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आदि भला तो अंत भला

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कीट, रोग, खरपतवार धरा पर मानव समाज के अवतरित होने के बहुत पहले विद्यमान हो चुके थे। वातावरण मौसम, प्रकृति के अतिरेक से लड़-भिड़कर अपनी उपस्थिति सदैव जतलाकर कृषि के लिये एक गंभीर चुनौती बनते रहे। कृषि को सजाने संवारे वाला किसान का ऐसे समाज से वास्ता रहा है जहां अनियंत्रितता कमजोरी बनकर सदैव साथ रही बदले में कीट,रोग,खरपतवार एक सुनियोजित नियंत्रित समाज से रहे आये परिणाम सामने है एक अनियंत्रित समाज का नियंत्रित समाज से टकराव हार तो होनी ही थी। अब मार तो देखेंगे की तर्ज पर व्याधियों की फतह होती गई कम से कम दो बार अकाल, महामारी का सामना करना पड़ा और लोग खाने को तरस गये। कृषि वैज्ञानिक को भारी चुनौतियां मिली और गहन चिंतन, मंथन के उपरांत सभी ने एक स्तर से माना कि इन व्याधियों से निपटने के लिये एक सुनियोजित समयबद्ध कार्यप्रणाली बनानी होगी जिसका अहम अंग होगा बचाव के संसाधनों का चिन्तन और उसका समय रहते अंगीकरण और जिस प्रकार राक्षसों को मारने के लिये ईश्वर को तरह-तरह के अवतार लेने पड़े कृषि के इन राक्षसों से निपटने के लिये भी एकीकृत पौध व्याधि प्रबंध प्रणाली का प्रार्दुभाव हुआ जिसमें मुख्य रूप से उपचार के पहले बचाव को प्राथमिकता दी गई। वास्तव में होता भी यही है कि जब कीट क्षति सीमा पार कर जाये, जब रोग पत्तियों से पौधे के शीर्ष तक ना पहुंच जायें कृषकों की नजर उस तक पहुंच ही नहीं पाती है और तब तक समुचित हानि हो चुकी होती है। उदाहरण के तौर पर सैकड़ों बीज जनित फफूंदी जो बीज के अंदर और बाहर रहती है यदि बुआई पूर्व बीज का उपचार करके उन्हें नष्ट कर दिया जाये तो एक तीर से दो नहीं बल्कि तीन शिकार संभव है एक बीज जनित रोगों पर रोक, दूसरा भूमि के प्रदूषण पर रोक और अच्छे अंकुरण का रास्ता प्रशस्त। बीज की साफ-सफाई, छंटाई-छंनाई इसी कड़ी से जुड़े महत्वपूर्ण पहलू हैं। जो बचाव की राह सुदृढ़ करने में सहायक होते हैं। ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करके कीटों के सुषुुप्तावस्था में पड़ी शंखियों का विनाश खरपतवार के बीजों को भीषण गर्मी से बेअसर करना और खेतों की मेढ़ों पर से ऊग रहे अनचाहे पौधे जिन पर रोग, कीट अपना जीवनचक्र चला,बढ़ा रहे हैं को उखाड़ कर नष्ट करना भी इसी एकीकृत पौध संरक्षण की सिफारिशों में आता है। ग्रीष्मकाल में यदि एकाद झल्ला स्थानीय वर्षा का नहीं हो पाया हो तो और यदि जल उपलब्ध है तो खेत में हल्की सिंचाई देकर छुपे खरपतवारों को उगने का मौका देकर उनको बखर चलाकर खेत में मिलाकर उनका उपयोग जैविक खाद के रूप में करने से अच्छा लाभ सम्भव है। नया बीज किसान की कमजोरी होती है गर्मी में रिश्तेदारों में प्रदेश के बाहर जाकर अनजानी किस्मों को लाना एक खतरनाक कृत्य होगा पता नहीं उन बीजों के साथ सिमटकर कौन सा रोग आपके खेतों तक पहुंच जाये इस कारण केवल क्षेत्र विशेष में सिफारिश की गई जातियों का ही उपयोग किया जाये। फलबागों के रोग, कीट दूषित औजार (सिकेटियर), सिंचाई जल के द्वारा अक्सर फैलते रहते हैं। कीट,रोग, खरपतवारों को अपने से कमजोर समझने की भूल कदापि नहीं करंे इतिहास गवाह है कि चने की इल्ली की रोकथाम करने के लिये कृषकों के गहने-जेबर तक बिक गये क्योंकि बचाव के उपायों पर ध्यान नहीं दिया जा सका। चने के खेत से सोयाबीन के स्वयं ऊगे पौधों को लालचवश नहीं निकालना, मित्र कीटों को निर्दयता से रसायनिक कीटनाशी का समय से पूर्व उपयोग करके मारना ये छोटी बातें बहुत मोटा अर्थ रखती हंै। इस कारण यह बात जानना अत्यंत जरूरी है कि कब किसके लिये क्या उपाय करना, ध्यान रहे बचाव के लिये पर्याप्त समय रहता है। उपचार के लिये बचाव पर विशेष ध्यान रखा जाये।

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