Horticulture (उद्यानिकी)

बीज का परिचय एवं उपयोग के विभिन्न पहलू

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(अ) उत्तम बीज को स्त्रोत के आधार पर निम्न तीन समूहों में रखा गया है- प्रजनक बीज, आधार बीज और प्रमाणित बीज।
प्रजनक बीज वह वर्ग है जो आनुवांशिक रूप से शुद्ध रहता है तथा इसको प्रजनक (व्रीडर) की देखरेख में तैयार किया जाता है ताकि उसकी गुणवत्ता ठीक रहे। इन बीजों की थैलियों पर पीले रंग का टैग (लेविल) लगा होता है।
आधार बीज को बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा प्रजनक बीज से तैयार किया जाता है। इस बीज की थैलियों पर सफेद रंग का टेग लगा रहता है।
प्रमाणित बीज को भी बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा आधार बीज से पैदा कराया जाता है। यह कार्य प्रत्येक वर्ष म.प्र. राज्य बीज एवं फार्म विकास निगम या उन्नतशील किसानों द्वारा बीज पैदा करने की मानक विधियों के अनुसार किया जाता है। प्रमाणित बीज के थैलों पर नीले रंग का लेबिल लगा रहता है। प्रमाणित बीज को किसानों द्वारा व्यावसायिक फसल के उत्पादन के लिये उपयोग में लाया जाता है।
(ब) बीज शुद्धता व अंकुरण परीक्षण:-
अच्छे उत्पादन के लिये आवश्यक है कि बीज शुद्ध हो और उसका अंकुरण प्रतिशत मानक स्तर से कम न हो। बोने के काम में लाने वाला बीज एक ही प्रजाति का हो, इसके लिए उपलब्ध बीज में से 4-5 अलग-अलग जगह से नमूने लेकर यह सुनिश्चित करें कि इसमें किसी दूसरी फसल के बीज घास चारा आदि न मिले हों साथ ही यह भी देखें कि उसी किस्म के अपरिपक्व, टूटे हुये बीज न हों।
बीजों की अंकुरण क्षमता मानक स्तर की है या नहीं इसके लिये अंकुरण परीक्षण आवश्यक है। अंकुरण परीक्षण के लिये कम से कम 400 बीजों का 3-4 आवृत्ति में परीक्षण करना चाहिए। अंकुरण परीक्षण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
पेपर द्वारा:- 3-4 पेपर एक के ऊपर एक रखकर सतह बनायें और उन्हें पानी से भिगोये। फिर सतह पर सौ-सौ बीज गिनकर लाइन में रखे तथा पेपर को मोड़कर रख दें। पेपर को समय-समय पर पानी डालकर नम बनाये रखें। तीन-चार दिन बाद अंकुरित बीजों को गिन लें।
सीड बॉक्स विधि:- इस विधि में लकड़ी के बॉक्स में रेत बिछाकर उस पर दानों को लाइन में रखें और फिर भुरभुरी मिट्टी की 1.5 सेमी. की तह लगा दें।
रेत को नम बनाये रखने के लिये समय-समय पर पानी डालते रहें। लगभग 4-5 दिनों में अंकुरण मिट्टी की समूह पर आ जाते हैं।

बीज अंकुुरण क्षमता कम से कम 80-90 प्रतिशत होनी चाहिए। परीक्षण के समय तापक्रम फसल के अनुसार होनी चाहिए। अंकुरण क्षमता परीक्षण में पहले सामान्य पौधे और फिर असामान्य पौधे फिर बीज तत्पश्चात् उन अंकुरित बीजों की गिनती की जाती है।

