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संरक्षित खेती की लाभकारी तकनीक

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प्लास्टिक सुरंग में बेमौसम सब्जियां लगाएं

संरक्षित खेती का मुख्य उद्देश्य सब्जी फसलों को जैविक या अजैविक कारकों से बचाकर उगाना होता है। इसमें फसल को किसी एक कारक या कई कारकों से बचाकर उगाया जा सकता है। संरक्षित सब्जी उत्पादन के लिये सब्जी उत्पादकों को खेती व विभिन्न संरक्षित संरचनाओं की पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है। उसके बाद ही उत्पादक तय कर सकता है कि वह किस प्रकार की संरक्षित तकनीक अपनाकर बेमौसमी सब्जी का उत्पादन करे। इसमें कृषक को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह कौन-कौन सी संरक्षित प्रौद्योगिकियां का उपयोग करें ताकि वह सब्जियों को वर्ष भर उगा सके। संरक्षित संरचनाओं को बनाने के बाद रख-रखाव में क्या व्यय होगा तथा उच्च गुणवत्ता वाली सब्जियों को वह किस बाजार में बेचकर अधिक लाभ कमा सकता है। मुख्यत: सब्जी उत्पादन हेतु उचित व उपयुक्त संरक्षित प्रौद्योगिकी की आवश्यकता उस क्षेत्र की जलवायु पर निर्भर करती है। लेकिन इसके अलावा किसान की आर्थिक दशा टिकाऊ व उच्च बाजार की उपलब्धता व बिजली की उपलब्धता आदि कारक भी इसको निर्धारित करते हैं। सब्जियों के बेमौसमी उत्पादन हेतु खासतौर पर एअरकंडीशन ग्रीनहाउस, प्राकृतिक हवा वाले ग्रीन हाउस, प्राकृतिक हवा वाले ग्रीनहाउस, कम लागत वाले पॉलीहाउस, लो प्लास्टिक टनल आदि का उपयोग किया जाता है। बेमौसमी सब्जियों की संरक्षित खेती के लिये सब्जियों की पौध प्लग ट्रे पद्धति में तैयार की जाती है तथा उसके बाद पौधों को उपयुक्त संरक्षित संरचना में रोपाई करते हैं।
लो प्लास्टिक टनल तकनीक- लो प्लास्टिक टनल तकनीक ऐसी संरक्षित तकनीक है जिसे मुख्य खेत में फसल की रोपाई के बाद प्रत्येक फसल क्यारी के ऊपर कम ऊंचाई पर प्लास्टिक की चादर ढक कर बनाया जाता है। यह फसल को कम तापमान से होने वाले नुकसान से बचाने के लिये बनाई जाती है। यह तकनीक उत्तर भारत के उन मैदानों में सब्जियों की बेमौसमी खेती के लिये बहुत उपयोगी है जहां सर्दी के मौसम में रात का तापमान लगभग 40 से 60 दिनों तक 8 डिग्री से नीचे रहता है।
इस तकनीक से बेमौसमी सब्जियों उगाने के लिए सब्जियों की पौध को प्लास्टिक प्लग ट्रे तकनीक से दिसंबर व जनवरी में ही तैयार किया है। ऐसी संरचना बनाने के लिए सबसे पहले ड्रिप सिंचाई की सुविधायुक्त खेत में जमीन से उठी क्यारियों का निर्माण उत्तर से दक्षिण दिशा में किया जाता है। इसके बाद क्यारियों के मध्य में एक ड्रिप लाइन बिछा दी जाती है। क्यारी के ऊपर 2 मि.मी. मोटे जंगरोधी लोहे के तारों या पतले व्यास के पाइपों को मोड़ कर घेरे इस प्रकार बनते है कि इसके दो सिरों की दूरी 50-60 से.मी. तथा मध्य से ऊंचाई भी 50-60 से.मी. रहे। तारों के बीच की दूरी 15 से 20 मी. रखनी चाहिए इसके बाद तैयार पौध को क्यारियों में रोपाई करते हैं तथा दोपहर बाद 20-30 माईक्रोन मोटाई तथा लगभग 20 मी. चौड़ाई की पारदर्शी प्लास्टिक की चादर से ढका जाता है। ढकने के बाद प्लास्टिक के लम्बाई वाले दोनों सिरों को मिट्टी से दबा दिया जाता है। इस प्रकार रोपित फसल पर प्लास्टिक की एक लघु सुरंग बन जाती है। यदि रात को तापमान लगातार 5 डिग्री से.ग्रे. से कम है तो सात से दस दिन तक प्लास्टिक में छेद करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन उसके बाद प्लास्टिक में पूर्व दिशा की ओर चोटी से नीचे की ओर छोटे-छोटे छेद कर देते हैं। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है इन छेदों का आकार भी बढ़ाया जाता है। पहले छेद 2.5 से 3.0 मी. की दूरी पर बनाते है बाद में इन्हें 1.0 मी. दूरी पर बना देते हंै। आवश्यकतानुसार मौसम ठीक होने पर तापमान को ध्यान में रखते हुए टनल की प्लास्टिक का फरवरी के अंत से मार्च के प्रथम सप्ताह में पूरी तरह से हटा दिया जाता है। इस समय तक फसल काफी बढ़ चुकी होती है तथा कुछ फसलों में तो फल स्थापन भी आरंभ हो चुका होता है। इस तकनीक से बेल वाली समस्त सब्जियों को मौसम से पहले या पूर्णत: बेमौसम में उगाना संभव है।
विभिन्न बेल वाली सब्जियों में इस तकनीक से संभावित फसल अगेतापन इस प्रकार है-
चप्पन कद्दू – 40 से 60 दिन
लौकी – 30-40 दिन
करेला – 30 से 40 दिन
खीरा – 30 से 40 दिन
खरबूजा – 30 से 40 दिन

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