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सिंहस्थ की भव्यता में वृद्धि करेगा संत समागम

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वह समय भी अब करीब आ ही गया जब 10 योगों का एक साथ संगम होगा और सिंहस्थ स्नान की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी। उज्जयिनी की गणना मोक्ष प्रदान करने वाली महिमामयी सप्त नगरियों में की गई है। उज्जयिनी के आराध्यदेव भूतभावन देवाधिदेव महाकाल की गणना बारह ज्योर्तिलिंगों में की जाती है। इस नामकरण का विशेष महत्व है। अन्य ज्योर्तिलिंगों में किसी का नाम रामेश्वरम, विश्वनाथ, सोमनाथ और किसी का केदारनाथ है। पर इस नगरी के अधिपति का नाम महाकाल है। भारत में आदिकाल से ही काल गणना का केन्द्र उज्जयिनी ही रहा है। वैसे तो कुंभ का मेला हरिद्वार, प्रयाग, उज्जयिनी और नासिक में लगता है, लेकिन उज्जैन में स्नान का महत्व इसलिए भी है कि इसमें सिंहस्थ तथा कुंभ दोनों पर्व ही मिलते हंै। उज्जैन के सिंहस्थ में से ये दस योग महत्वपूर्ण होते हैं- (1) वैशाख मास (2) शुक्ल पक्ष (3) पूर्णिमा (4) मेष राशि पर सूर्य का होना (5) सिंह राशि पर बृहस्पति का होना (6) चंद्र का तुला पर होना (7) स्वाति नक्षत्र (8) व्यक्तिगत योग (9) दिन सोमवार (10) स्थान : उज्जैन। इस महत्वपूर्ण योग के समागम पर विश्व साधू समाज एकत्र होता है। साधु समाज का सबसे बड़ा गुण है उसकी व्यापकता वैविध्य और विशालता। भारतीय साधुओं के सभी समुदाय और संप्रदाय के लोग सिंहस्था में स्नान के लिए आते हैं। सन्यासी, उदासीन, निर्मल, दादू पंथी, नाथ पंथी, वैष्णव, खालसा संप्रदाय के साधु इस महायोग में शामिल होकर धर्म जागरण संगठन, सिंद्धात और हिन्दू धर्म संस्कृति का प्रचार करते हैं। हम सभी जानते हैं कि भारत धर्म प्राण देश है। उसका धार्मिक इतिहास ऋषि-मुनियों, साधु-संतों की युग-युग की साधना के साथ ही उनके कर्म ज्ञान और उपासना से अनुप्रानित है। हमारी संस्कृति में वैदिक काल से जीवन में ज्ञान कर्म और उपासना को महत्व दिया गया है। हमारे वेदों में ऋग्वेद में देवताओं एवं प्राकृतिक शक्तियों की स्तुति, यजुर्वेद में कर्म विवेचन सामवेद में उपासना विधान और अथर्व वेद में तीनों का समन्वय ब्रम्हा प्राप्ति के साधन माने गए हैं।
इस सिंहस्थ में नागा साधुओं के शाही प्रवेश की परंपरा है। इसी तरह उदासीन, निर्मल, जूना अखाड़ा के संतों के नगर प्रवेश पर स्वागत की अद्भुत परंपरा है। स्वामी शंकराचार्य ने वैदिक धर्म की पुन: स्थापना ही नहीं की, अपितु उन्होंने सन्यासियों को संघरूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने चार मठों और कामकोटि पीठ की स्थापना की । उन्होंने जप, तप, व्रत, उपवास यज्ञदान, संस्कार उत्सव, प्रायश्चित आदि का प्रचार किया। जब 32 वर्ष की आयु से वे विदेह मुक्त हुए तो उनके उतरााधिकारियों श्रंगेरी में यजुर्वेदी श्री सुरेश्वराचार्य, शादना में सामवेदी हस्तीमल्कार्य, गोवर्धन में ऋग्वेदी पद्यपाद और जोशी में अथर्ववेदी तोटकाचार्य ने उनके गुरुतम कार्य को आगे बढ़ाया।
स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतवाद के अंतर्गत सात आम्नय हैं। आम्नाय को ही अखाड़ा कहते है। प्रत्येक अखाड़े के संप्रदाय, मठ, अंकितनाम, क्षेत्र, देवे देवी आचार्य तीर्थ, ब्रम्हाचारी, वेद महावाक्यता, स्थान, गोत्र शासनाधीन देश आदि भिन्न भिन्न हैं। चार मठों के संप्रदाय है- कीटवार, भेगवार , आनन्दवार और भूमिवार। उनके अंकित दशनामी पद तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरी, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी है। प्रधान मठों के अधीन उनके उपमठ है। प्रमुख दशनामी सन्यासी अखाड़ों में निर्वाणी, निरंजनी, जूना, अटल, आवाहन, अग्नि और आनन्द है। क्रमश: इनके इष्टदेव हैं- कपिल, कार्तिकेय, दत्तात्रय, गणेश, अग्नि और सूर्य। दशनामी अखाड़ों और मढिय़ों का नामकरण किसी व्यक्ति अथवा स्थान के नाम पर किया गया है। निर्वाणी