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औषधीय एवं सुगंधित पौधों के उत्पादन से लाभ

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देश एवं प्रदेश में वनौषधियों की अपार सम्पदा है। इस सम्पदा के विदोहन को रोकने के लिए संरक्षण, संर्वधन एवं व्यावसायीकरण करके राष्ट्रीय एवं अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर मांग की आपूर्ति की जा सकती है। इस व्यावसायिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए किसानों को औषधीय एवं सुगंधित पौधों के उत्पादन की उन्नत कृषि प्रौद्योगिक, प्रसंस्करण एवं विपणन से संबंधित संक्षिप्त जानकारी किसानों को दी जा रही है। छत्तीसगढ़ राज्य, जिसका 44 प्रतिशत भाग वनाच्छादित होने के कारण राज्य सरकार द्वारा प्रदेश को हर्बल स्टेट घोषित किया गया है। छत्तीसगढ़ में औषधीय फसलों का कुल क्षेत्रफल 8444 हे. तथा कुल उत्पादन 50246 मी. टन है (स्रोत संचालनालय उद्यानिकी छ. ग. शासन रायपुर वर्ष 2013-14)। छत्तीसगढ़ राज्य वनौषधी बोर्ड द्वारा चिन्हित औषधीय एवं सुगंधीत पौधों की व्यावसायिक खेती हेतु उपयुक्त पौधों के कृषिकरण के लिए जानकारी इस प्रकार है:-
अश्वगंधा अथवा असगंध : सोलेनेसी कुल का पौधा है जो 60-120 सें.मी. ऊँचा होता है। औषधीय उपयोग में इसकी जड़, पत्ते एवं बीज काम में आते है। उपयोग: जड़ों से शक्तिवर्धक दवाएं तैयार की जाती है। किस्में: जवाहर अश्वगंधा-20, जवाहर अश्वगंधा-134, पोषिता। बुवाई का समय: अगस्त – सितम्बर। प्रर्वधन: बीज द्वारा। उपज: 5-7 क्विंटल/हे. सूखी जड़ें एवं 50-75 कि.ग्रा. बीज प्राप्त होता है। सर्पगंधा : सर्पगंधा 2 से 3 फीट ऊँचा, बहुवर्षीय पौधा है।प्रमुख तत्व:  जड़ों में रिसरपिन एल्कोलाई पाया जाता है।उपयोग: उच्च रक्तचाप, अनिद्रा, मासिक संबंधी रोगों, मिरगी आदि बीमारियों के उपचार में।किस्म: आर. एस.-1। प्रर्वधन: तनों, जड़ों एवं बीज द्वारा।पौध रोपण: 60 और 45 सें.मी. की दूरी पर।बुवाई का समय: जुलाई – अगस्त तथा अक्टूबर – नवम्बर में।जड़ों की खुदाई: पौध रोपण के 18 माह बाद। उपज: 20 – 25 क्विंटल/हे.- सूखी जड़। कोलियस अथवा पत्थरचूर : कोलियस लेमिएसी कुल का पौधा है। यह 2-2.52 फीट ऊँचा होता है।उपयोग : हृदय संबंधी रोगों, वजन कम करने एवं पाचन शक्ति बढ़ाने में होता है। इसके अतिरिक्त अस्थमा, एग्जिमा, एलर्जी, उच्च रक्तचाप, चर्मरोगों में भी प्रभावी है। किस्म के – 8,प्रर्वधन: कलमों द्वारा। मुख्य तत्व: फोर्सकोलिन, पौध रोपण: 60 और 30 सें.मी. दूरी पर। बुवाई का समय: जुलाई – अगस्त एवं दिसम्बर – जनवरी में। जड़ों की खुदाई: 6 माह बाद। उपज: 15-20 क्विंटल जड़ें प्रति हे.।
सतावर : लिलिएसी कुल के सतावर की लता 30 सें 35 फुट तक ऊँचा होता है। उपयोग: शक्तिवर्धक दवाओं में, दुग्ध बढ़ाने में, चर्म रोगों में, शारीरिक दर्दो के उपचार में, विभिन्न प्रकार के बुखारों में एवं स्नायुतंत् संबंधित विकारों के उपचार में। लगाने का समय: जून – जुलाई। उपज: पौधों की दो वर्षो की आयु के  60 – 65 कि./हे. सूखी जड़ें प्राप्त होती है।
कालमेघ : कालमेघ 1-3 फुट ऊँचा पौधा है। उपयोग इसका स्पूर्ण पंचांग यकृत एवं खत विकार, मलेरिया ज्वर, पीलिया, पेट की बीमारियां चर्म रोग में तथा उच्च रक्तचाप के उपचार में उपयोगी है। प्रमुख तत्व: इन्ड्रोग्रेफोलाइड, किस्में: सिम- मेघ। लगाने का समय: जून – जुलाई, प्रवर्धन: बीजों द्वारा, कटाई 120-130 दिनों में। उपज फसल से 50 कि.ग्रा./हे. बीज तथा 25-30 क्विटल/हे. शुष्क शाक (पंचाग) प्राप्त होती है।
