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तकनीक अपनाएं, खेती की लागत घटाएं

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इन सब कारणों की वजह से किसान के पास कम संसाधन होते हुए भी अर्थात् किसान सामथ्र्यहीन होते हुए भी, अनावश्यक रूप से उगे हुए खरपतवारों के नियंत्रण के लिए मजदूर या खरपतवारनाशी का अनावश्यक प्रयोग, पानी के लिए बिजली या ईधन, कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशक का प्रयोग, भूमि की उर्वरता बढ़ाने के लिए अनावश्यक रूप से रासायनिक खादों का अन्धा-धुन्ध प्रयोग आदि पर अनावश्यक रूप से अधिक खर्च करना पड़ता है। जो खेती के खर्चे को अधिक बढ़ा देते हैं। परन्तु यदि किसान थोड़ा सा सावधानी रखें तो खेती में कम लागत लगाकर अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।
बिना खर्च खरपतवार से छुटकारा-
उचित फसल चक्र ना अपनाने के कारण खरपतवार की समस्या बहुत आती है। निरंतर एक ही खेत में धान और गेहूं की बुवाई करने से इन फसलों में अधिक खरपतवारों उगने के कारण बहुत अधिक नुकसान वहन करना पड़ता है। इसके साथ ही इन फसलों में घास-पात के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी का प्रयोग करना पड़ता है। जिससे उत्पादन लागत में वृद्धि तो होती ही है साथ ही किसान के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पडऩे के जोखिम भी बढ़ जाता है। परन्तु यदि इन दोनों फसलों के बीच में मटर, चना, सरसों जई, आलू, अरहर आदि कोई भी फसल की बुवाई अपने पसन्द के अनुसार किया जाए तो गेहूंू में सर्दियों में जो घास आते हैं वे अपने आप प्राकृतिक रूप से कम हो सकते हैं। गेहूं की फसल की कटाई के बाद और धान रोपाई से पहले खेत की दो-तीन बार सिंचाई करने से खरपतवार उग जाते हैं। जिनको खेत की जुताई करके नष्ट किया जा सकता है। इस समय पानी की आवश्यकता अन्य फसलों को नहीं होती है। और इस समय, समय से बरसात होने पर पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। इस विधि द्वारा घास के नियंत्रण पर किये गये व्यय को बचाया जा सकता है। और धान की फसल को अप्रत्याशित रूप से लाभान्वित किया जा सकता है।
कीटनाशक के कम उपयोग से खेती के खर्चे में कमी-
हम अपने फसलों को कीटों से बचाने के लिए कीटनाशक के रूप में बहुत अधिक खर्च कर देते हैं। इस व्यय को बचाकर हम अपने खेती के लागत को कम कर सकते हैं। कीटनाशक के व्यय से बचने की सर्वश्रेष्ठ तकनीक है सही समय पर फसलों की बुवाई करना। उदाहरण के लिए यदि बरसात के समय भिंडी की बुवाई के स्थान पर यदि गर्मी के शुरूआत में ही बुवाई किया जाए तो भिंडी की फसल को पीला मोजेक से बचाया जा सकता है। इसके साथ ही बिना कीटनाशक का छिड़काव किये अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा लोबिया भी बरसात के मौसम के स्थान पर गर्मियों में लगाया जा सकता है। इसी तरह सरसों की देर से बुवाई करने पर फसल में फूल की अवस्था आने पर माहो का प्रकोप अधिक होता है।
इसी प्रकार मटर की बुवाई देर से करने पर फसल पर चूर्ण सदृश्य फफूंदी और तिलहन पर एफिड के प्रकोप का गम्भीर समस्या पैदा हो जाती है। इनसे भी बचने के लिए उचित समय पर फसल की बुवाई करना एक सस्ता और प्राकृतिक रास्ता है। अधिकांश फसल को उचित समय पर लगाने से बिना कीटनाशकों के छिड़काव के अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं। और लागत को कम करके किसान भाई अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं।
