Editorial (संपादकीय)

जी एम तकनीक एवं कृषि विकास बीटी फसलों को मंजूरी दे सरकार

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एक आकलन के मुताबिक म.प्र. में दालों का उत्पादन कम होने का मुख्य कारण सोयाबीन एवं गेहूं है ना कि कपास। जहां पहले दालें बोई जाती थीं वहां अब किसान सोयाबीन एवं गेहूं बोने लगे हैं क्योंकि दालों की तुलना में सोयाबीन एवं गेहूं में जोखिम कम है व मुनाफा ज्यादा है। उसी प्रकार दालों की तुलना में बी.टी. कपास की फसल ज्यादा मुनाफा देती है।

संदर्भ: कृषक जगत के अंक 27 एवं 28 में प्रकाशित समाचार “मॉनसेन्टो की दादागिरी खत्म “

ऐसा प्रतीत होता है कि मॉनसेन्टों के साथ विवाद का मुख्य कारण बीज दरें ज्यादा होना है। यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि अच्छे गुणवत्ता एवं अधिक उपज देने वाले बीजों की दरें तो हमेशा ज्यादा ही होती है और इस बात को किसान भी अच्छी तरह समझता है। सब्जियों में संकर बीजों की दरें ज्यादा होने के बावजूद किसान खूब खरीद रहे हैं एवं अधिक उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं। उसी प्रकार पपीते की ताईवान किस्म का बीज तो लगभग दो लाख रुपये में एक किलो मिलता है तो भी किसान उसे खूब खरीद रहे हैं, व अधिक उत्पादन देते हैं। अत: इस विवाद को आपसी सहमति से सुलझाया जाता तो ज्यादा अच्छा होता। जब मैं शासकीय सेवा में था तब मैंने बी.टी. कपास के आने के पहले की स्थिति एवं बी.टी. कपास आने के बाद की स्थिति दोनों को बहुत नजदीक से देखा है। मुझे अच्छी तरह याद है कि किसानों को संकर कपास एवं उन्नत जाति के कपास में डेन्डू छेदक इल्ली की रोकथाम के लिये 15-20 बार अलग-अलग तरह की कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव करना पड़ता था। कीटनाशक दवाईयों का छिड़काव करते समय किसान परेशान हो जाते थे। बी.टी. कपास आने के बाद किसानों को डेन्डू छेदक इल्ली की समस्या से मुक्ति मिल गई है। बी.टी. कपास के कारण क्षेत्रफल में वृद्धि हुई है, किसानों की संख्या में वृद्धि हुई है, कपास का उत्पादन बढ़ा है, किसानों की आमदनी बढ़ी है तथा कपास का निर्यात भी बढ़ा है। यदि मॉनसेन्टो कंपनी के साथ विवाद के कारण बी.टी. कपास बीज मिलने से दिक्कत हुई तो सबसे ज्यादा नुकसान 70 लाख कपास उत्पादक किसानों को होगा।

मॉनसेन्टो के साथ विवाद का दूसरा कारण दालों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पडऩा बताया गया है। परंतु एक आकलन के मुताबिक म.प्र. में दालों का उत्पादन कम होने का मुख्य कारण सोयाबीन एवं गेहूं है ना कि कपास। जहां पहले दालें बोई जाती थीं वहां अब किसान सोयाबीन एवं गेहूं बोने लगे हैं क्योंकि दालों की तुलना में सोयाबीन एवं गेहूं में जोखिम कम है व मुनाफा ज्यादा है। उसी प्रकार दालों की तुलना में बी.टी. कपास की फसल ज्यादा मुनाफा देती है। वर्तमान में किसानों के मध्य सरकार की छबि बहुत अच्छी है। यदि कपास उत्पादक किसानों को बी.टी. कपास का बीज नहीं मिला तो सरकार की छबि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। प्रधानमंत्री ने एक नारा दिया है ‘जय किसान जय विज्ञान। एक तरफ तो प्रधानमंत्री चाहते हैं कि विज्ञान की सहायता से किसानों का विकास किया जाये वहीं दूसरी तरफ कुछ बुद्धिजीवी लोक काल्पनिक डर पैदा कर किसानों को आगे बढऩे से रोक रहे हैं। ये लोग नहीं चाहते कि किसानों का विकास हो। आये दिन जी.एम. फसलों का विरोध इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह कैसी विडम्बना है। आज की स्थिति में भारत को मॉनसेन्टो जैसी कम्पनियों की आवश्यकता है। कृषक जगत के अंक 28 में उल्लेख किया गया है कि भारत 2017 तक घरेलू जी.एम. टेक्नालॉजी विकसित कर लेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आज मॉनसेन्टो अपना कारोबार बंद कर दें तो किसानों को बी.टी. कॉटन का बीज प्राप्त करने में कठिनाई होगी। बी.टी. कपास की खेती वर्ष 2002 से हमारे यहां की जा रही है। हमारे वैज्ञानिक अभी तक इसकी टेक्नालाजी विकसित नहीं कर पाये हैं। अब इस बात की क्या गारंटी है कि वर्ष 2017 तक हमारे वैज्ञानिक जी.एम. फसलों की टेक्नालॉजी विकसित कर ही लेंगे, यदि ऐसा नहीं कर पाये तो क्या होगा। मेरा सुझाव है कि पहले हम जी.एम. फसलों की टेक्नालॉजी विकसित करें फिर मानसेन्टो को देश छोडऩे के लिये कहे।

भारत एक प्रजातांत्रिक देश है। बी.टी. कपास एवं अन्य जी.एम. फसलों के संबंध में पर्यावरण विशेषज्ञ, कृषि विशेषज्ञ एवं जनप्रतिनिधि अपने-अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। कुछ इसे मानव स्वास्थ एवं पशुओं के लिये हानिकारक मानते हैं। बी.टी.कपास पिछले 14 वर्षों से बोया जा रहा है। यदि कोई जन हानि अथवा पशु हानि हुई होती तो समाचार पत्रों में जरूर  प्रकाशित होती। जब भी कोई नई तकनीक आती है तो उसका विरोध तो होता ही है। उदाहरण के तौर पर संकर ज्वार, संकर मक्का, संकर बाजरा, संकर कपास, बोनी जाति का धान, सोयाबीन एवं बी.टी. कपास का भी विरोध हुआ था। किंतु उक्त विरोध को नकारते हुए हमारे देश एवं प्रदेश के किसानों ने उपरोक्त बीजों को सहर्ष स्वीकार किया तथा देश एवं प्रदेश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दिया है। मुझे विश्वास है कि बी.टी. बैंगन, बी.टी. सोयाबीन, बी.टी. सरसों, बी.टी. दालें एवं अन्य जी.एम. फसलों के संबंध में भी ऐसी ही सफलता मिलेगी।

जिस प्रकार पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सभी प्रकार की आपत्तियों को नकारते हुए डॉ. नार्मन बोरलॉग मैक्सिकन वैज्ञानिक की सेवाएं लेकर गेहूं की बोनी किस्म की जातियों को बोने की अनुमति देकर अल्प समय में देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया था। उसी प्रकार वर्तमान में जो केंद्र सरकार है वह भी समस्त आपत्तियों को निरस्त कर देशहित में, किसानों के हित में, जी.एम. फसलों को बोने की तुरन्त अनुमति देने के संबंध में गंभीरता से विचार करें। द्य आर.डी. खरे,उज्जैन
मो.: 9826895187

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