Uncategorized

मुख्यमंत्री के बोल और प्रशासनिक अराजकता, किस-किस को उल्टा टांगेंगे मुख्यमंत्री जी ?

ई-खसरे की कठिनाईयां
ऐसे बयानों से भले ही मुख्यमंत्री प्रदेश कार्यसमिति के सदस्यों को आनंदित करने का प्रयास करें लेकिन विगत 14 वर्षों से मुख्यमंत्री का पदभार संभाल रहे शिवराज सिंह की ऐसी बयानबाजी की असलियत से प्रदेश के किसान अनजान नहीं हैं।
वर्तमान में प्रदेश के राजस्व विभाग की पूरी व्यवस्था केवल कागजों पर सिमट कर रह गई है। प्रदेश में ई खसरा की कठिनाईयों में उलझ कर तहसीलदार- पटवारी सभी हाथ खड़े कर चुके हैं, प्रशासनिक कामकाज ठप हो चुका है, वर्षों से शासकीय भूमि पर अतिक्रमण निरंतरता से हो रहा है, रेत-खनिज, वन, भूमाफिया हावी है, पुलिस वालों से लेकर अधिकारी तक पिट रहे हैं, वर्षों बाद शासन को समझ आई है कि नई भर्ती के अभाव में प्रशासनिक व्यवस्था चौपट हो चुकी है तभी बड़ी संख्या में पटवारियों की भर्ती की तैयारी है।
ई-सीमांकन कौन सी चिडिय़ा
म.प्र. में पूर्व में बीस रु. में मिलने वाली पांचसाला खसरे की नकल ई-गवर्नेन्स व्यवस्था में पीपीपी मोड के आधार पर लोकसेवा केन्द्रों के माध्यम से एक सौ पचास रु. में मिल रही है, ई-सीमांकन की प्रक्रिया से अधिकांश सरकारी अमला अनभिज्ञ है। उम्रदराज पटवारी, गिरदावर न तो इसे ठीक से सीख पा रहे हैं और न ही सीखने की मानसिकता बना पा रहे हैं, निजी क्षेत्र के सहयोग से सीमांकन हो रहा है, इसमें किसानों को अनाप-शनाप धन राशि खर्च करनी पड़ रही है और इसके बाद भी जो सीमांकन हो रहा है वह पूर्णत: अवैज्ञानिक, अप्रमाणिक, गलत आधार पर हो रहा है जो किसानों के मध्य असंतोष और विवाद का कारण बन रहा है। भारत की शीर्ष संस्था सर्वे ऑफ इंडिया के शीर्षतम अधिकारी भी वेबसाइट पर उपलब्ध नक्शों को त्रुटिपूर्ण कह कर अमान्य कर रहे हैं लेकिन म.प्र. में धांधली बदस्तूर जारी है।
जबरिया हुआ बंदोबस्त
इसके पहले भी म.प्र. के राजस्व विभाग द्वारा की गई बंदोबस्त की प्रक्रिया भी पूर्णत: अवैधानिक होने के बाद किसानों पर जबरिया थोप दी गई थी। म.प्र. भू राजस्व संहिता 1959 में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि बंदोबस्त की प्रक्रिया के दौरान भूधारकों के स्वत्व अप्रभावित रहेंगे, लेकिन बंदोबस्त करने में किसानों के स्वत्व (भूमि धारण का मौलिक अधिकार) प्रभावित कर उनकी जमीनें कम कर दी गई, कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया किसान की भूमि कोई कपड़ा तो है नहीं जो धुलने पर सिकुड़ कर कम हो जाए और न ही चीन, पाकिस्तान की सरहद है जो पड़ोसी देश जबरिया दबा ले, प्रदेश में संचालित वर्तमान राजस्व व्यवस्था किसानों के प्रति जो भी अन्याय करे कोई कहने-सुनने समझने वाला ही नहीं है।
प्रशासनिक सुधार लागू करने के उद्देश्य से राज्य शासन द्वारा पहले प्रकरणों के निराकरण के लिए समय सीमा निर्धारित की गई, निराकरण न होने की दशा में अपील और संबंधित अधिकारी के लिए दंडात्मक व्यवस्था घोषित की गई, कलेक्टरों की अध्यक्षता में प्रति सप्ताह एक दिन जन सुनवाई की व्यवस्था की गई इसके बाद राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री जन सुनवाई व्यवस्था की गई तब भी राजस्व प्रकरणों का सुरसा के मुंह की तरह अंबार लगा हुआ है, मुख्यमंत्री जब स्वयं महीने भर में ही पूरी व्यवस्था को बदल कर रख देने की घोषणा करने लग जायें और ‘नायकÓ फिल्म का उदाहरण देने लग जायें तो यह समझ लेना चाहिए कि परिस्थितियां नियंत्रण के बाहर हो चुकी हैं। ‘नायकÓ फिल्म का हीरो अपने अभिनय के लिए धन लेकर विशुद्ध मनोरंजन कर रहा है जबकि मुख्यमंत्री को मतदान की प्रक्रिया से जनता द्वारा जताये विश्वास के आधार पर शीर्ष पर बैठाया गया है और इस प्रशासन पर अनियंत्रण की पराकाष्ठा ही थी कि उन्हें स्वयं भूख हड़ताल पर बैठना पड़ा।
