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चारे में प्रमुख रोग एवं निदान

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बाजरे की मदुरोमिल आसिता या हरित बाली रोग:
रोगजनक : यह एक मृदोढ़ रोग है। इसका रोगकारक स्क्लेरोस्पोरा ग्रैमिनिकॉला नामक कवक है।
लक्षण:
दोनों सर्वांगी और स्थानीय संक्रमण होते हैं। मिट्टी जनित बीजाणु युवा पौध में सर्वांगी संक्रमण करते है। रोग के विशिष्ट लक्षण पत्तियों पर पीलापन, हरिमाहीनता, और आधार से सिरे तक चौड़ी धारियाँ बनना हैं। संक्रमित हरिमाहीन पत्ती क्षेत्रों की निचली सतह पर प्रचुर मात्रा में एक भूरी-सफेद कोमल कवक वृद्धि विकसित होती है जिससे अलैंगिक बीजाणुजनन होता हैं। इसमें विकसित बीजाणुधानीधर आगे स्थानीय संक्रमण उत्पन्न कर सकते है।
इन्टरनोड्स एवं और टिलर के जरूरत से ज्यादा छोटा रह जाने की वजह से रोगग्रस्त पौधें बौने रह जाते हैं। गंभीर रूप से संक्रमित पौधें आम तौर पर बौने हो जाते हैं और पुष्पगुच्छों का उत्पादन नहीं करते। हरे पुष्प भागों के पूर्णत: या आंशिक रूप से पत्तीदार संरचनाओं में परिवर्तन के परिणामस्वरूप हरित बाली लक्षण बनते हैं।
प्रबन्धन:

  • रोग प्रतिरोधी किस्मों को बोना चाहिये।
  • पीडि़त पौधों का उन्मूलन करके और उन्हें नष्ट कर दे3।
  • फसल चक्र का प्रयोग करें।
  • प्रमाणित और स्वस्थ बीज बोयें।
  • मैटालैक्सिल या कैप्टान (2,0 ग्राम प्रति किग्रा बीज) के साथ बीज उपचार करें और बूट पत्ती चरण में 0.2त्न डाइथेन जेड -78 अथवा 0.2त्न कार्बेन्डाजिम अथवा 0.25त्न रिडोमिल का फसल पर छिड़कें।
भारत विश्व में सबसे अधिक पशु जनसंख्या वाले देशों में से एक है। दुधारू पशुओं के अधिक दूध उत्पादन के लिए हरे चारे वाली फसलों की भूमिका सर्वविदित है। इन फसलों में अनेक प्रकार के रोग आक्रमण करते हैं जो चारे की उपज एवं गुणवत्ता में ह्रास करते हैं एवं हमारे पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक सिद्ध होते हैं। अत: इन रोगों का प्रबंधन अति आवश्यक है। चारे की फसलों में प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन इस प्रकार है:

बाजरे का अर्गट रोग
रोगजनक : यह रोग क्लेवीसेप्स परप्यूरिया नामक कवक से होता है।
लक्षण:
अर्गट का रोगजनक कवक फ्लोरेट्स को संक्रमित करता है और अंडाशय में विकसित हो जाता है। यह रोगजनक शुरू में प्रचुर क्रीमी, गुलाबी या लाल रंग का मीठा चिपचिपा शहद-जैसे तरल पदार्थ (हनीड्यू) का उत्पादन करता है। अक्सर पराग और परागपिटक थैलियां इस तरल पदार्थ पर चिपक जाती हैं। इसके बाद काले रंग का कठोर संरचनाएं, स्केलेरोशिया संक्रमित पुष्पक से विकसित होते हैं, पहले यें गहरे रंग की होती है और बाद में पूरी तरह से काली हो जाती है।
प्रबन्धन:

  • उपलब्ध प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
  • संक्रमित/प्रभावित पुष्पगुच्छों को निकालकर नष्ट कर दें।
  • संक्रमित पुष्पगुच्छों से बीज ना ले। 20 प्रतिशत नमक के घोल (ब्राइन सॉलूशन) में बीज में से स्केलेरोशिया अलग कर दें।
  • खेत की सफाई रखें। गहरी जुताई करें।
  • गैर-अनाज के साथ प्रमुखत: दालों के साथ फसल चक्र अपनाएं।
  • पुष्पन से पूर्व 0.2 प्रतिशत बेनोमाइल अथवा 0.1 प्रतिशत प्रोपिकॉनाजोल (टिल्ट) अथवा टेबूकॉनाजोल (फोलिकर) का छिड़काव करने से रोग प्रसार में कमी आती है।

