प्याज की उन्नत खेती
भूमि- प्याज सभी प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है जैसे कि रेतीली, दोमट, गाद दोमट और भारी मिट्टी। सफल प्याज की खेती के लिए सबसे अच्छी मिट्टी दोमट और जलोढ़ हैं जिसमें जल निकासी प्रवृत्ती के साथ अच्छी नमी धारण क्षमता और पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ हो। भारी मिट्टी में उत्पादित प्याज खराब हो सकते हैं। वैसे भारी मिट्टी पर भी प्याज सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, अगर खेती के लिए क्षेत्र की तैयारी बहुत अच्छी हो और रोपण से पहले जैविक खाद का प्रयोग किया जाए। प्याज की फसल के लिए मृदा सामू इष्टतम 6.0 – 7.5 होना चाहिए, लेकिन प्याज हल्के क्षारीय मिट्टी में भी उगाया जा सकता है। प्याज फसल अत्यधिक अम्लीय, क्षारीय और खारी मिट्टी और जल जमाव के लिए अधिक संवेदनशील है। प्याज 6.0 के नीचे सामू की मिट्टी में सूक्ष्म तत्व की कमी की वजह से या कभी-कभी एल्युमिनीयम या मैगनीज विषाक्तता होने के कारण कामयाब नहीं है।
उन्नत किस्में-
खरीफ में बुवाई हेतु: एग्रीफाउंड डार्क रेड, भीमा सुपर, भीम डार्क रेड।
रबी में बुआई हेतु: एग्रीफाउंड लाइट रेड, एग्रीफाउंड रोज, भीमा रेड, भीमा शक्ति, पूसा रेड, पूसा रतनार।
सफेद प्याज की किस्में: पूसा व्हाइट राउंड, पूसा व्हाइट फ्लैट, भीमा श्वेता, भीमा शुभ्रा।
बीज की बुवाई- प्याज की बुवाई खरीफ मौसम में मई के अन्तिम सप्ताह से लेकर जून के मध्य तक करते हैं। रबी फसल हेतु नर्सरी में बीज की बुवाई नवम्बर-दिसम्बर में करनी चाहिए।
पौध तैयार करना- उचित पौधशाला प्रबंधन और रोपाई का प्याज की फसल में महत्वपूर्ण योगदान है। लगभग 0.05 हेक्टेयर क्षेत्र की पौधशाला 1 हेक्टेयर में रोपाई हेतु पर्याप्त है। इसके लिए खेत की 5-6 बार जुताई करें जिससे ढेले टूट जाएं और मिट्टी भुरभुरी होकर अच्छी तरह से पानी धारण कर सके। भूमि की तैयारी से पहले पिछली फसल के बचे हुए भाग, खरपतवार और पत्थर हटा दें। आखिरी जुताई के समय आधा टन अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद 0.05 हेक्टेयर में मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिलायें। पौधशाला के लिए 10-15 सें.मी. ऊंचाई, 1मी. चौड़ाई और सुविधा के अनुसार लंबाई की उठी हुई क्यारियां तैयार की जानी चाहिए। क्यारियों के बीच की दूरी कम से कम 30 सेमी हो, जिससे एक समान पानी का बहाव हो सके और अतिरिक्त पानी की निकासी भी संभव हो। उठी हुई क्यारियों की पौधशाला के लिए सिफारिश की गई है, क्योंकि समतल क्यारियों में ज्यादा पानी की वजह से बीज बह जाने का खतरा रहता है। लगभग 10 कि.ग्रा. बीज एक हेक्टेयर में पौध के लिए आवश्यक है। बुवाई से पहले 3 ग्रा./कि.ग्रा. बीज के दर से थीरम का उपयोग आर्द्र गलन (डैपिंग ऑफ) रोग से बचने में सहायता करता है। ट्रायकोडर्मा विरीडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार आर्द्र गलन से बचने एवं स्वस्थ पौध प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। बीज 50 मि.मी. से 75 मि.मी. पर कतार में बोयें जिससे बीज बुवाई के बाद रोपाई, निराई और कीटनाशकों का छिड़काव आसानी से हो सके। बुवाई के बाद बीज को सड़ी हुई गोबर खाद या कम्पोस्ट से ढका जाना चाहिए और फिर हल्के पानी का छिड़काव करें। टपक या सुक्ष्म फव्वारा प्रणाली के माध्यम से सिंचाई करने पर पानी की बचत होती है। पौधशाला में मेटालेक्सिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के पर्णीय छिड़काव का मृदा जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिए सिफारिश की गई है। कीड़ों का प्रकोप अधिक होने पर फिप्रोनील 1 मिली प्रति लीटर का पत्तों पर छिड़काव करें। प्याज के पौध खरीफ में 35-40 दिनों में और पिछेती खरीफ एवं रबी में 45-50 दिनों में रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं।
