म.प्र. में – गन्ने की बीमारियां कर रहीं शक्कर के कटोरे में छेद
क्यों निरंकुश हो रही है गन्ने में बीमारियां?
- बीजोपचार न अपनाना।
- अशुद्ध एवं रोगग्रस्त गन्ने के बीज का उपयोग।
- अप्रमाणित गन्ना प्रजातियों का फैलाव। स्वच्छन्द घुसपैठ। संगरोध (क्वेराईनटाईन)।
- गन्ने में बीजोत्पादन कार्यक्रम का अभाव, विद्यालय स्तर पर कोई पहल नहीं।
इसके अलावा एकल फसल पद्यति, असंतुलित तत्व एवं जल प्रबंधन, कीट प्रकोप, जलमग्नता आदि रोग फैलाव की अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर रही हैं।
मध्यप्रदेश में प्रमुख रोग फैलने के कारक हैं –
फफूंद, विषाणु, वायरस, माइक्रोप्ललाज्मा, सूत्रकृमि, सूक्ष्मपोषी तत्व आदि। इनसे कण्डवा, लाल सडऩ, उकटा, ग्रासीशूट परम्परागत रोग तो थे ही पर अब कई नये रोग भी नजर आ रहे हैं जैसे पोक्कावोंग, पाईनएपल, पीली पत्ती, क्लोरोसिस आदि। कृषकों की जानकारी हेतु प्रमुख रोगों की जानकारी लक्षण आदि यहां दिये जा रहे हैं।
लाल सडऩ रोग –
यह कोलोटोट्रईकम फफूंदी द्वारा फैलाये जाने वाला रोग है, जो खेतों में जुलाई, अगस्त माह में देखा जा सकता है। इसे पहचानने हेतु ऊपर से तीसरी व चौथी पत्ती के किनारे का सूखना एवं धीरे-धीरे पूरा ऊपरी भाग ही सूख जाता है। अगर पौधों को लम्बाई में बीच से फाड़ा जाय तो अंदर का भाग लाल रंग एवं बीच-बीच में आड़ी सफेद पट्टियां नजर आती हैं। सूंघने पर शराब जैसी तीखी गंध आती है। प्रकोप बढऩे पर मध्य शिरा पर भी लाल धब्बे नजर आते हैं व खेत सूखने लगते हैं। जल भराव की स्थिति व रोगी खेत का पानी का बहाव इस रोग के प्रकोप को बढ़ाने में सहायक होते हैं। उपज में कमी, शक्कर की मात्रा का कम होना, अधिक मोलेसिस उत्पादन इस रोग से होने वाली प्रमुख हानियां हैं।
उकटा रोग –
यह रोग फ्यूजेरियम या सिफेलोस्पीरियम या एकीमोनियम फफूंद द्वारा फैलता है। उकटा बीज से या संक्रमित मृदा या बोरर आदि कीटों द्वारा फैलाया जाता है। इसके लक्षण पत्तियों का मुरझाना, पीली पडऩा एवं पूरा गला सूखकर खोखला हो जाना। ग्रसित गन्ने को फाड़कर देखने पर अंदर का भाग गहरा भूरा या बैंगनी दिखाई देता है। गठानों के ऊपर भी ईंट के रंग सा प्रतीत होता है। गांठे पिचक जाती है। वर्षाऋतु में पहले गुच्छों में व धीरे-धीरे पूरा खेत सूख जाता है। गन्ना गठानों से नहीं टूटता जबकि लाल सडऩ में टूट जाता है। कटे गन्नों में से सडऩ की बदबू आती है पर लाल सडऩ जैसी शराब जैसी गंध नहीं आती है। यही इसकी पहचान का अंतर है।
कंडवा रोग –
यह स्पोरिसेरियम सिटेमिनी फफूंद द्वारा हवा के माध्यम से फैलने वाला प्रमुख रोग है। इसका प्रकोप सभी अवस्थाओं में देखा जा सकता है। ग्रीष्मऋतु में इसका फैलाव अधिक होता है। रोगी पौधों में ऊपरी पत्तियां छोटी, नुकीली, सामान्य फसल से लंबा व पतला पौधा झंडानुमा अलग से दिखने लगता है। इसके बाद ऊपर से सफेद चमकदार पतली मिट्टी से ढकी चावुकनुमा नजर आने लगती है। यही अवस्था है कि जब आवरण फटने व काला चूर्ण हवा में बिखरने के पूर्व पौधे को मय कल्लों के उखाड़ कर नष्ट किया जाये। वरना हवा के कारण झिल्ली फटने से काला चूर्ण याने रोग के बीजाणु दूर-दूर तक फैलकर अन्य पौधों को भी संक्रमित कर देते हैं। अगले वर्ष इस बीज के प्रयोग से रोगी पौधे ही पनपते हैं। इस रोग के कारण गन्ने में रस की कमी व शक्कर रिकबरी में बहुत कमी आ जाती है। गुणवत्ता खराब होने से इस गन्ने का गुड़ भी अच्छा नहीं बनता।
घास जैसी बढ़वार (ग्रासी शूट)
यह फाईटोप्लाज्मा जनित बीज से फैलने वाला रोग है। गन्ने के पौधे में अधिक कल्ले फूटने से पूरी बढ़वार घास जैसी दिखने लगती है व इन पुंजों में गन्ना नहीं बनता। पत्तियां अक्सर पीली सफेद हो जाती हैं इसलिये इसे अलबिनो का नाम भी दिया गया है। पूर्ण विकसित गन्ने में इस रोग का प्रकोप होने से शीर्ष पत्तियां पीली पडऩे लगती हैं। गांठों पर आंखें अंकुरित होकर पीले रंग की पत्तियां हो जाती हैं। बढऩ रुक जाती है व उपज पर बहुत विपरीत असर पड़ता है। जड़ी फसल में इसका अधिक प्रकोप देखा गया है। इस रोग को फैलाने में कीटों का भी योगदान होता है।