सिंचाई के खर्चे को कम करना-
वैश्विक तपन के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन में असामयिक व कम बरसात से फसलों के लिए जल की पूर्ति करने पर किसान भाई को फसल सिंचाई के लिए एक बहुत अधिक धनराशि खर्च करना पड़ता है। इसलिए किसान भाई उचित फसल चक्र अपनाकर सिंचाई पर न्यूनतम खर्च करके अपने आमदनी को अधिक कर सकते हैं। जैसे- खरीफ में धान की फसल लेने के बाद गेहूं की फसल ना लेकर इसके स्थान पर चना, मटर, मसूर, सरसों आदि कम पानी चाहने वाली फसलों की खेती करना चाहिए। जिसके लिए कम से कम पानी की आवश्यकता होती है। यदि किसान के लिए गेहूं की फसल बहुत अधिक आवश्यक हो तो खरीफ में धान की फसल के जगह अरहर, बाजरा, मक्का आदि जैसे फसलों में से किसी एक फसल का चयन कर खेती करना चाहिए। क्योंकि इन फसलों को भी कम सिंचाई की आवश्यकता होती है। अपने आमदनी को अधिक करने के लिए किसान भाई को चाहिए कि फसलों का चयन इस तरह से करें कि उनका शुद्ध लाभ प्रभावित ना हो। अर्थात् सिंचाई पर न्यूनतम खर्च कर अधिकतम लाभ कमाया जा सकता है।
भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि करने हेतु- हरी खाद की फसल- भूमि की उर्वराशक्ति को प्राकृतिक रूप से बढ़ाने के लिए हरी खाद एक बहुत उपयोगी विधि है। क्योंकि खेत में गेहंू या धान की फसल लेने के बाद कटाई करने पर खेत में कोई नाइट्रोजन भूमि में नहीं वापस आती है। यदि इन फसलों के बाद हरी खाद के रूप में ढेंचा, सनई, उड़द या मूंग की फसल ली जाए तो वायुमण्डलीय नत्रजन का इन फसलों के द्वारा भूमि में स्थिरिकरण हो जात है। उदाहरण के लिए यदि हम अपने खेत में मूॅग की खेती करते हैं, तो एक एकड़ खेत में आठ किलो बीज की आवश्यकता होती है। आठ किलो बीज में लगभग 65000 के आस-पास बीज होते हैं। यदि इनमें से 50,000 पौधे भी विकसित होते हैं और प्रत्येक पौधे से 4-5 ग्राम नत्रजन का उत्पादन होता है तो इस प्रकार से एक एकड़ भूमि में लगभग 200 किलोग्राम नत्रजन का उत्पादन हो जाता है। जिसकी लागत 10 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से लगभग 2000 रूपये होती है। इसके अतिरिक्त नत्रजन का उत्पादन खेती से प्राप्त कचरे का उचित विघटन कराकर भी होता है।
भूमि की उर्वरता के लिए केंचुआ खाद व प्राकृतिक जुताई-
सदियों से किसानों का मित्र केंचुआ भूमि की उर्वराशक्ति को बढ़ाने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। एक सामान्य केंचुआ का वजन 10 ग्राम के आस-पास होता है। केंचुए की यह विशेषता है कि वह अपने शरीर के वजन का 5 गुना भोजन करता है तथा समान मात्रा में मल त्याग करता है। केंचुए का मल और मूत्र दोनों भूमि को पोषक तत्व प्रदान करते है। इस प्रकार केंचुए के द्वारा अपने घर के कूड़े-कचरे और फसल अवशेषों से खाद तैयार कर अपनी भूमि को तो उर्वर बना ही सकते हैं, साथ ही खेती के खर्चे को भी कम कर सकते हैं। एक अनुमान के अनुसार चार लाख केंचुए तीन माह में छह लाख टन मिट्टी को पलट देते हैं। इस मिट्टी में सामान्य मिट्टी की तुलना में दुगुना कैल्शियम व मैग्नीशियम, सात गुना नत्रजन, ग्यारह गुना फास्फोरस तथा पॉच गुना पोटेशियम पाया जाता है। इसके अतिरिक्त केंचुए द्वारा चाले गये मिट्टी में लिग्नाइट भी मिलता है जो हमारी फसलों में रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ता है।

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