनियों के लिए ग्रीन बेल्ट विकसित करने के नियम कागजों में सहेज कर रख दिये गये है। राज्य के अधिकांश हिस्सों में पर्यावरण सुधार एवं वृक्षारोपण के नियमों का पालन ही नहीं हो रहा है।
भारतीय वन सर्वे संस्थान देहरादून की मध्यप्रदेश में जंगल
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वृक्षों की सघनता, पर्यावरण की स्थिरता एवं जलवायु परिवर्तन को रोकने का सबसे अधिक कारगर उपाय है। वृक्षों की अधिकता वातावरण से कार्बन डाइआक्साइड सहित जहरीले कणों को कम करने की प्राकृतिक तकनीक है। लेकिन सरकार सहित प्रदेशवासी भी इस पर्यावरण संरक्षण में जागरूकता नहीं दिखा सके हैं। राज्य की कृषि नीति इस मामले में पूर्णता असफल है। खेतीहर किसान खेतों की मेढ़ों से पेड़ों को हटाकर अपना जोत क्षेत्र बढ़ाने में लगे हैं। लेकिन राज्य का कृषि विभाग खेती को प्राकृतिक प्रकोपों से बचाने एवं भूमिगत जल संरक्षण में वृक्षों की महत्वता को किसानों के लिये नहीं समझा सका है।
सद्गुरू जग्गी वासुदेव की रैली फॉर द रिबर यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि नदियों के संरक्षण एवं बारामासी नदियों को बचाने नदियों के किनारे सरकारी एवं निजी भूमि पर फलदार सघन वृक्ष लगाये जायेंगे। लेकिन ये सार्वजनिक घोषणा भी भुला दी गई है। यह बात सत्य है कि नदी किनारे वृक्ष न सिर्फ मिट्टी का कटाव रोकते हैं, बल्कि नदियों सहित जल स्रोतों में पानी की निरन्तरता को बनाये रखते हैं। अत: घोषणा के क्रियान्वयन में गंभीर प्रयास होना चाहिये। जलाऊ एवं अन्य व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये राज्यभर में जंगलों को बेरहमी से काटा जा रहा है। राजधानी भोपाल से सटे जंगलों को काटकर उसकी लकड़ी का परिवहन रेलगाडिय़ों एवं पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसे साधनों से हो रहा है। जिस पर प्रभावी रोक के लिये आज तक कोई रणनीति नहीं बन सकी है। जंगलों की सघनता कम होने का ही परिणाम है कि जंगली जानवर मानव बस्तियों में भटककर आदमखोर हो रहे हैं। जंगलों से आदिवासियों को बेदखल करने के बाद से ही वन संपदा को नष्ट करने एवं जंगली जानवरों के शिकार की घटनाएं बहुत ही तेजी से बड़ी हैं। आदिवासी समाज जंगली संपदा का उपयोग करता भी था, तो उसे संरक्षित रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा भी करता था। लेकिन आदिवासी समाज की जंगलों से बेदखली ने जंगलों में अपराधी कारोबारियों को अवैध गतिविधियों के लिये आवाजाही की छूट मिल गई है। देश का सर्वाधिक वन क्षेत्र 77 हजार 462 वर्ग किमी म.प्र. की विरासत में प्राप्त है. लेकिन प्रतिवर्ष 30 वर्ग किमी वन क्षेत्र का राज्य में कम होना अति गंभीर चिंता का विषय है। इसलिये प्रदेश में इसके संरक्षण एवं सघनता के लिये कानूनी सख्ती की आवश्यकता हो चुकी है।
(विनोद के. शाह ‘विदिशा’ मो. : 9425640778)
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है)