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हंसता व्यापारी, लुटता किसान

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भावांतर – सरकारी संरक्षण में लूट की खुली छूट

आम जनता से वसूले गई टैक्स से किसानों की भावांतर के माध्यम से मदद करना न तो अर्थशास्त्रियों को सुहाता है और ना ही आम जनता को और इससे किसान भी संतुष्ट हो ऐसा भी नहीं है केवल मामाजी इसे अपनी अप्रतिम उपलब्धि मानकर स्वयं की पीठ थपथपा रहे हैं। वे 1500 करोड़ रुपये इस योजना के अंतर्गत किसानों को देने का तो यशोगान करते हैं परंतु न्यूनतम समर्थन मूल्य पर यदि इतनी कृषि उपज बिकती तब किसानों तक कितना रूपया पहुंचता इस सच्चाई को बताने से पीठ फेर लेते हैं।
शासन जब किसी भी वस्तु का अधिकतम खुदरा मूल्य तय करता है तो उससे अधिक दाम पर उस वस्तु को बेचना संज्ञेय अपराध माना जाता है। इसी प्रकार विशेषज्ञों की समिति द्वारा देश भर में कृषि उपज के लागत मूल्य के आंकड़े जुटाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है, इस न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा केंद्रीय मंत्रियों की समिति के अनुमोदन के पश्चात केन्द्र सरकार करती है ऐसी स्थिति में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर कृषि उपज बिकने पर शासन इसे संज्ञेय अपराध क्यों नहीं घोषित करता? यदि भावान्तर योजना ही सही है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने की प्रक्रिया, इसके लिये कवायद करते देश भर के विशेषज्ञ और इस प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाने के लिये भारी-भरकम शासकीय खर्चे व श्रम इन सबकी जरूरत ही क्या है? मध्यप्रदेश के मंडी अधिनियम में ही उल्लेख है कि कृषि उपज को समर्थन मूल्य पर विक्रय की व्यवस्था सुनिश्चित करना चाहिए, ऐसी परिस्थिति में मंडी अधिनियम को लागू करना शासन का दायित्व होना चाहिए न कि भावांतर योजना को प्रस्तुत कर किसानों की लूट को प्रश्रय देना चाहिए।
मध्यप्रदेश सरकार भावांतर योजना में किसानों की उपज खरीदने के लिये जिलेवार औसत उपज की मात्रा कम दर्शा रही है वहीं भारत सरकार से कृषि कर्मण पुरस्कार लेने के लिये प्रदेश भर में लगातार बार-बार 20 प्रतिशत से अधिक कृषि उत्पादन होने का दावा केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत कर पुरस्कार पर पुरस्कार हासिल कर रही है, इन दोनों बातों का समग्रता से आकलन करें तो सरकार की मंशा और उसके द्वारा फसल उत्पादन के आंकड़ों में विरोधाभास होने से गंभीर प्रश्नचिन्ह है।

मध्यप्रदेश के किसानों की दुरावस्था किसी से छिपी नहीं है। उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और सिर पर लदे कर्जों का बोझ उतारने के लिये प्रदेश भर के किसान फसल कटते ही उसे लेकर मंडी में विक्रय के लिये एक साथ पहुंच जाते हैं। बाजार में माल की आपूर्ति बढऩे से कृषि जिंसों के भाव घट जाते हैं। इन घटते भावों को थामने के लिये ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करने के लिये सरकारी एजेंसियां सक्रिय हो जाती हैं। परिणामस्वरूप किसान की उपज औने-पौने दामों में व्यापारी नहीं खरीद पाते। मध्यप्रदेश शासन की भावान्तर योजना में बाजार भाव गिरने से थामने के लिए कोई सहारा नहीं मिलता। मंडी में बिकने वाले अनाज के औसत मूल्य से कम बिके मूल्य के आधार पर इसी वर्ष इस अंतर को पाटने के लिये शासन ने भावांतर योजना में पंद्रह सौ करोड़ रु. से अधिक की राशि किसानों को दी, इसी से यह स्पष्ट है कि व्यापारियों द्वारा फसल खरीदी के समय खरीद एजेंसियों के निष्क्रिय रहने पर कितने बड़े पैमाने पर लुटाई की जाती है, और इस लूट को खुली छूट भावांतर योजना के माध्यम से मिल गई है।

