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किसान की लंगोटी उतारने में जुटे अर्थशास्त्री

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वातानुकूलित कक्षों में विराजमान, पश्चिमी विचारधारा के धनी इन अर्थशास्त्री विद्वानों का नजला अब भारत के दीन-हीन किसानों पर गिरने की बारी है। भारत के किसान और जमीनी सच्चाईयों के प्रति ये लोग पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं तभी इस  प्रकार के ऊल-जलूल सुझाव दिया करते हैं। किसानों की कमाई कितने कठोर परिश्रम की कमाई है, तिस पर भी उसकी दशा दीन-हीन, दयनीय है और ऐसे अर्थशास्त्री उसकी लंगोटी तक उतारने की तैयारी में जुटे हैं। हाल ही में तमिलनाडु के सूखाग्रस्त किसानों का ऋण माफी के लिये राजधानी दिल्ली में भरी धूप में नंगे बदन धरना इन्हें तो नौटंकी ही प्रतीत होता होगा। किसानों के बारे में सुझाव देने के पहले इन विद्वानों को किसानों की दशा, उसके हाल समझने के लिये दिल्ली स्थित पूसा के कृषि संस्थानों को छोड़कर भारत के गांव-देहातों में किसानों के बीच रहकर कुछ समय बिताना चाहिए, उसके बाद इस तरह की बातें बनाने के लिये मुंह खोलना चाहिए।
आषाढ़- श्रावण की घनघोर वर्षा, पूस माह की कड़कड़ाती सर्दी और बैसाख,ज्येष्ठ की तपती भीषण गर्मी सहन करते किसानों की बात तो अलग रही, मई-जून में तपती गर्मी में दिल्ली में बैठे इनके कार्यालय की यदि बिजली गुल हो जाए, पंखे, एयर कंडीशनर बंद हो जायें तो गर्मी से बेहाल ये विद्वान सुझाव देना तो छोडि़ए ठंडे पानी की आस में भटकते फिरेंगे।
ऐसे विद्वान अर्थशास्त्रियों को अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत की याद दिलाना चाहूंगा- मांग और आपूर्ति यदि बाजार में मांग से आपूर्ति अधिक है तो विक्रय किया जाने वाला माल सस्ता और बाजार मांग से आपूर्ति कम है तो बिकने वाला माल महंगा होगा, पिछले वर्ष देश में दालों की आपूर्ति कम थी तो भाव आसमान छू गये तथा टमाटर, प्याज की आपूर्ति अधिक थी तो भाव पानी-पानी हो गये। अर्थशास्त्र के इस साधारण सिद्धांत के अनुसार यदि किसान की आमदनी दुगनी करनी है तो उसे अपने खेतों में कृषि उत्पादन में कमी लानी होगी और कम उत्पादन होने पर बाजार में भाव दुगने या उससे भी अधिक मिलने से किसान की आमदनी भी दुगनी हो जाएगी। ऐसा करने के लिये सभी उर्वरक उत्पादन करने वाले कारखाने बंद कर दें, बीज कंपनियों पर ताले लगा दें। कृषि विश्वविद्यालय और कृषि शोध संस्थान यहां तक कि कृषि विभाग भी बंद कर दें, सरकार के खर्चे कम होंगे। महंगा अनाज बिकने से किसान की माली हालत सुधर जाएगी। फिर भले ही देश में आम जनता भूखी मरे, अनावश्यक आयात व्यय भार बढ़े, दुनिया भर में अनाज आपूर्ति के लिये भीख का कटोरा लेकर घूमने में देश की आन-बान-शान घटे लेकिन अर्थशास्त्र और इसके रचियता विद्वान अर्थशास्त्रियों की बात तो सच है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसे लोग नीति नियामक, नीति आयोग में और इकट्ठे हो गये तो इनके सुझावों को अमल में लाने से न तो प्रधानमंत्री मोदी जी की कुर्सी बचेगी और न ही किसान बचेगा और न ही देश बचेगा।
वर्षों से खेती करने के बाद मन में घुमड़ते नीति आयोग और नीति नियामकों के समक्ष कुछ अनसुलझे सवाल प्रस्तुत हैं-
भारतीय संविधान में जब सब नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है तब समाजवादी लोकतंत्र में मजदूरों -किसानों के प्रति निरंतरता से अन्याय क्यों हो रहा है सरकारी अफसर पढ़-लिखकर मानसिक रूप से परिश्रम कर रहे हैं तो किसान मजदूर  परिश्रम कर रहे हैं फिर दोनों की आय में, शासन द्वारा प्रदत्त सुविधाओं में बड़ा अंतर क्यों है ?
