पपीता लगाएं आमदनी बढ़ाएं
पपीता में लिंग अभिव्यक्ति –
प्राथमिक रूप से पपीता में तीन प्रकार के पौधे होते हैं, नर, मादा और उभयलिंगी जो कि कई प्रकार के लिंगों की अभिव्यक्ति करते हैं। पपीता के लिये अभिव्यक्ति का अध्ययन वैज्ञानिकों ने किया है और फलों के स्वरूप के अनुसार अलग-अलग कई वर्गो में विभाजित किया है-
उनर फूल वाले पौधे – नर पुष्पीय पौधों में फूल डंठलों में लगते है। वे चमेली या रजनीगंधा के फूलों से मिलते हैं तथा मादा फूल से बहुत पतले होते हैं। ये फल देने में असमर्थ होते हैं।
मादा फूल वाले पौधे – इनमें फूल पत्तियों के कक्ष में छोटे डंठलों पर पैदा होते है। फूलोंका आकार काफी बड़ा चोंगा के समान हेाता है निचले सिरे पर घुण्डीनुमा होता है। ये फूल अकेले या तीन-तीन गुच्छों मे पैदा होते है, मादा पपीता सबसे अधिक स्थाई होता है तथा इनमें लिंग परिवर्तन नही होता है ।
उभयलिंगी फूल वाले पौधे – इनमें नर तथा मादा दोनों अंग उपस्थित होते हैं। इन फूलों में लम्बे फल पैदा होते है, जो स्वाद में अधिक मीठे होते हैं। इन पौधों पर फूलों की जाति अस्थायी होती है और तापमान के उतार-चढ़ाव के अनुसार इनमें लिंग परिवर्तन होता रहता है।
पौध प्रवर्धन –
व्यावसायिक रूप से पपीते का प्रवर्धन बीज के द्वारा ही की जाती है, यद्यपि पोध कलम, ऊतक वर्धन (टीश्यू कल्चर) तरीकों से सफलतापूर्वक प्रवर्धित किये जा सकते हैं।
बीज बोना एवं पौधों की संख्या –
पपीते की पौध तैयार करने के विभिन्न तरीके हैं जैसे रोपणी में, गमलों में या पॉलीथिन की थैलियो में बोया जाता है। पौध को स्थायी स्थान पर लगाने के 1 से 1 1/2 माह पूर्व बीजों को रोपणी में बोया जाता है। रोपणी को अच्छी तरह तैयार करके 3&1 वर्गमीटर आकार की क्यारियां जमीन से 15 से.मी. की ऊॅंचाई पर लाइन से लाइन 15 से.मी. तथा बीज से बीज 5 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिये। बोने के बाद घास से ढंक देना चाहिये और पानी न बरसने की स्थिति मे आवश्यकतानुसार सिंचाई करना चाहिये। अनुसंधान से पाया गया है कि यदि पपीते के बीज को 100 पी.पी.एम इन्डोल ब्यूटायरिक एसिड के घोल से उपचारित करके बोया जाय तो अंकुरण अधिक और जल्दी होता है। पपीता के पौधे वर्ष में तीन बार लगाये जा सकते हैं-
जुलाई – अगस्त, सितम्बर – अक्टूबर , फरवरी – मार्च ।
पौधों को खेत में लगाने के लिये 45×45 x45 घन से.मी. के गड्ढे लगाने के दस-पंद्रह दिन पूर्व बना लेना चाहिये। गड्ढे के बीच की दूरी 2 ग 2 मीटर रखी जाती है। इन गड्ढे से निकाली गई मिट्टी में 20 किलो अच्छी सड़ी गोबर खाद, 500 ग्राम सुपर फास्फेट, 250 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 25 ग्राम एलड्रेक्स चूर्ण 5 प्रतिशत प्रति गड्ढा मिला दें, पौध जब 15 से.मी. की हो जाये तब उन्हें गड्ढों में लगा देना चाहिये। एक हेक्टेयर के लिये 500 ग्राम बीज अथवा 2500 पौधों की आवश्यकता पड़ती है। जब पौधों में फूल आ जाते हैं तब उन्हे पहचानकर प्रति गड्ढें में एक ही पौध रखना चाहिये, बाकी पौधे निकाल देना चाहिये। 10 मादा पौधों के बीच में एक नर पौधा रखना आवश्यक होता है। मादा पौधे में एक स्वस्थ पौधे को छोड़कर बाकी निकाल देना चाहिये।