चन्द्रशूर : रूसीफेरी कुल का चन्द्रशूर 30-40 सें.मी. ऊँचा पौधा होता है। प्रमुख तत्व: पंचाग में उडऩशील सुगंधीत तेय पाया जाता है। इसके बीजों में प्रोटीन, वसा, राख, फास्फोरस, कैल्शियम तथा गंधक प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। उपयोग: इसका उपयोग बलवर्धक, बच्चों की बढ़वार हेतु, दुधारू पशुओं के दुग्ध उतपादन बढ़ाने में एवं श्वास संबंधी रोगों के उपचार में। प्रर्वधन: बीज द्वारा। लगाने का समय: सितम्बर से अक्टूबर उपयोगी भाग: बीज, उपज: 10-15 क्विं./हे. तक होती है।
गिलोय : गिलोय मैनीस्पमैसी कुल का बहुवर्षीय बेल के रूप में बढऩे वाली वनौषधी है। प्रमुख तत्व: गिलोय में ‘ग्लूकोसाइन’ गिलोईन नामक तत्व पाए जाते है। पत्तियों में प्रोटिन बहुतायत से पाया जाता है। उपयोग: पीलिया एवं यकृत विकार, कब्ज, मधुमेह, ज्वर, जननेन्द्रिया एवं मूत्रेन्द्रिया के रोगियों के लिए। इसके अलावा खांसी, दमा, रक्तचाप नियंत्रण आदि बीमारियों के लिए भी उपयुक्त औषधि है। प्रवर्धन: तनों द्वारा। औषधीय एवं सुगंधित पौधों के उत्पादन से लाभ जुलाई-अगस्त। पौध रोपण: कलमों द्वारा। उपयोगी भाग: तना। उपज: 8-10 क्विंटल/हे.।
बच :  बच एरेसी कुल का बहुवर्षीय 40-60 सें.मी. ऊँचा पौधा है। उपयोंग: इसके तेल एवं राइजोम का उपयोग मुख्यतया याददाश्त बढ़ाने, श्वांस रोगों के उपचार में किया जाता है। इसके अतिरिक्त वायु विकार में, बदहजमी, अनिद्रा, शक्तिवर्धक, वात विकारों में कफ सिरप में, मूत्र विकार की औषधी निर्माण में किया जाता है। लगाने का समय: मार्च – अप्रैल एवं जुलाई – अगस्त। प्रर्वधन: राइजोम द्वारा। औषधीय एवं सुगंधित पौधों के उत्पादन से लाभ 12 – 35 क्विंटल/हे. – तक शुष्क कंद प्राप्त होता है।
पचौली : लैविएटी कुल का पौधाा जो लगभग 2-2.5 फीट ऊँचा होता है। प्रमुख तत्व: तेल में पचौली एल्कोहल (पचौलोल), अल्फा तथा बीटा पचौलीन पाए जाते है। उपयोग: सूखी पत्तियों में पाए जाने वाले तेल का उपयोग स्थिर खुश्बु हेतु , साबुन, श्रृंगार, तम्बाखू और अगरबत्ती एवं उच्च किस्म के इत्रों के निर्माण में किया जाता है। लगाने का समय: जुलाई ।  किस्म: जौहर, पौध रोपण: 60 और 45 सें.मी. की दूरी पर। पत्तों की तुड़ाई: 90 दिनों के अंतराल में। उत्पादन: 20-25 किलों पत्तियां/हे. एवं 50-60 कि. तेल /हे. प्रति वर्ष प्राप्त होता है।
घृतकुमारी/ग्वारपाला : यह लिलिएसी कुल का पौधा हैं यह 1-2 फुट ऊँचा, मांसल बहुवर्षीय पौधा है। प्रमुख तत्व: पत्तियों के रस में, एलोइन होता है। उपयोग: खूनी अतिसार,  पेशाब संबंधी रोगों में मुहांसे तथा फोड़े -फुन्सियों में यकृत, प्लीहा वृद्धि, कफ , ज्वर चर्म रोग कब्ज आदि। बीमारियों के उपचार में इसका उपयोग किया जाता है। प्रजातियां: ए. एल.-1 आई सी-111666, आई सी.-111267, आई. सी.-111277। पौध संख्या: 60,000 – 65,000/हे. 50 3 40 सें.मी.। लगाने का समय: सितम्बर – अक्टूबर। कटाई:  12-15 माह  पश्चात इसके बाद प्रत्येक 3 माह में। उपज : ताजा पत्तियों की पैदावार लगभग 50-60 टन प्रति हे.।

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