(स) बीजोपचार:- बीज शुद्धता व अंकुरण परीक्षण के पश्चात् बोनी से पूर्व बीजोपचार अति आवश्यक है। यह फसलों को रोगों से होने वाली हानि को रोककर अंकुरण क्षमता भी बढ़ाता है। बीज की बुवाई के बाद रोगजनक अपनी प्रकृति के अनुसार बीज को खेत में अंकुरण के पहले या उसके तुरंत बाद आक्रमण कर हानि पहुंचाते हैं या बाद में पत्तियों पर पर्ण दाग जड़ पर सडऩ एवं बालियों पर कंडवा रोग पैदा करते हैं। अगर हम बीजोपचार द्वारा बीजोढ़ रोगजनक को खेत में जाने से रोक दें तो रोग से होने वाली हानि को काफी हद तक कम किया जा सकता है। बीजोपचार में प्रयुक्त कारकों के आधार पर बीजोपचार के तरीकों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है।
भौतिक बीजोपचार:- इसके अंतर्गत गर्म पानी सूर्य ऊर्जा तथा विकिरणों द्वारा बीजोपचार किया जाता है। बीज के अंदर रहने वाले रोग जनकों जैसे गेहूं के कण्डवा के लिये सूर्य के ताप से बीजों को उपचारित करते हैं। इसके लिये बीज को 4 घंटे पानी में भिगोने के बाद दोपहर की गर्मी में पक्के फर्श या टीन पर पतली तह में डालकर सुखाते हैं। रोग पृथककरण विधि से बीज या पौध अवशेषों को बीज से अलग करके नष्ट करते हैं। इसके लिये बीज को 5 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोते है जिससे रोगी बीज ऊपर तैर आते हंै इनको जाली की सहायता से निकाल कर नष्ट कर देते हैं और शेष बीज को साफ पानी से धोकर व सुखाकर बोने के काम में लेते हैं। यह विधि ज्वार, बाजरा के अर्गट एवं गेहूं के सेहू रोग को रोकने में सहायक होती है।
विकिरण विधि में विभिन्न तीव्रता की एक्स किरणों या अल्ट्रावायलेट किरणों को अलग-अलग समय तक बीजों पर से गुजारा जाता है जिससे बीज की सतह या उसके अंदर पाये जाने वाले रोगजनक नष्ट हो जाते है।
रासायनिक बीजोपचार:-यह बीज जन्य रोगों की रोकथाम की सबसे आसान, सस्ती और लाभकारी विधि है। फफूंदनाशी रसायन बीज जन्य रोगाणुओं को मार डालता है अथवा उन्हे फैलने से रोकता है। यह एक संरक्षण कवच के रूप में बीज के चारों ओर एक घेरा बना लेता है जिससे बीज को रोगजनक के आक्रमण एवं सडऩे से रोका जा सकता है। सन् 1968 में बेनोमिल की सर्वांगी फफूंदनाशक के रूप में खोज के पश्चात् इस क्षेत्र में एक नये युग की शुरूआत हुई। तत्पश्चात् कार्बोक्सिन, मेटालेक्सिन व दूसरे सर्वांगी फफूंदनाशक बाजार में आये। अदैहिक फफूंदनाशक जैसे- थायरम, कैप्टान, डायथेन एम-45, की 2.5 से 3.0 ग्राम मात्रा जबकि दैहिक फफूंदनाशकों जैसे- कार्बेन्डाजिम, वीटावैक्स की 1.5 से 2.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज के उपचार के लिए पर्याप्त होती है। ऐसी फसलों में किया जाता है जिनके कंद, तना आदि बीज के रूप मे प्रयोग किये जाते हैं जैसे गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी, लहसुन, अरवी आदि। इनको लगाने के पूर्व दवा के निश्चित संाद्रता वाले घोल में फसल एवं रोग की प्रकृति के अनुसार 10 से 30 मिनट तक डुबोकर रखते है।

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उत्पादन को बढ़ाने में उन्नत बीजों का प्रयोग एक महत्वपूर्ण पहलू है। हम सभी जानते हैं कि बीज, फसल उत्पादन का एक महत्वपूर्ण आदान है और यह फसलों के विपुल उत्पादन में अहम भूमिका निभाता है। यदि बीज निरोग, स्वस्थ और ओजपूर्ण है तो फसल भी अच्छी होगी। किसी फसल की उन्नत प्रजाति का शुद्ध बीज उपयोग करने से अच्छी पैदावार जबकि अशुद्ध बीज से उत्पादन में हानि की संभावना अधिक होती है। बीज की अशुद्धता, खरपतवारों, बीमारियों या कीड़े मकोड़ों और खराब अंकुरण क्षमता के कारण हो सकती है। किसान भाईयों को बीज बोने से पहले उसके विभिन्न पहलुओं से भली-भांति परिचित होना आवश्यक है। तभी वे अपने अधिक उत्पादन लेने के उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं। बोने से पहले यह आवश्यक है कि किसान बीज के विभिन्न वर्गों को जानें बीज की शुद्धता व अंकुरण प्रतिशत की जानकारी लें तथा बीजोपचार करें।
पादप रोगों के नियंत्रण हेतु जैविक बीजोपचार:- जैविक पौध रोग नियंत्रण कवकीय या जीवाणुवीय उत्पत्ति के होते हैं जो मृदा फफूंदों जैसे – फ्यूजेरियम, राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोशियम, मैक्रोफेमिना इत्यादि के द्वारा होने वाली बीमारियों जैसे- जड़ सडऩ, आद्र्रगलन, उकठा, बीजसडऩ, अंगमारी आदि को नियंत्रित करते है। ट्राइकोडर्मा विरिडी, ट्राइकोडर्मा हारिजिनेयम, पेनिसिलीन, ग्लोमस प्रजाति आदि प्रमुख कवकीय प्रकृति के रोग नियंत्रक है जबकि बेसिलस सबटिलिस, स्यूडोमोनास, एग्रोवैक्टिीरियम आदि जीवाणुवीय प्रकृति के जैव नियंत्रण है जिनको बीज उचारक के रूप में उपयोग किया जा रहा है। जैव नियंत्रक हानिकारक फफूंदियों के लिये या तो स्थान, पोषक पदार्थ, जल, हवा आदि की कमी कर देते है या इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रतिजैविक पदार्थो का स्त्रावण होता है जो रोगजनक की वृद्धि को कम करते है अथवा उसे नष्ट करते है जबकि कुछ जैव नियंत्रक रोगकारक के शरीर से चिपककर उसकी बाहरी परत को गलाकर उसके अंदर का सारा पदार्थ उपयोग कर लेते है जिससे रोगकारक जीव नष्ट हो जाता है। जैविक फफूंदनाशियों की 5-10 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति कि.ग्रा. बीज का उपचार करने से यदि मृदा में रोगजनक का प्राथमिक निवेश द्रव्य अधिक है तथा रोग का प्रकोप पूर्व में अधिक तीव्रता से हुआ है ऐसी स्थिति में मृदा उपचार अधिक कारगार रहता है। मृदा उपचार हेतु 50 कि.ग्रा. गोबर की पकी खाद में एक कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा अथवा बेसिलस सवटिलस या स्यूडोमोनास को मिलाकर छाया में 10 दिनों तक नम अवस्था में रखते है। तत्पश्चात् एक एकड़ क्षेत्र में फैलाकर जमीन में मिलाते है।

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