उन्नत जातियां –
बड़वानी लाल एवं पीला, वाशिंगटन, हनीड्यू, पूसा मैंजेस्टी, कुर्ग हनीड्यू, कोयम्बटूर-1, कोयम्बटूर-2, कोयम्बटूर-7, पूसा नन्हा, पूसा जाइन्ट, ताइवान आदि।
अंतरवर्तीय फसलें –
पपीता के बगीचे में फलन शुरू होने के पूर्व कम समय में तैयार होने वाली सब्जियां ली जा सकती हैं जैसे – पत्ता गोभी, फूल गोभी, गांठ गोभी, टमाटर, मिर्च एवं प्याज ।
सिंचाई –
वर्षा ऋतु में जब वर्षा ठीक प्रकार से नहीं हो तो एक दो सिंचाई कर देना चाहिये । पपीते में सर्दियों में 10-12 दिन एवं गर्मियों में 6-8 दिन के अंतर से सिंचाई करना चाहिये। सिंचाई पद्धति में थाला पद्धति काफी संतोषजनक सिद्ध हुई है।
निंदाई-गुड़ाई –
लगातार सिंचाई करते रहने से मिट्टी की सतह कड़ी हो जाती है। जिससे पौधों की वृद्धि पर कुप्रभाव पड़ता है। अत: जरूरी है कि हर तीन सिंचाईयों के बाद अच्छे मौसम में हल्की सी निंदाई-गुड़ाई कर देना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक देने का समय एवं विधि –
खाद एवं उर्वरकों को पौधों के तनो से दूर बराबर फैलाकर हल्की गुड़ाई कर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये। खादों को देने के बाद सिंचाई कर देना चाहियें। गोबर की खाद वर्षा ऋतु के शुरू में और अन्य उर्वरकों को पांच भागों में बांटकर क्रमश: अगस्त, अक्टूबर, दिसम्बर, फरवरी एवं अप्रैल में दें।
कांट -छांट– सीधे बोये गये पपीता में बीज अंकुरण के 6 सप्ताह बाद प्रति गड्ढा 2-3 पौधे छोड़कर अन्य पौधों को निकाल देना चाहिये पपीता में दूसरा विरलन फूल आने पर किया जाता है, एकालिंगाश्रयी किस्मों में प्रति गड्ढा एक मादा पौधा तथा उभयलिंगी किस्मों में से मादा पौधों का विरलन करके उभयलिंगी को रहने दिया जाता है पपीते में तीसरा विरलन फल बनने पर किया जाता है इसमें एक गांठ पर कई फलों का गुच्छा उत्पन्न होता है उनके बीच-बीच के फलों को निकालकर प्रत्येक गांठ में दो-दो फल रहने दिया जाता है।
फलों को तोडऩा एवं उपज –
पपीता के पौधों से रोपण के 10-12 महीने उपरांत पके फल प्राप्त होने लगते हैं। फल जब कड़े होते हैं, लेकिन जब डंठल के पास वाला भाग कुछ पीला पडऩे लगता है तब पौधों से फल तोड़ लिये जाते है। फलों को दूर बाजार में भेजने के लिये कागज में लपेटकर बांस की टोकनियों या लकड़ी की पेटियों में भरकर भेजा जाता है। सबसे अच्छी उपज नये पौधों से प्राप्त होती है, और इसके बाद जैसे-जैसे पौधा पुराना होता जाता है उपज भी घटती जाती है। औसतन एक पेड़ से 25-100 फल मिलते हैं। अच्छी किस्म से प्रति वर्ष 270 से 350 क्ंिव. प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है।
उपज – एक फल से 3 से 10 ग्राम, एक पौधे से 200 से 450 ग्राम, एक हेक्टयर 5 से 10 क्विंटल , औसत लाभ 20,000 -30,000 प्रति हेक्टयर, 2000 पौधे प्रति हेक्टयर, प्रति पौधा 40-50 फल देते हैं।