यलो लीफ रोग –
यह रोग विषाणुओं के अलावा फाईटो प्लाज्मा द्वारा फैलता है। मध्यप्रदेश में इसका प्रकोप कुछ वर्षों में ही देखा गया है। इसका पहला असर 6 से 8 माह की फसल पर दिखने लगता है जो अंत तक बना रहता है। पत्तियों की मध्य शिरा से होते हुए पूरी पत्ती पर पीलापन आता है व अंत में पत्तियां सूखने लगती हैं। इसके कारण ऊपरी भाग अगोला भी सूखने लगता है। जड़ी की फसल पर इसका असर अधिक दिखता है। हरियाली नष्ट होने से उपज व शक्कर की मात्रा व गुड़ की मात्रा में काफी कमी आती है। इस रोग को फैलाने में एफिड व अन्य रस चूसने वाले कीटों का अहम योगदान है। संक्रमित बीज का प्रयोग हानिकारक है।
पोक्का बोईंग (टाप राट) रोग –
यह रोग फ्यूजेरियम वर्टिकोलाईडिस फफूंद द्वारा होता है। फसल में वर्षाकाल में इसके लक्षण दिखने लगते हैं। पौधे की ऊपरी पत्तियां मुरझा कर काली पडऩे लगती हैं। पत्तियों का ऊपरी भाग सड़कर गिरने लगता है व बढ़वार प्रभावित होती है। अगोले के पास की पत्तियां छोटी व पोरियां भी छोटी पतली पड़ जाती हैं। पोरियों पर चाकू के कटे जैसे निशान भी दिखते हैं।
रेटून स्टन्टिंग या पेडी का बोनापन-
यह शाकाणु लीफ सोनिया जाईली द्वारा बीज के माध्यम से फैलता है। इसके प्रभावित पौधे बोने रहते हैं जो अक्सर तत्वों की कमी का भ्रम भी पैदा करते हैं। यह जड़ी फसल में अधिक असर करता है वैसे इसके कारण बीजू गन्ना भी प्रभावित होता है। बढ़वार न होने से उपज पर अधिक प्रभाव पड़ता है।
कुछ अन्य शाकाणुजनित रोग –
जैसे लीफ स्काल्ड पत्तियों का लालधारी रोग, गूदे का सडऩ रोग भी कहीं कहीं दिखे हैं पर अभी इनका प्रकोप नगण्य है। लीफ स्काल्ड में पहले अगोले की पत्तियां छोटी होकर झुलसने लगती हैं। धीरे-धीरे आंखें अंकुरित होने लगती हैं। गूदे का सडऩ रोग भी वर्षाकाल में दिखता है। इससे भी अगोला सूखने लगता है। वृद्धि रुक जाती है भीतरी भाग सडऩे लगता है व बदबू आने लगती है। लालधारी रोग में तने के पास धारियां जो धीरे-धीरे लम्बाई में लाल दिखने लगती है। यह अधिकतर नई पत्तियोंं पर दिखती हैं। पत्तियों के निचले भाग पर बेहद शाकाणु रहते हैं जो अन्य स्वस्थ पत्तियों को भी संक्रमित करते हैं।
पत्तियों के कुछ अन्य रोग –
मोजेक रोग, रस्ट, रेडलीफ स्पाट, आईस्पाट जैसे रोगों में पत्तियां लाल या भूरे धब्बों के कारण प्रभावित होती हैं इसी प्रकार बेन्डेड स्कलोरेशिल रोग जिसमें पत्तियों पर आरपार पीले/सफेद वेन्ड दिखाई देते हैं। वर्षाकाल में अधिक दिखते हैं। बीज का चयन करते समय इनका भी ध्यान रखें।
रोग प्रबंधन –
इन समस्त रोगों की रोकथाम हेतु ‘एकीकृत रोग प्रबंधन’ अपनाकर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। इनमें सर्वोपरि है- गर्म नम हवा उपचारण माध्यम से त्रि-स्तरीय बीजोत्पादन कार्यक्रम को हर कारखाना क्षेत्र में अभियान के तौर पर अपनाना।
बीज स्वावलम्बन अपनाएं –
कृषक शुद्ध रोग रहित बीज अपने खेत पर स्वयं तैयार करें। कारखानों में उपलब्ध गर्म नम हवा उपचारण संयंत्र से अनुशंसित प्रजातियों का बीज का उपचार करें। इसमें 2 आंख के टुकड़े लगभग 10 क्विंटल एक बार में उपचारित किये जा सकते हैं। संयंत्र में 54 डिग्री से. ग्रे. तापक्रम पर पूर्ण भाप युक्त वातावरण में चार घंटे उपचारित करने से मुख्य रोगों जैसे लाल सडऩ, उकटा, घास जैसी बढ़वार, कण्डवा एवं अन्य बीज जन्य रोगों का निदान संभव है।
इस प्रकार के शोधन उपरांत एक आंख के बीज को पॉली बेग या पॉली ट्रे में लगाकर बीज की मात्रा में कमी एवं रोग रहित बीज प्राप्त किया जा सकता है। बोने के पहले बीज को कार्बेन्डाजिम एक ग्राम एवं 3 मि.ली. मेलाथियान प्रति लीटर पानी में घोल कर बीज डुबोये। इससे बीज सुरक्षा हो सकेगी।
ऐसा बीज 3-4 साल तक आसानी से प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा अन्य अनुशंसित सावधानियां अपनायें।