बीटी कपास लगायें सफेद सोना पाय
मध्यप्रदेश में सन् 2002 तक मुख्यत: कपास की गोसीपियम हिरसूटम (40′) गोसीपियम आर्बोरियम (20′) एवं गोसीपियम हर्बेशियम प्रजातियों के साथ लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्र में संकर प्रजातियां लगायी जाती थी।
भारत शासन द्वारा सन् 2002 से किसानों को जेनेटिकली माडीफाइड या ट्रांसजेनिक बी.टी. कपास लगाने की अनुमति दी गई। आरंभ में बी.टी. कपास के प्रति किसानों का झुकाव तेजी से नहीं हुआ लेकिन 2005 के पश्चात इसके क्षेत्र में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई और वर्तमान समय में लगभग संपूर्ण मध्यप्रदेश में प्राय: किसान बी.टी. कपास ही लगा रहे हैं। प्रदेश के समान ही देश के अन्य प्रदेशों में भी लगभग यही स्थिति है।
यदि पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध है तो कपास की फसल को मई माह में ही लगाया जा सकता है। सिंचाई की पर्याप्त उपलब्धता न होने पर मानसून की उपयुक्त वर्षा होते ही कपास की फसल लगायें।
कपास की फसल को मिट्टी अच्छी भुरभुरी तैयार कर लगायेें। सामान्यत: उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किलोग्राम बीज (रेशाविहीन/डिलिन्टेड) तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 कि.ग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिये उपयुक्त होता है।
सामान्य रूप से प्रदेश में किसानों द्वारा कपास की फसल लगाने के लिए चौफुली पद्धति अपनायी जाती है। इस विधि से फसल बोने पर पौधों की संख्या बराबर आती है और दोनों दिशाओं में कोल्पा चलाने में सुविधा होती है।
इसमें कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी आवश्यकतानुसार रखे। उन्नत जातियों में चौफुली 45-60&45-60 सेमी. पर लगायी जाती है (भारी भूमि में 60&60 से.मी., मध्यम भूमि में 60&45 सेमी. एवं हल्की भूमि में 45&45 सेमी.)। संकर एवं बी.टी. जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमश: 90 से 120 सेमी एवं 60 से 90 से.मी. रखी जाती है। संकर जातियों में हल्की भूमि में यह अंतराल कम किया जा सकता है। चौफुली पद्धति के अतिरिक्त कतार को कतार छोड़ या कतार जोड़ पद्धति द्वारा भी लगाया जाता है। चौफुली पद्धति से बोने के स्थानों पर छोटा गड्ढा कर लें फिर खाद-उर्वरक एवं मिट्टी के मिश्रण को रखें और उस पर बीज रखकर मिट्टी से अच्छी तरह ढंक दें।
कपास विश्व की मुख्य रेशे वाली फसल है। कपास अब लगभग सभी महाद्वीपों में होती है। इसने स्वयं को हर किस्म की जलवायु, क्षेत्र और धरती के अनुरूप ढाल लिया है। कपास, कपड़ा तैयार करने का नैसर्गिक रेशा है। विश्व की लगभग आधी जनसंख्या कपास से तैयार कपड़े पहनती है। भारत में कपास की खेती डिग्री उत्तरी अक्षांश एवं 70-80 डिग्री पूर्वी देशान्तर के मध्य, 0 से 950 मीटर की ऊंचाई वाले ए वं 250 से 1500 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में होती है। इसे विविध प्रकार की भूमियों में लगाया जाता है। |