खाद उर्वरक- प्याज से भरपूर उत्पादन प्राप्त करने हेतु खाद एवं उर्वरकों का उपयोग मृदा परीक्षण की अनुशंसा के अनुसार करें। सामान्तया अच्छी फसल लेने के लिये 20-25 टन अच्छी सड़ी गोबर खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम तैयारी के समय मिला दें। इसके अलावा 110 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। नत्रजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा रोपाई के पहले खेत में मिला दें। नत्रजन की शेष मात्रा को 2 बरबर भागों में बांटकर रोपाई के 30 दिन तथा 45 दिन बाद छिड़कें। इसके साथ-साथ गंधक (सल्फर) भी प्याज कन्द के तीखापन में सुधार लाने के लिए और प्याज का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। अगर गंधक स्तर 15 कि.ग्रा./हे. से ऊपर है, तब 30 कि.ग्रा./हे. और यदि यह 15 कि.ग्रा./हे. से नीचे है तब 45 कि.ग्रा./हे. गंधक का इस्तेमाल करना चाहिए।
प्याज एक नकदी फसल है जिसमें विटामिन सी, फास्फोरस आदि पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। भारत में रबी तथा खरीफ दोनों ऋतुओं में प्याज उगाया जा सकता है। |
जैव उर्वरक- जैविक उर्वरकों में सूक्ष्मजीव उपस्थित होते हैं। जैविक उर्वरकों का उपयोग बीज उपचार या फिर मिट्टी में डालने के लिए किया जाता है। जब इन्हें बीज या मिट्टी में डालते हैं, तब इनमें उपस्थित सूक्ष्म जीव नत्रजन स्थिरीकरण, फॉस्फोरस घुलनशीलता और दूसरे विकास वर्धक पदार्थों द्वारा प्राथमिक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि करते है जिससे पौधों का विकास होता है। प्या.ल.अनु.नि. में किए गए प्रयोगों के आधार पर, जैविक उर्वरक ऐजोस्पाइरिलियम और फॉस्फोरस घोलने वाले जीवाणु की 5 कि.ग्रा./हे. की दर से प्याज फसल के लिए सिफारिश की गई है। ऐजोस्पाइरिलियम जैविक नत्रजन स्थिरीकरण द्वारा मिट्टी में नत्रजन की उपलब्धता को बढ़ाते हैं और फास्फोरस घोलने वाले जीवाणु के इस्तेमाल से मृदा में मौजूद अनुपलब्ध फॉस्फोरस पौधों के लिए उपलब्ध होते हैं जिससे फास्फोरस उर्वरकों की क्षमता बढ़ती है।
प्याज की अच्छी उपज हेतु घुलनशील उर्वरकों का पर्णीय छिड़काव-
– यदि वानस्पतिक वृद्धि कम हो तो 19:19:19 पानी मे घुलनशील उर्वरक 5 ग्राम प्रति लीटर पानी मे घोलकर रोपाई के 15, 30 एवं 45 दिन बाद छिडकाव करें। इसके बाद 13:0:45 पानी मेे घुलनशील उर्वरक 5 ग्राम प्रति लीटर पानी मे घोलकर रोपाई के 60, 75 एवं 90 दिन बाद छिड़काव करें।
– अच्छी उपज व गुणवत्ता के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का मिश्रण 1 ग्राम प्रति लीटर पानी मे घोलकर रोपाई के 45 और 60 दिन बाद छिड़काव करें।
पौध रोपण- रोपाई के लिए पौध का चयन करते समय ऊचित ध्यान रखें। कम और अधिक आयु के पौध रोपाई के लिए नहीं लें। रोपाई के समय पौध के शीर्ष का एक तिहाई भाग काट दें जिससे उनकी अच्छी स्थापना हो सके। प्याज की पौध स्थापना के दौरान फफूंदी संबंधी रोगों की घटनाओं को कम करने के लिए पौध की जड़ों कों कार्बेण्डाजिम घोल (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) में दो घंटें के लिए डुबाने के बाद रोपित किया जाये। रोपाई के समय पंक्तियों के बीच 15 सें.मी. और पौधों के बीच 10 सें.मी. इष्टतम अंतर हो।
