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सस्ती, सरल प्राकृतिक खेती – बचत ही बचत

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जीरो बजट प्राकृतिक खेती की जाये, तो किसान को न तो अपने उत्पाद को औने-पौने दाम में बेचना पड़े और न ही पैदावार कम होने की शिकायत रहे। लेकिन सोना उगलने वाली हमारी धरती पर खेती करने वाला किसान लालच का शिकार हो रहा है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस देश में रसायनिक खेती के बाद अब जैविक खेती सहित पर्यावरण हितैषी खेती, एग्रो इकोलोजीकल फार्मिंग, बायोडायनामिक फार्मिंग, वैकल्पिक खेती, शाश्वत कृषि, सावयव कृषि, सजीव खेती, सांद्रिय खेती, पंचगव्य, दशगव्य कृषि तथा नाडेप कृषि जैसी अनेक प्रकार की विधियां अपनाई जा रही हैं और संबंधित जानकार इसकी सफलता के दावे करते आ रहे हैं। परंतु किसान भ्रमित है। परिस्थितियां उसे लालच की ओर धकेलती जा रही हैं। उसे नहीं मालूम उसके लिये सही क्या है? रसायनिक खेती के बाद उसे अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है। किंतु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती, सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के बढ़ते तापमान) का मुकाबला करने वाली लो बजट प्राकृतिक खेती मानी जा रही है।
सफल उदाहरण
गाय से प्राप्त सप्ताह भर के गोबर एवं गौमूत्र से निर्मित घोल का खेत में छिड़काव खाद का काम करता है और भूमि की उर्वरकता का हृास भी नहीं होता है। इसके इस्तेमाल से एक ओर जहां गुणवत्तापूर्ण उपज होती है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन लागत लगभग शून्य रहती है। राजस्थान में सीकर जिले के एक प्रयोगधर्मी किसान कानसिंह कटराथल ने अपने खेत में प्राकृतिक खेती कर उत्साहवर्धक सफलता हासिल की है। श्री सिंह के मुताबिक इससे पहले वह रसायनिक एवं जैविक खेती करता था, लेकिन देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र आधारित जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती कहीं ज्यादा फायदेमंद साबित हो रही है। प्राकृतिक खेती के सूत्रधार महाराष्ट्र के सुभाष पालेकर की मानें तो जैविक खेती के नाम पर जो लिखा और कहा जा रहा है, वह सही नहीं है। जैविक खेती रसायनिक खेती से भी खतरनाक है तथा विषैली और खर्चीली साबित हो रही है। उनका कहना  है कि वैश्विक तापमान वृद्धि में रसायनिक खेती और जैविक  खेती एक महत्वपूर्ण यौगिक है। वर्मी कम्पोस्ट का जिक्र करते हुए वे कहते हैं…यह विदेशों से आयातित विधि है और इसकी ओर सबसे पहले रसायनिक खेती करने वाले ही आकर्षित हुए हैं, क्योंकि वे यूरिया से जमीन के प्राकृतिक उपजाऊपन पर पडऩे वाले प्रभाव से वाकिफ हो चुके हैं।
पर्यावरण का असर
कृषि वैज्ञानिकों एवं इसके जानकारों के अनुसार फसल की बुवाई से पहले वर्मीकम्पोस्ट और गोबर खाद खेत में डाली जाती है और इसमें निहित 46 प्रतिशत उडऩशील कार्बन हमारे देश में पडऩे वाली 36 से 48 डिग्री सेल्सियस तापमान के दौरान खाद से मुक्त हो वायुमंडल में निकल जाता है। इसके अलावा नायट्स, ऑक्साइड और मिथेन भी निकल जाती है और वायुमंडल में हरितगृह निर्माण में सहायक बनती है। हमारे देश  में दिसम्बर से फरवरी केवल तीन महीने ही ऐसे हैं, जब तापमान उक्त खाद के उपयोग के लिये अनुकूल रहता है।
सफलता की शुरूआत
जीरो बजट प्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है तथा ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला एवं उसे रोकने में सक्षम है। इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से भी मुक्त रहता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार अब तक देश में करीब 40 लाख किसान एवं विधि से जुड़े हुए आयातित।

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