कोई भी व्यक्ति यदि कलेक्टर गाइड लाइन में घोषित मूल्य से कम मूल्य पर संपत्ति खरीदता है तो आयकर विभाग क्रय-विक्रय मूल्य के अंतर की गणना कर कम दाम पर संपत्ति खरीदने वाले व्यक्ति की आमदनी मानकर उस पर आयकर आरोपित कर देती है इसी प्रकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर कृषि उपज खरीदने वाले व्यापारियों की अतिरिक्त आमदनी मानकर मंडी बोर्ड आमदनी की गणना क्यों नहीं करता? और भाव फर्क का अंतर किसानों को क्यों नहीं दिलाता।
आयात अबाध
न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने के बाद यह शासन का भी दायित्व होता है कि घोषित मूल्य से कम पर कृषि उपज न बिके। लेकिन इस तथ्य की भी अनदेखी की जाती है। देश में किसानों को उनकी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल रहे फिर भी कृषि जिंसों का आयात अबाध गति से चलता रहता है। गिरते बाजार भाव को दृष्टिगत रख केंद्र सरकार कृषि जिंस के आयात पर क्यों अविलम्ब रोक नहीं लगाती? क्यों आयात शुल्क में वृद्धि नहीं करती। बड़े-बड़े आयातकों को फायदा पहुंचाने के फेर में क्यों देश के करोड़ों किसानों के साथ अन्याय करती है।
मध्यप्रदेश के किसान तो इस लोक-लुभावन जेब कटी की योजना से भ्रमित हो ही रहे हैं, योजना के निहितार्थ समझे बगैर केवल आकर्षक प्रचार से भ्रमित होकर देश के अन्य भाजपा शासित राज्य और केन्द्र सरकार भी इसे अपनाने के लिए उत्सुक हो रही है। यदि भावांतर जैसी किसानों के घाटे की व्यापारियों के फायदे की योजना लागू करनी है तो कृषि उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने, उसे दिलाने और चुनावी घोषणा पत्र में समर्थन मूल्य से डेढ़ गुना दाम दिलाने के वादों से भोले-भाले गरीब किसानों को गुमराह नहीं करना चाहिए।
एक कहावत है- जहां-जहां पैर पड़े संतन के वहीं-वहीं बंटाढार, इसी तर्ज पर पिछले वर्ष मध्यप्रदेश शासन ने किसानों से 8 रु. किलो प्याज खरीद कर दो रु. किलों के दाम पर बेची उसमें भी लगभग 800-900 करोड़ रु. की चपत लगी। परिवहन, भंडारण, विक्रय हर स्तर पर हाथ जला चुकी सरकार इस वर्ष प्याज खरीदी की योजना को शामिल कर रही है। इसके लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य आठ रु. तय किया है। अब क्या सरकार स्पष्ट करेगी कि यह न्यूनतम समर्थन किस आधार पर तय किया गया है? इस वर्ष अवर्षा के कारण नदीं तालाबों में कम पानी है, प्याज की पैदावार भी कम होनी है। बाजार में थोक में प्याज 30 रु. किलो बिक रही है तब 8 रु. का क्रय मूल्य घोषित करना किसानों के साथ छलावा है। जिन किसानों के पास पानी का भरपूर साधन है वे ही प्याज-सब्जियां उगाते हैं। सिंचित खेती करने वाले किसानों के पास वैकल्पिक फसल उगाने के बहुतेरे उपाय हैं, उनकी कमाई भी सूखी खेती करने वाले किसानों की अपेक्षा अधिक होती है, सिंचित खेती करने वाले किसान ही उर्वरक, बिजली की राज सहायता का अधिकतम फायदा उठाते हैं। वस्तुत: सरकार को उन किसानों की सुध लेना चाहिए जिनके पास सिंचाई के साधन सुलभ नहीं है व असिंचित खेती के कारण जिनकी उपज व कमाई भी सीमित है। मध्यप्रदेश में असिंचित खेती में उगाये जाने वाले शरबती गेहूं की खरीद और आकर्षक भाव दिलाने के लिए मध्यप्रदेश शासन ने क्या प्रयास किए हैं ? चाहे शरबती गेहूं हो या मेक्सीकन गेहूं सभी को शासन एक ही दाम पर खरीद रहा है, इस अंधेर नगरी में गधे-घोड़े एक ही दाम पर बिक रहे हैं -यही सच है!

  • भावान्तर सही है तो समर्थन मूल्य का क्या औचित्य
  • मंडी अधिनियमों का पालन नहीं
  • आंकड़ों की बाजीगरी
  • जिंसों के आयात पर रोक लगाएं
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उपज का विक्रय वर्ष भर हो
  • श्रीकांत काबरा
    मो. : 9406523699
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