सिंचाई- मौसम, मिट्टी का प्रकार, सिंचाई की विधि और फसल की आयु पर प्याज में सिंचाई की आवश्यकता निर्भर करती है। आम तौर पर रोपाई के समय, रोपाई से तीन दिनों बाद और मिट्टी की नमी के आधार पर 7-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जरूरत होती है। खरीफ फसल में 5-8 बार, पिछेती खरीफ फसल में 10-12 बार और रबी की फसल में 12-15 बार सिंचाई की जरूरत है। प्याज एक उथले जड़ की फसल है जिसकी उचित वृद्धि और कन्द विकास हेतु इष्टतम मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए लगातार हल्के सिंचाई की जरूरत होती है। फसल परिपक्व होने के पश्चात (फसल कटाई से 10-15 दिन पहले) सिंचाई बंद करनी चाहिए। इससे भंडारण के दौरान सडऩ को कम करने में मदद मिलती है। अतिरिक्त सिंचाई प्याज की फसल के लिए हानिकारक होती है तथा शुष्क समय के बाद सिंचाई करने से दुफाड कन्द बनते है।
प्याज में टपक सिंचाई- आधुनिक सिंचाई तकनीक जैसे टपक सिंचाई और फव्वारा सिंचाई से पानी की बचत और प्याज की विपणन योग्य उपज में बढ़ौतरी होती है। टपक सिंचाई में, पौध को 15 सें.मी. ऊंची, 120 सें.मी. चौड़ी क्यारियों में 10 & 15 सें.मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। हर चौड़ी उठी हुई क्यारी में 60 सें.मी. की दूरी पर दो टपक लेटरल नलियां (16 मि.मी. आकार) अंतर्निहित उत्सर्जकों के साथ हो। दो अंतर्निहित उत्सर्जकों के बीच की दूरी 30-50 से.मी. और प्रवाह की दर 4 ली./घंटा होनी चाहिए।
फव्वारा सिंचाई प्रणाली- फव्वारा सिंचाई प्रणाली में दो लेटरल (20 मि.मी.) के बीच की दूरी 6 मी. और निर्वहन दर 135 लि./घंटा हो। शोध परिणामों से पता चलता है कि बाढ़ सिंचाई की तुलना में टपक सिंचाई से ए श्रेणी के कन्द की अधिकता, 35-40त्न पानी की बचत और 20-30 प्रतिशत श्रम की बचत के साथ कन्द उपज में 15-25 प्रतिशत वृद्धि होती है।
फर्टीगेशन– उर्वरकों को टपक सिंचाई द्वारा इस्तेमाल करना एक प्रभावी और कारगर तरीका है। इसमें पानी को पोषक तत्वों के वाहक एवं वितरक के रुप में उपयोग किया जाता है। उच्च विपणन योग्य कन्द उपज और मुनाफा प्राप्त करने के लिए 40 कि.ग्रा. नत्रजन रोपाई के समय आधारीय मात्रा के रूप में और शेष नत्रजन का उपयोग छह भागों में, रोपाई से 60 दिनों बाद तक 10 दिनों के अंतराल पर टपक सिंचाई के माध्यम से करें।
निंदाई-गुड़ाई- फसल को खरपतवार से मुक्त रखने के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को निकालते रहें। इसके अतिरिक्त खरपतवारनाशी जैसे पेंडिमिथालिन 30 ई.सी. का 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोलकर रोपाई के 3 दिन के अंदर छिड़काव करें या ऑक्सिफलौरफेन 23.5 प्रतिशत ई. सी. 650 मिली प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी मे घोलकर रोपाई के 3 दिन के अंदर छिड़काव करें यदि खड़ी फसल में यदि खरपतवार हो तो ऑक्सीफलौरफेन 23.5 प्रतिशत ई. सी. 1 मिली प्रति लीटर + क्विज़लफोप इथाइल 5 प्रतिशत ई.सी. 2 मिली प्रति लीटर रोपाई के 20 से 25 दिन बाद छिड़काव करें।
उपज- रबी फसलों से औसतन 250-300 क्विंटल/हेक्टेयर तक उपज प्राप्त हो जाती है।
- एस. के. त्यागी
- डॉ. एम. एल. शर्मा
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