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म.प्र. सरकार की विकास के नाम पर किसानों की बलि

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  • विनोद के. शाह, विदिशा, मो. 9425640778

एक तरफ देश की मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत किसानों एवं निज भूमि मालिकों को उनकी अधिग्रहण की जाने वाली भूमि का शासकीय मूल्य से कई गुना अधिक मुआवजा देने की बात कर रही है, तो वहीं देश के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश के किसान बेटा मुख्यमंत्री अब प्रदेश में अधिग्रहण होने वाली भूमि का मुआवजा मांगने से भूमि मालिकों को वंचित करने की मंत्रिमंडली सहमति दे चुके हंै। मंत्रिमंडल की बैठक में राज्य सरकार ने टाउन एवं कंट्री प्लानिंग एक्ट में बदलाव की सहमति दी है। बैठक में लिये गये निर्णय से राज्य सरकार निजी भूमि मालिकों को संरक्षित करने वाली धारा 34 को राज्य में पूरी तरह समाप्त करने जा रही हैै। नगर एवं ग्राम निवेश कानून की धारा 1,2,16,23 में बदलाव के लिये मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने बगैर किसी आपत्ति के अपनी स्वीकृृति दे दी है। धारा 34 की समाप्ति के बाद किसी भी भूमि मालिक एवं किसान को ग्रीन बेल्ट या सड़क के लिये चयनित होने वाली भूमि का स्वयं की ओर से मुआवजा मांगने का अधिकार नहीं रहेगा। इस कानून का सर्वाधिक दुष्प्रभाव उन छोटे भू -मालिकों एवं छोटी जोत के किसानों पर होगा, जो भूमि छीनने की स्थिति में सरकार से वैकल्पिक संसाधन या भूमि के बदले भूमि की मांग रखते थे। धारा 34 ऐस भू-मालिकों के अधिकार को संरक्षित करती है जो अधिग्रहण से मिलने वाले मुआवजे से संतुष्ट नहीं है। उक्त धारा के तहत ऐसे व्यति उचित मुआवजे के लिये अपील कर सकते हैं। लेकिन धारा 34 की समाप्ति के बाद भू-मालिकों को अपील का कोई भी अधिकार नहीं रहेगा।
प्रदेश में सड़कों का जाल बिछाने की कवायद में खेतियर भूमि का अधिकाधिक अधिग्रहण किया जा रहा है। जहां उचित मुआवजा न मिलने की स्थिति में किसान सामूहिक रुप में अदालत का दरवाजा खटखटाया करते हैं। लेकिन राज्य सरकार के प्रस्तावित कानून के बाद भू-मालिकों के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं रह जायेगा। प्रदेश में सड़कों के नाम पर पहले से ही किसानों की भूमि का अधिग्रहण हो रहा है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री सड़क एवं अन्य ग्रामीण सड़कों के नाम पर बगैर किसी सूचना के परियोजना में आने वाली किसानों की भूमि के हिस्से का अधिग्रहण होने के बाद राज्य में कोई मुआवजा नहीं दिया जा रहा है। राज्य में ऐसे किसानों की संख्या सैकड़ों में है जो मुआवजे के लिये प्रशासन के चक्कर काट रहे हंै। या जिन्होंने बगैर किसी सूचना के अधिग्रहित की गई उनकी भूमि का मुआवजा मांगने अदालत में के सदा खिलकर रखे हैं।
राज्य में खेत- खेत बिजली पहुंचाने के उद्देश्य से बगैर किसी अध्ययन के निजी ठेकेदारों के माध्यम से बिजली की लाइनें बिछायी जा रही हैं। होना यह चाहिये था कि इन लाइनों के रास्ते में आने वाले खेतों को नुकसान पहुंचायें बिना इन लाइनों को रास्तों के किनारे से या मेढ़ो के किनारे से डाला जाता, लेकिन यहां ठेकेदार अपनी लागत बचाने किसानों के बीच ख्ेातों से लाइनें डाल रहे हंै। जिसका दष्ुपरिणाम यह है कि किसान अपने ही खेतों में खम्भे खड़े होने से हकाई जुताई तक ठीक ढंग से नहीं कर पा रहे। खेतों में तार का जाल बिछा होने के कारण इन खेतों की कटाई हार्वेस्टरों के द्वारा नहीं हो पा रही है। वहीं शार्ट सक्रिट के वजह से लगने वाली फसलों की आग का कोप भी उस बेबस किसान को झेलना पड़ रहा जिसे उसके खेत से निकलने वाली बिजली लाइनों से कोई बास्ता ही नहीं है। प्रतिवर्ष विद्युत लाइनों से होने वाले घर्षण के कारण सैकड़ों हेक्टेयर की फसलें जलकर खाक हो जाया करती हंै। लेकिन कभी ऐसा सुनने में नहीं आया की किसी भी किसान को उसकी आगजानी से हुये नुकसान की भरपाई विद्युत कम्पनी द्वारा की गई हो! राज्य में यह कैसा विकास का पैमाना है। जहां विकास को दिखाने के लिये मासूम किसानों को निशान बनाया जा रहा है। छोटी जोत वाले किसान जिनके परिवार की आजीविका मात्र एक भूमि का टुकड़ा हुआ करता है यदि सरकार इसे विकास के नाम पर मनमाने तरीके से अधिग्रहण काले या विद्युत कम्पनियां इसमें तारों का जाल बिछाकर इसे अनउपयोगी बना दे। इससे फसलों को होने वाले नुकसान का उचित मुआवजा भी यदि भू-मालिक को न मिल सके तो निश्चित ही यह मानवाधिकार का हनन नहीं है।
प्रदेश का विकास हो, यह अच्छा है। लेकिन गरीब एवं बेबस भू-मालिक की जमीन को छीनकर या जोर जर्बदस्ती उसकी रोजी-रोटी को नुकसान पहुंचाकर विकास की हुंकार भर ना गलत है। विकास के नाम पर ली जाने वाली भूमि का उचित मुआवजा मिलना भू-मालिकों का बुनियादी हक है। सरकार का सत्ता में बहुमत के बल पर किसानो एवं प्रदेश की जनता की राय को जाने बगैर कानून बनाने की प्रक्रिया तानाशाही पद्धति को उजागर करने वाली है।
 (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं)

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