न्यूनतम समर्थन मू्ल्य एक छलावा
किसानों के आन्दोलन के चलते भारत सरकार ने खरीफ फसलों के वर्ष 2017-18 के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा कर दी है। पिछले वर्ष घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों की तुलना में इस वर्ष सबसे अधिक वृद्धि अरहर तथा उड़द के दामों में की गई है जो मात्र 400 रु. प्रति क्विंटल है। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश में अरहर की बोनी वर्ष 2015-16 की तुलना में 75 प्रतिशत अधिक क्षेत्र में की गई थी, परन्तु सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य जो 5050 रु. प्रति क्विंटल था पर क्रय करने के लिए समुचित व्यवस्था नहीं कर पायी। फलस्वरूप किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य नहीं मिल पाया और यह किसानों के लिए घाटे का सौदा रहा। अन्य खरीफ दलहनें उड़द तथा मूंग भी किसान के लिए घाटे का सौदा रही। उपभोक्ता को दालें पिछले सालों की तुलना में लगभग आधे दामों में उपलब्ध तो हो गयी परन्तु किसानों को उसके उगाने में आये खर्च की भरपाई भी नहीं हो पायी।
न्यूनतम समर्थन मूल्य में पिछले वर्ष की तुलना में अन्य फसलों में इस वर्ष भी वृद्धि की गई है इसमें धान में 80 रु., मूंग में 350 रु., बाजरा में 95 रु., मक्का में 60 रु., कपास में 160 रु., पीले सोयाबीन में 275 रु. तथा सूर्यमुखी में 150 रु. प्रति क्विंटल की गयी है, जो पर्याप्त नहीं है। यह वृद्धि तो पिछले एक वर्ष में इन फसलों के उत्पादन में आने वाले पदार्थों उर्वरक खाद, सिंचाई (विद्युत), पौध संरक्षक दवाओं, मजदूरी आदि में हुई वृद्धि में बलि चढ़ जाएगी। इससे किसानों की समस्या में और वृद्धि होने की सम्भावना है। इसको कम करने के लिए राज्य सरकारों को किसानों की फसल का कम से कम न्यूनतम मूल्य मिले इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। इसके लिए प्रयास अभी से करने होंगे। अभी मात्र 6 प्रतिशत किसानों की उपज राज्य सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद पाती है। इसकी क्रमबद्ध नीति बना कर अगले पांच साल में कम से कम 40 प्रतिशत किसानों की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने का लक्ष्य रखें।
भारत सरकार ने स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट सैद्धान्तिक रूप से मान तो ली है, परन्तु उस पर अमल कर फसल उत्पादन लागत 50 प्रतिशत अधिक लगाकर, न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने का कोई इरादा नहीं दिखता। नहीं तो इस वर्ष घोषित खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में इसकी कुछ तो झलक दिखती। यदि किसान को उसकी फसल का उचित मूल्य मिले तो कृषि कर्ज माफी की मांग भी किसानों की ओर से नहीं आयेगी और ऐसी भी स्थिति बन सकती है कि किसान को फसल उत्पादन के लिए कर्ज की ही आवश्यकता न पड़े और वह आत्महत्या के लिए विवश हो। यदि उसे कर्ज देना ही पड़े तो वह खेती की नई से नई तकनीक अपनाने के लिए हो।