कीट एवं रोग नियंत्रण
कीड़े :
रेड स्पाइडर कीट (लाल मक्खी) – यह पपीता का प्रमुख कीट है। इस कीट के आक्रमण से फल खुरदरे एवं काले रंग के हो जाते हैं तथा पत्तियां पीली पड़ जाती है।
नियंत्रण – इस कीट के नियंत्रण के लिये मेटासिस्टाक्स या ट्रायजोफॉस का 2 मि. ली. प्रति ली.पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिये।
माहो– पत्तियों के रस चूसते हैं तथा विषाणु रोग के प्रसार में प्रमुख स्त्रोत हैं।
नियंत्रण – प्रारंभिक अवस्था में ही1 मि. ली. दवा प्रति ली. पानी के घोल इमिडाक्लोरोप्रिड अथवा थायोमेथाक्ज़ाम का छिड़काव करने से कीट का नियंत्रण हो जाता है।
रोग :
तना का पाद गलन – यह रोग मृदा जनित कवक के कारण उत्पन्न होता है। इस रोग से पौधे के तने का निचला भाग सड़ जाता है जिससे पत्तियां मुरझाकर पीली पड़ जाती है और गिर जाती है।
रोकथाम – रोगग्रसित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। जल निकास का अच्छा प्रबंध होना चाहिये। जमीन से 60 से.मी. की ऊॅचाई तक तनों पर बोर्डो पेस्ट की पुताई करना चाहिये। साथ ही तने के चारों तरफ मिट्टी में 6:6:50 सांद्रता वाले बोर्डो मिश्रण से उपचारित करें। प्रारंभिक अवस्था में ही 2 ग्राम. दवा प्रति ली. पानी के घोल कार्बेन्डाजिम का छिड़काव करने से कीट का नियंत्रण हो जाता है।
आद्र्र गलन – इस रोग से पौध शाला में छोटे पौधों का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और मुरझाकर गिर जाता है।
रोकथाम द्य नियंत्रण के लिये डाईथेन जेड-78, 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें।
द्य बीजोपचार कार्बेन्डाजिम 2-3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
विषाणु रोग –
मोजेक रोग – यह एक विषाणु रोग है। इस रोग से पत्तियों का हरापन कम हो जाता है तथा पत्तियॉं छोटी होकर सिकुड़ जाती है। रोगग्रस्त पत्तियों में फेैले हुये दाग पड़ जाते हैं कुछ दिनों बाद पौधा मर जाता है। सभी प्रकार के विषाणु रोग पत्ती का रस चूसने वाले कीड़ों द्वारा फैलाये जाते हैं। विषाणु रोग से डिस्टारसन रिंग स्पाट वायरस से पपीते को सबसे अधिक हानि होती है। प्रभावित पौधे की पत्तियों कटी-फटी सी दिखाई देती है, और पौधे की वृद्धि रूक जाती है। लीफ कर्ल वायरस में पत्तियां पूर्ण रूप से मुड़ जाती है और न तो पौधे बढ़ पाते हैं और न ही फल लगते हैं।
रोकथाम – द्य रोगग्रस्त पौधों को नष्ट कर दें। द्य कीड़ों के नियंत्रण हेतु मेटासिस्टॉक्स या इमिडाक्लोप्रिड अथवा थायोमेथाक्ज़ाम 1 मि. ली. दवा प्रति ली.पानी के घोल का 16 दिन के अंतर पर छिड़काव करना चाहिये।
कालवर्ण या एन्थ्रेक्नोज – इस बीमारी से तना, पत्तियों और फलों पर भूरे रंग के धब्बे हो जाते हैं, रोग की तीव्रता में फल सड़ जाते हैं।
नियंत्रण – इसके रोकथाम के लिये 3 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करें।