भारत सरकार की आनुवंशिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समिति (जी.ई.ए.सी.) की अनुशंसा के अनुसार कुल बी.टी. क्षेत्र का 20 प्रतिशत अथवा 5 कतारें (जो भी अधिक हो) मुख्य फसल के चारों ओर उसी किस्म का बिना बीटी (नान बीटी ) वाला बीज लगाना (रिफ्यूजिया) लगाना अत्यंत आवश्यक है। प्रत्येक बीटी किस्म के साथ उसका नान बीटी (120 ग्राम बीज) उसी पैकेट के साथ आता है। आजकल नान बीटी के स्थान पर अरहर का बीज भी कुछ किस्मों में आने लगा है।
प्राय: इस रिफ्यूजिया को कृषक मुख्य फसल के चारों ओर नहीं लगाते हैं वे इस पैकेट को फेंक देते हैं। लेकिन ऐसा किया जाना उचित नहीं है, कृषकों को रिफ्यूजियो अनिवार्य रूप से लगाना चाहिए। यदि यह रिफ्यूजिया कृषक भाई नहीं लगाते तो बीटी के पौधे पर डेंडू छेदक कीटों के आने की संभावना बन जाती है। और इनके लगातार यहां रहने पर डेडंू छेदक कीटों में प्रतिरोधकता विकसित हो सकती है। ऐसा भी अनुभव है कि कृषक नान बीटी के बीज को बीटी के साथ मिलाकर बो देते हैं। ऐसा करने पर बीटी के पौधों पर भी डेंडू छेदक कीटों के पहुंचने की संभावना बनती है और उनमें शीघ्र ही कीटों के लिये सुग्राघ्यता विकसित हो सकती है। नान बीटी रिफ्यूजिया कतारें लगाने पर डेंडू छेदक कीटों का प्रकोप उन तक ही सीमित रहता है और यहां उनके नियंत्रण के लिये कीटनाशक का छिड़काव करना आसान होता है।
अच्छी तरह से पकी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट उपलब्ध होने पर 7 से 10 टन/हे.(20 से 25 गाड़ी) अवश्य दें। सामान्यत: उन्नत जातियों में 80-120 किग्रा. नत्रजन, 40 से 60 कि.ग्रा. स्फुर एवं 20-30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टयर की आवश्यकता होती है जबकि संकर एवं बी.टी. जातियों में 150 किग्रा. नत्रजन, 75 किग्रा. स्फुर एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर लगता है। कपास लंबी अवधि की फसल होने के कारण उसमें पोषक तत्वों को विभिन्न अवस्थाओं में देने की आवश्यकता होती है। उन्नत जातियों में असिंचित अवस्था में 25 प्रतिशत नत्रजन एवं स्फुर व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बोनी के समय दीजाती है। इसके पश्चात् 50 प्रतिशत नत्रजन बुवाई के चार सप्ताह के अंदर दी जाती है। शेष 25 प्रतिशत नत्रजन फूल पुडिय़ों के विकास के समय दी जाती है।
अंकुरण के 3-4 दिन के अंदर ही खाली स्थानों पर बीज बो देें। रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिये बोनी के समय ही यदि कुछ बीज पॉलिथिन (प्लास्टिक) की थैलियों में लगाकर तैयार कर लिए जाते हैं तो यह बेहतर रहता है। पौध विरलन भी अंकुरण के एक सप्ताह के अंदर ही प्रति बोनी बिंदु दो स्वस्थ पौधे रखकर दें।
पहली निंदाई – गुड़ाई फसल अंकुरण के 15 से 20 दिन के अंदर कर दें। कोल्पा या डोरा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करना सर्वाधिक प्रभावी एवं सस्ता होता है। खरपतवारनाशकों में फ्लूफ्लोरोलिन या पिन्डामिथालिन 1 किग्रा. सक्रिय तत्व को बुवाई पूर्व (प्री प्लान्ट) उपयोग किया जा सकता है।
फसल विकास की क्रांतिक अवस्थाएं फसल की अवस्था (दिनों में)।
1. सिम्पोडिया, शाखाएं निकलने की अवस्था एवं 45-50 दिन फूल पुड़ी बनने की अवस्था।
2. फूल एवं फल बनने की अवस्था 75-85 दिन।
3. अधिकतम घेटों की अवस्था 95-105 दिन।
4. घेटे वृद्धि एवं खुलने की अवस्था 115-125 दिन।