अधिकारी वातानुकूलित कक्षों में कुर्सी तोड़ रहे हैं और किसान मजदूर अपना शरीर, अधिकारी ऊंचा वेतन ले रहे हैं। और किसान मजदूरों को पेट भरने के लाले पड़ रहे हैं।
उद्योगों को छूट
देश में बड़े-बड़े उद्यमी घरानों को अपनी पूंजी निरंतरता से बढ़ाने, बैंकों का कर्ज हड़पने की खुली छूट है। उनके लिये तरह-तरह की शासकीय छूट, सहायता, प्रोत्साहन है वहीं किसानों को एक सीमा से अधिक भूमि रखने पर पाबंदी क्यों है? उनके लिये शासकीय सहायता-प्रोत्साहन नहीं वरन भीख का अनुदान क्यों है। बैंक – साहूकार का ऋण चुकाने में असमर्थ होने पर किसान आत्महत्या को विवश है और उद्योगपति विदेशों में मजे लूट रहे हैं। ऐसा क्यों?
एक वर्ष से अधिक अवधि के लिये शेयर बाजार में धन निवेश करने के लिये पूंजीगत कर लाभ में छूट मिल जाती है लेकिन बाप – दादा के जमाने से चली आ रही पुश्तैनी खेती बेचने पर पूंजीगत कर लाभ चुकाने की विवशता क्यों कर है।
कृषि आय पर छूट के नाम पर बड़े-बड़े व्यवसायिक संस्थान लाखों रु.  की आयकर छूट प्राप्त कर रहे हैं जबकि वास्तव में इनका प्रायोगिक रूप से खेती करने से इनका कोई वास्ता नहीं है। जिन किसानों ने अपनी लगन, परिश्रम से नवाचार अपना कर व्यावसायिक रूप से खेती कर लाभ कमा रहे हैं वे इलाके के किसानों को भी अपने प्रायोगिक माडल को अपनाने के लिये उनकी लाभप्रदता बढ़ाने के लिये प्रेरक और मार्गदर्शक बने हुए हैं, उन पर करारोपण करना उन्हें हतोत्साहित करना है व खेती में नवाचारों, नई तकनीक के प्रसार को रोकने के समान है। भारतीय कृषि पद्धति से पूर्णत: अनभिज्ञ ऐसे तथाकथित विद्वान अर्थशास्त्रियों की अव्यावहारिक सलाह को मानने और अमल में लाने से भारत में कृषि का भावी परिदृश्य अंधकारमय साथ ही कृषि कार्य में संलग्न लाखों किसानों के समक्ष हिसाब रखने प्रस्तुत करने का भी झमेला है, और किसान जिस दिन अपने लागत-लाभ के बारे में जानने समझने में सक्षम हो जाएगा, उस दिन ही खेती से तो उसका मोहभंग हो जायेगा। देश के समक्ष भी उसमें खेती छोड़ते ही भुखमरी का विकराल संकट उपस्थित हो जाएगा। ऐसे तथाकथित विद्वानों के किताबी ज्ञान के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है।
‘करे न खेती, पड़े न फंदा, जे क्या जाने मूसरचंदÓ
भारत के नीति आयोग से ऐसे लोगों को अविलंब बाहर का रास्ता दिखा देना ही सर्वोत्तम उपाय है। गनीमत है केंद्र सरकार ने नीति आयोग के इस सुझाव को नकार दिया है व इसे अर्थशास्त्री विवेक की निजी राय माना है।

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