पटवारियों की कमी
मुख्यमंत्री जी, क्या आप जानते हैं कि वर्षाकाल में भूमि सीमांकन का कार्य परंपरागत रूप से स्थगित रहता है। पुराने तरीके से सीमांकन करने पर कीचड़ में जरीब (सीमांकन के लिए काम में लाई जाने वाली नाप) मिट्टी में लिपट जाती है, जमीन पर उगे खरपतवारों और फसलों में सांप, बिच्छू आदि के डर से और असमय वर्षा के चलते सीमांकन नहीं होता। ई प्रणाली में भी सघन बादलों के रहने, वर्षा और नमी के कारण ई-उपकरण ठीक से काम नहीं कर पाते। वर्षा से उनके खराब होने का खतरा बना रहता है और सीमांकन हो या नामांतरण यह कार्य कलेक्टर नहीं बल्कि पटवारी करता है और प्रदेश में वर्तमान में बड़ी संख्या में पटवारियों की कमी है, ई प्रणाली ठीक से काम नहीं कर रही है। इन परिस्थितियों के रहते एक माह में सीमांकन- नामांतरण के प्रकरणों के पूर्णत: निराकृत होने की आशा सिर्फ दिवास्वप्न है। गौरतलब है कि कलेक्टर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं उनको उलटा टांगना तो दूर उनके दोषी सिद्ध होने के बावजूद उनके विरुद्ध प्रशासनिक कार्यवाही करने के लिए भी केन्द्र सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। राज्य की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था इन अधिकारियों पर ही अवलंबित है, इनके बारे में जब मुख्यमंत्री ही अमर्यादित भाषा का प्रयोग करेंगे तो छुटभैये नेता तो इनकी तौहीन कर अराजकता का राज ही स्थापित करेंगे और अनुचित राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण ही प्रदेश में अराजकता का माहौल व्याप्त है।
अपने प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करने की बजाए केवल नाम कमाने के लिए मलाईदार पदों की आस में राजनैतिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता देने वाले अधिकारियों को यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि प्रारंभिक रूप से ऐसा परिदृश्य भले ही मनोकूल आकर्षक, संतोषप्रद लगे लेकिन कालांतर में ऐसे कारणों से जंगल राज का सामना तो करना ही पड़ेगा, राजनैतिक आका बिगड़े बोलों से सार्वजनिक रूप से अपमानित करेंगे। गुंडे, माफिया सरेआम दुव्र्यवहार और मार-पिटाई पर भी अमादा होंगे। प्रजातंत्र में सशक्त विपक्ष के अभाव में मनमानी, कुशासन व्यवस्था को अंगीकार करना मजबूरी होगा अत: अपने संवैधानिक दायित्वों को निभाना ही प्रशासनिक अधिकारियों की प्राथमिकता होनी चाहिए, नेताओं की जी-हजूरी और सुविधाभोगी बनने की बजाय जनता के हमदर्द बनकर कानून का राज स्थापित करना ही प्राथमिकता हो तभी सुराज संभव है।

विगत दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में तीखे तेवर दिखाते हुए कहा कि ‘एक माह बाद मैं जिलों में जाऊंगा, अविवादित नामांतरण और सीमांकन का एक भी मामला पेंडिंग मिला तो कलेक्टर को उलटा टांग दूंगा, दोबारा कलेक्टरी करने लायक नहीं रहेंगे। किसान आंदोलन और उसके बाद मैंने किसानों के लिए जो फैसले किये उससे मुख्य सचिव और कलेक्टरों की हवाईयां उड़ रही हैं कि अब मैं नया क्या घोषित करने वाला हूँ।’

 

ऐसे बयानों से प्रशासनिक अराजकता व्याप्त होने पर क्या होगा, मुख्यमंत्री जी और क्या-क्या घोषणा करने वाले हैं इसके क्या परिणाम होंगे, इन्हें कैसे कार्यान्वित किया जायेगा समझने में मुख्य सचिव और कलेक्टरों की हवाईयां तो उडऩी ही है, यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था है अथवा मनमानी, यही यक्ष प्रश्न है।
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *