म.प्र. में किसान आंदोलन असंतोष का ज्वालामुखी फूटा
आजादी से लेकर आज तक नेताओं ने किसानों के साथ छल ही किया है। भारत की स्वतंत्रता के समय सकल राष्ट्रीय घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान 59 प्रतिशत था जो वर्तमान में घटते-घटते 14.5 प्रतिशत तक आ चुका है, इसका निहितार्थ यह है कि कृषि क्षेत्र की निरंतर दुर्दशा हुई है। ग्रामीणों और किसानों को केवल भ्रमित ही किया गया है। भारत के किसानों की औसत आय सरकारी आंकलन के अनुसार छह हजार रु. है जबकि शासकीय कर्मचारी का न्यूनतम वेतन 18 हजार रु. प्रति माह है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिश लागू होने पर इनमें और अधिक इजाफा होने वाला है।
सरकार लगी रही यशोगान में
वस्तुत: मध्यप्रदेश का किसान मेहनत करने में पीछे नहीं है, अतिवर्षा, अवर्षा, ओला-पाला, असमय वर्षा के बावजूद बढ़े हुए सिंचाई क्षेत्र की मदद से किसानों ने भरपूर उत्पादन किया लेकिन मंडी में उसकी फसल औने-पौने दामों में बिकती रही। नोटबंदी के समय किसानों को मंडी में उसकी फसल के उचित दाम नहीं मिले, भरपूर लागत और परिश्रम के बावजूद खेती घाटे का सौदा बन गई। किसान को दाम न मिलने के कारण कभी टमाटर कभी प्याज तो कभी आलू तो कभी संतरे सड़कों पर फेंकने पड़े। इन सबसे बेपरवाह सरकार केवल अपने यशोगान में जुटी रही।
विगत दिनों ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े राजस्व विभाग के पटवारी, गिरदावार, तहसीलदार हड़ताल पर रहे, ग्रामीण कृषि विस्तार अधिकारी, उद्यानिकी विस्तार अधिकारी, पंचायत सचिव, पंच सरपंच, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, शिक्षक आदि हड़ताल पर रहे। इस परिदृश्य के रहते भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी।
केशलेश ने किया रेस्टलेस
इस वर्ष अनाज मंडी में और शासकीय खरीद व्यवस्था में भारत शासन की ‘केशलेस व्यवस्थाÓ को अमली जामा पहनाने के लिए किसानों को नकद भुगतान करने की बजाए चेक से भुगतान की व्यवस्था लागू की गई। अपना माल बेचने के बाद किसान के पास घर वापिस जाने तक के रूपये नकद नहीं मिले। सहकारी समितियों ने फसल का भुगतान चेक से किया तो सहकारी बैंकों से उसके बदले नकदी मिलने में अति देरी हुई। व्यापारियों को कृषि उपज का भुगतान आरटीजीएस या एनई एफटी के माध्यम से करना था तो उन्होंने भी मंडी कानून को धता बताते हए चेक से भुगतान किया। ग्रामीण बैंक शाखाओं में चेक का भुगतान होने में पंद्रह दिन से महीना भर लग गया, फसल बेचते ही लेनदारों के तगादों से घिरा किसान हैरान परेशान तो था ही उस पर नई बात यह हुई कि पिछले वर्ष तक किसान क्रेडिट कार्ड पर मिलने वाला ऋण खरीफ और रबी दोनों फसलों के लिये एक साथ दिया जाता था, उसे देने से इंकार करके केवल एक ही फसल के लिये यानि स्वीकृत ऋण सीमा का आधा ही दिया गया।
भारत सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य 1625/-प्रति क्विंटल तय किया है उसके बावजूद गल्ला मंडी में गेहूं इससे कम दाम पर 1500-1550 रु. प्रति क्विंटल बिक रहा है, यहां तक कि भारत सरकार के नियंत्रण वाली संस्था नेशनल कमोडिटी स्टाक एक्सचेंज में भी गेहूं के जून, जुलाई के सौदे समर्थन मूल्य से कम पर 1590 रु. प्रति क्विंटल के भाव पर हो रहे हैं, कहीं कोई नीतिगत नियंत्रण की व्यवस्था ही नहीं है। देश में भरपूर उत्पादन के बावजूद अबाध गति से दलहन का आयात, बदस्तूर जारी है। तुअर का समर्थन मूल्य 5050 रु. प्रति क्विंटल है लेकिन बाजार में 3000-3500 रु.के दाम बिक रही है और समुद्र तट पर दलनह से भरे 473 कंटेनर आयात कर देश में विक्रय हेतु लाये जा चुके है। अफ्रीका के किसानों को भारत में दलहन आपूर्ति हेतु कृषि कार्य के लिये भारत सरकार प्रोत्साहित कर रही है और हमारे देश का किसान अपने उत्पादन को लागत मूल्य से भी कम पर बेचने को विवश है।
