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ऋण माफी : किसान सम्पन्नता का विकल्प नहीं

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उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा 2 करोड़ 15 लाख किसानों का ऋण माफ करना देश के सभी किसानों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। उ.प्र. में 2 लाख 30 हजार किसानों ने खेती के लिये ऋण लिया है। सरकार ने छोटे तथा सीमांत किसानों के एक लाख रुपये तक के ऋण माफ किये हैं। जिससे राज्य सरकार को 3635.9 करोड़ रुपये का भार वहन करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त 7 लाख किसानों के कर्ज भी माफ किये हंै जिनके कर्ज गैर निष्पादित संपत्ति में बदल दिये गये थे। ऐसा बताया जा रहा है कि यह कर्ज माफी प्रदेश के किसानों में एक नई जान फूंक देगी। तामिलनाडु के किसान भी कर्ज माफी के लिये धरने में बैठे हुए हैं। इसी प्रकार की आवाज कर्नाटक, पंजाब व महाराष्ट्र से भी आ रही है। अच्छा पहलू यह है कि उत्तर प्रदेश में कर्ज माफी राज्य सरकार अपने ही स्त्रोतों से करेगी। यदि भारत सरकार ने इसके लिए केंद्र से सहायता दी होती तो लगभग सभी प्रदेशों से ऋण माफी की मांग के लिये आंदोलन आरंभ हो जाते और इसके परिणाम देश व देश की कृषि के लिये अच्छे नहीं होते। भले ही कृषि का देश के घरेलू सकल उत्पादन में 15 प्रतिशत योगदान रहता है और देश के अधिकांश लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका के लिये कृषि से जुड़े हुए हैं। तो, क्या ऋण माफी ही कृषि की समस्याओं के निदान के लिये एकमात्र विकल्प है? समस्या के निराकरण के लिये हमें किसान के ऋण की अल्प तथा दीर्घ आवश्यकताओं, उसके सही उपयोग तथा समय से ऋण वापसी के विकल्पों के लिये जाग्रत करना होगा। किसान की ऋण लेने की मजबूरियों तथा वापसी समय से न करने के कारणों का भी अध्ययन भी आवश्यक है। कुछ किसान ऐसे भी मिलेंगें जो आदतन ऋण लेने के उत्सुक रहते हैं तथा ऋण की वापसी से कैसे बचा जाये इस ही जुगत में रहते हंै, इन्हें किसान कहना भी उचित नहीं होगा। असली किसान कृषि कार्य की आवश्यकतानुसार ही ऋण लेता है और उसे समय से लौटाने में ही विश्वास करता है। प्राकृतिक विपदा के कारण फसल नष्ट होने की स्थिति में वह ऋण वापसी न करने का दोषी बन जाता है। फसल बीमा योजना इसमें किसान के लिए सहायक होगी।
यदि किसान को उनके उत्पाद का सही व समय पर मूल्य मिल जाये तो वह ऋण माफी की आवाज कभी नहीं उठायेगा। इस दशा में कृषि कार्यों के लिये लिया गया ऋण उसकी सम्पन्नता में सहायक होगा न कि उसे दोषी बनायेगा। अब समय आ गया है कि हम किसान के उत्थान के लिये राजनैतिक विचारधाराओं से ऊपर उठकर किसान की समस्याओं के निराकरण के एकजुट होकर कार्य करें। जब किसान सम्पन्न होगा तभी देश में भी सम्पन्नता आ सकती है अन्यथा नहीं।

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