अखाड़े का केन्द्र कनखल है। जूना, अटल, आवाहन और अग्नि अखाड़ों का केन्द्र काशी अर्थात वाराणी। दत्त अखाड़े का केन्द्र उज्जयिनी सिंहस्थ भूमि है। सिंहस्थ पर्व पर यहां सभी शामिल होते हैं। सिंहस्थ में अन्य अखाड़ों का निवास प्राय: दत्त अखाड़े के समीप होता है। रामघाट के सामने शिप्रा के पार हरहर घाट पर सबसे पहले इन्हीं का स्नान होता है। स्नान के समय सबसे आगे दत्त अखाड़े का निशान होता है। उसके पीछे बाकी तीन के निशान होते है। दाहिनी ओर निर्वाणी, बीच में जूना, बाई ओर निरंजनी अखाड़े के निशान होते हैं। वापसी में पक्ष बदल जाते हैं।
साधु संप्रदायों में उदासीन अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह अद्वैतवादी संप्रदाय ही है। कहते हैं इस संम्प्रदाय के आदि उपदेशक स्वयं भगवान थे। उन्होंने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार को धर्म दीक्षा दी थी। बाद में श्री श्रीचन्द्र ने इस संप्रदाय का पुनर्गठन किया। श्री श्रीचन्द्र का जन्म संवत 1551 में लाहोर के समीप हुआ था। वह ननिकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। उनके माता-पिता थे श्री नानक देव और श्री सुलक्षणा देवी। उनके सदगुरु श्री अविनाशराम थे। उदासीन संप्रदाय में उद्घारक श्री श्रीचन्द्र ने उत्तरी भारत ही नहीं दक्षिणी भारत की भी यात्राएं की। वे पेशावर और काबुल भी गए थे। उन्होंने लगभग 150 वर्ष की आयु तक उदासीन संप्रदाय का प्रचार और संगठन किया। बाद में वे चंबा की पहाड़ी गुफाओं में अदृश्य हो गए।
उदासीन संप्रदाय के साधु संन्यासियों के मुख्य ग्रंथों में वेद, उपनिषद, गीता आदि हैं। इनके प्राय: तीन संवर्ग हैं- मुनि, ऋषि और सेवका इन संप्रदाय की चार शाखाएं है। वे बहादुरपुर, नैनीताल, शिकारपुर और अमृतसर में अव्स्थित है। उदासीन सम्प्रदाय ने हिन्दू आचार विधि अधिकांशत: अपना ली है। इस संप्रदाय के साधु भी सिंहस्थ में शामिल होते हैं।
गुरुनानक देव द्वारा प्रवर्तित पंथ की एक शाखा है- निर्मल- सिंहस्थ में निर्मल संतों के सम्मिलित होने की परम्परा भी उल्लेखनीय है। सिख धर्म के अंतर्गत सम्प्रदायों का जन्म उनकी आन्तरिक दलबंदी के कारण हुआ। निर्मल पंथ की स्थापना दशम् गुरु गोविन्द सिंह ने की। निर्मल संत संस्कृत भाषा प्रेमी रहे हैं। इस पंथ का केन्द्र कनखल है। वहां उनका पंचायती निर्मल अखाड़ा है। सिखों के अन्य सम्प्रदायों में नामधारी, सुथरासाही, सेवापंथी, अकाली, भगतपंथी, गुलाबदासी निरंकारी, मीनापंथी, रमेयापंथी, हंदली महत्वपूर्ण हैं।
दादू पंथ के प्रवर्तक दादू दयाल के 152 शिष्यों में से सिर्फ 52 शिष्यों ने अपनी शिष्य परम्परा चालई। दादू पंथियों का मुख्य तीर्थ ‘दादूद्वाराÓ नारायण ग्राम में है। कहते हैं-आमेर-निवास के दौरान दादू दयाल के सत्संग के लिए स्वयं मुगल सम्राट अकबर पधारे थे। उनसे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि अब्दुल रहीम खानखाना भी मिले थे। जब दादू के मुख्य शिष्य ही न रहे, तब इस पंथ में उपपंथों का जन्म हुआ-खालसा, नागा, उत्तरादी, विरत और खाका उनमें से मुख्य उप संप्रदाय हैं। दादूपंथी मूर्तिपूजक नहीं होते। वे वर्यव्यवस्था को भी नहीं मानते।
पंथ अथवा संप्रदाय प्रवर्तकों में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि कबीर का नाम भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। अनुमानत: उनका काल 1456 से 1575 ईसवी तक माना जाता है। उनका चलाया हुआ पंथ कबीर पंथ के नाम से इतना प्रख्यात है कि उसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है। कबीरपंथी अपने सम्प्रदाय को अनादि मानते हैं। चौराकाशी उनका केन्द्र स्थान है। कबीर के शिष्य धर्मदास ने धर्मदासी शाखा चलाई। वह मध्यप्रदेश में प्रचलित है। यद्यपि योगियों की परम्परा अति प्राचीन है और कहा जाता है कि योग के प्रवर्तक भगवान शिव हैं तथापि गुरु गोरखनाथ को उसका संगठनकर्ता मना जाता है।

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