किसानों को भरमाने के लिये मुख्यमंत्री कहते हैं कि सोसाइटी से खाद बीज लेने पर एक लाख रु. पर 90 हजार रु. ही लौटाने पड़ते हैं वस्तुत: एक लाख रु. का खाद-बीज खरीदने वाले किसान ही कितने हंै और छूट के इस भ्रमजाल में फंसकर किसान को सोसायटी में उपलब्ध ब्रांड का ही उत्पाद विवशता में खरीदना पड़ता है। और वह भी बाजार मूल्य से महंगे दाम पर। जमीनी वास्तविकताओं से अपरिचित केवल आंकड़ों की बाजीगरी में उलझे, ई गवर्नेस के पक्ष समर्थक वातानुकूलित कक्षों में विराजमान अधिकारियों की कार्यप्रणाली से जटिलतायें उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है।
छल-कपट की राजनीति
जिन संगठनों द्वारा मूल रूप से किसान आंदोलन प्रारंभ किया गया था उनको विश्वास में लिए बगैर मुख्यमंत्री ने भाजपा के पिछलग्गू संगठनों से बात कर किसानों की समस्या समाधान की बात कह दी व ऐसे संगठनों ने हड़ताल वापिसी की घोषणा कर दी व संघर्षरत किसानों को अराजक तत्व बताते हुए सख्ती से निपटने की चेतावनी दे डाली। छलकपट की इस राजनीति से गुस्साये किसान जब उग्र हो गये तो मुख्यमंत्री के रूख को भांप कर पुलिस ने बर्बरता पूर्ण तरीके से किसानों को मारना-ठोंकना शुरू कर दिया, पुलिस के गोली चालन से छ: किसान मर गये इससे आंदोलन और अधिक विकट होता चला गया। मुख्यमंत्री ने मृतक किसानों को पहले पांच फिर दस और अंतत: एक करोड़ मुआवजा देने की घोषणा कर धन बल से उनका ईमान खरीदने का प्रयास किया। स्वयं को किसान और किसान पुत्र कहने वाले मुख्यमंत्री में इतना भी नैतिक साहस नहीं बचा कि मृतक परिवारों से मिलकर संवेदना प्रकट करते। निहत्थे किसानों पर गोली चलाना, संचार साधनों इंटरनेट सेवाओंको बंद करना, राजनैतिक दलों के नेताओं को किसानों के बीच जाने से रोकना कौन सी प्रजातांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है?
मुख्यमंत्री कहते हैं किसानों को उनकी उपज बिक्री का आधा नकद भुगतान मिलेगा वहीं व्यापारियों द्वारा विरोध किये जाने पर अपने वादे से पीछे हट गये। वे कहते हैं कि किसानों के लिये फसल बीमा ऐच्छिक होगा जबकि कृषि ऋण लेने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की अनिवार्यता है। मुख्यमंत्री उद्योगपतियों को किसी भी राशि का ऋण देते समय केवल 0.5 प्रतिशत स्टांप ड्यूटी मार्टगेज के लिये लगती है वहीं किसानों द्वारा 10 लाख रु. से अधिक राशि का ऋण लेने पर म.प्र. सरकार एक प्रतिशत यानि उद्योगपतियों से दुगनी स्टांप ड्यूटी वसूलती है।
हमारे देहात में एक जनश्रुति प्रचलित है कि मामा-भांजे को एक नाव की सवारी नहीं करना चाहिये ऐसा करने पर दुर्घटना की संभावना प्रबल होती है और मध्यप्रदेश में विगत 11 वर्षों से अधिक समय से मामा -भांजे एक ही नाव पर सवार हैं, इसके निहितार्थ और फलितार्थ का निर्णय सुधीपाठक सहजता से कर सकते हैं।
प्रदेश में नये कृषि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण बनाने की बजाए केवल राष्ट्रीय कृषि मूल्य आयोग के घोषित दामों से कम दाम पर कृषि उपज बेचे जाने पर रोक लगा दी जाए तो भी किसान तर जाएगा। पूर्व में भी स्वामीनाथन आयोग किसानों को उसकी फसलोत्पादन की लागत का 50 प्रतिशत अधिक दाम देने की अनुशंसा कर चुका है, उसके संदर्भ में तो आंख बंद करली है, मुंह फेर लिया है, नये आयोग के गठन से क्या होगा?
हरि अनंत-हरि कथा अनंता की तर्ज पर मध्यप्रदेश के किसानों की परेशानियों की कथा का कोई ऐसा ओर-छोर नहीं हैं, जो एक छोटे से आलेख में सिमट कर रह जाए। अंत में किसानों की ओर से इतना ही निवेदन करना चाहूँगा।
दुर्बल को न सताईये जाकी मोटी हाय।
बिना स्वांस के चाम सों लोह भस्म हो जाए,