बाजरे का कंड या कंडवा रोग
रोगजनक: यह एक मृदोढ़ रोग है। यह रोग टोलीपोस्पोरियम पेनीसिलेरी नामक कवक के द्वारा होता है।
लक्षण: रोग के लक्षण बाली या सिट्टों के दानों में कहीं – कहीं बिखरे दिखाई देते हैं, परन्तु अधिकांश दाने रोगी होने से बच जाते हैं। इस रोग में कुछ दाने समूह में अथवा अकेले सोरस में बदल जाते हैं। यह सोरस अंडाकार अथवा नाशपाती के आकार की होती है तथा तुशनिपत्र से बाहर निकली रहती है। सामान्यत: स्वस्थ दानों की अपेक्षा सोरस का व्यास दुगना होता है यह 3-4 मिमी लम्बी तथा सिरे की ओर 2-3 मिमी चौड़ी होती है।
आरंभ में सोरस का रंग चमकीला हरा अथवा कत्थई भूरा होता है परन्तु इसके परिपक्व होने पर यह गहरा काला हो जाता है। सोरस में कंड बीजाणु समूह में भरे होते हैं। सोरस की भित्ति परपोषी ऊत्तकों से बनती है तथा दृढ़ होती है।
प्रबंधन:

  • खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
  • फसल चक्र को अपनाना चाहिये।
  • खेत की सफाई रखें। रोगी सिट्टों को नष्ट कर दें।
  • रोग रहित स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें।
  • रोग की रोकथाम के लिए सिट्टों के बाहर निकलने के समय 0.1: टिल्ट अथवा 0.2: कार्बेन्डाजिम का छिड़काव करना चाहिये। दूसरा छिड़काव इसके 10-15 दिन बाद करें।
ज्वार की मदुरोमिल आसिता
रोगजनक : यह रोग पेरोनोस्केलेरोस्पोरा सोर्घाई नामक कवक से होता है।
लक्षण:

इस रोग में दोनों सर्वांगी और स्थानीय संक्रमण होते हैं। मिट्टी जनित बीजाणु युवा पौध में सर्वांगी संक्रमण करते है। ये सर्वांगी संक्रमित पौधें बाली या सिट्टे का उत्पादन नहीं करते। प्रभावित पत्तियां अक्सर सामान्य से अधिक संकीर्ण, खड़ी एवं कटी हुई हो जाती हैं। पौधे छोटे कद और हरिमाहीन हो जाते है और कोई बीज नहीं बनता है। नये पौधों के सर्वांगी संक्रमण में अक्सर हल्के हरे.पीले रंग की लंबी धारियां बनती है जिनके विपरीत पत्ती की निचली सतह पर कई छोटे बीजाणुओं से मिलकर एक भूरी-सफेद कोमल कवक वृद्धि दिखाई पड़ती है। ये बीजाणु आगे स्थानीय संक्रमण पैदा कर सकते हैं।
प्रबन्धन:

  • उपलब्ध प्रतिरोधी संकर किस्मों का प्रयोग करें।
  • मेटालैक्सिल या कैप्टान (2.0 ग्राम प्रति किग्रा बीज) के साथ बीज उपचार करें।
  • रोग कम करने के लिए गेहूं – सोयाबीन के साथ लंबी अवधि का फसल चक्र अपनाएं।
  • जहां रोग प्राय: आता है वहां मक्का.चारा फसल चक्र से बचें।
  • रोग लक्षणों के दिखाई देने पर 0.2: डाइथेन जेड-78 अथवा 0.2त्न कार्बेन्डाजिम अथवा 0.25त्न रिडोमिल का फसल पर छिड़काव करें।

ज्वार का दाना कंड या कंडवा रोग
रोगजनक: ज्वार का दाना कंड एक बाह्य बीजोढ़ रोग है। यह रोग स्फैसिलिथिका सॉघाई नामक कवक के द्वारा होता है।
रोग लक्षण:
रोग के लक्षण बाली या सिट्टों पर ही दिखाई देते हैं। रोगी सिट्टे के अधिकांश अथवा कुछ दाने बीजाणुपुट अथवा सोरस में बदल जाते है। यह सोरस आकृति में अंडाकार अथवा बेलनाकार मटियाले भूरे रंग की 5-15 मिमी लम्बी और 3-15 मिमी चौड़ी होती है। कभी-कभी सोरस सिरे पर शंक्वाकार हो जाती है और इसके आधार को तुशनिपत्र घेरे रहते हैं। प्रत्येक सोरस में काले से गहरे भूरे कंडबीजाणु समूह में भरे रहते हैं। सोरस की भित्ति परपोषी ऊत्तकों से बनती है तथा दृढ़ होती है।
प्रबंधन :

  • बीज का चयन ऐसे खेत से करें जहां पहले रोग उत्पन्न नही हुआ हो। सदैव रोग रहित स्वस्थ प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें।
  • खेत की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करें।
  • फसल चक्र को अपनायें।
  • खेत की सफाई रखें। रोगी सिट्टों को नष्ट कर दें।
  • रोग की रोकथाम के लिए सिट्टों के बाहर निकलने के समय 0.1: टिल्ट अथवा 0.2% कार्बेन्डाजिम का छिडकाव करें। दूसरा छिड़काव इसके 10-15 दिन बाद करें।
  • अखिलेश कुमार कुलमित्र
  • नेहा साहू
  • सत्येन्द्र कुमार गुप्ता
    email: gupta.ansh1992@gmail.com
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