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व्यवस्था का विमोह

एक किसान देश की राजधानी दिल्ली में अपनी जान तमाशे में लुटा चुका। कोई-कुएं में जान देने को बैठा है। कोई गांव में फंदा तैयार करे है। इतने कमजोर मत बनो मेरे भाई। ये दुनिया बेमौसम ओले पडऩे से नहीं खत्म हो रही है। आपमें अदम्य जिजीविषा है, जीवटता है और अविश्रांत उद्यम भी आप करते है। किसान भाईयों आपको नमन है, अभिनंदन है।
कभी बाढ़ आती है, कभी सूखा पड़ता है, कभी ओले गिर जाते हैं। बोनी के समय बारिश नहीं होती। कटाई के वक्त मूसलाधार। बह जाता है किसान का आधार। चलती है बहस। संसद में, विधान सभा में। दुष्यंत कुमार ने 50 बरस पहले ये पंक्तियां शायद इन्हीं हालातों को रेखांकित करते हुए कहीं,
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है, जेरे बहस ये मुद्दा।
संसद में बहस चल रही है, संसद के बाहर जोर आजमाईश है। सरकार सूट वाली है, विपक्ष रूट जमाने में लगा है। उसे फ्रूट कब मिलेंगे, भविष्य के गर्भ में हैं। पर जितनी देर संसद चलेगी, एक सर्वे के मुताबिक हर आधे घंटे में हमारा एक किसान भाई जीवन के प्रति निराश होकर अप्रिय निर्णय करता है।
महान उपन्यासकार प्रेमचंद ने आज से लगभग 90 वर्ष पूर्व अपने एक उपन्यास में किसानों की स्थिति, प्रकृति, मनस्थिति का जीवंत, भावपूर्ण वर्णन किया –
‘मैं किसानों को शायद ही कोई ऐसी बात बता सकता हूं, जिसका उन्हें ज्ञान न हो। मेहनती तो उनसे अधिक दुनिया भर में कोई न होगा। किफायत, संयम और गृहस्थी के बारे में भी वे सब कुछ जानते हैं। उनकी दरिद्रता की जिम्मेदारी उन पर नहीं बल्कि उन हालात पर है, जिनके तहत उन्हें अपना जीवन बिताना पड़ता है, वे परिस्थितियां क्या हैं? आपस की फूट, स्वार्थ और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था जो उन्हें मजबूती से जकड़े हुए हैं। लेकिन जरा ज्यादा विचार करने पर मालूम हो जाएगा यह तीनों टहनियां एक ही बड़ी टहनी से निकलती है, और यह टहनी, वह व्यवस्था है जो किसानों के खून पर कायम हैं।Ó ये बात भारत के संदर्भ में आज भी समीचीन है।
राजनेता किस मिट्टी के बने होते हैं? प्रश्न निरर्थक है क्योंकि मिट्टी में भी संवेदनाएं होती है। भाव होते है, एक रंग होता है, रूप होता है। पर सत्ता और विपक्ष दोनों, मौका पडऩे पर इस तरह रंग और रूप बदलते है कि गिरगिट को भी अपने अस्तित्व पर, अपनी कमतरी का अहसास होता होगा।
दिल्ली का मुख्यमंत्री चौराहे पर अपनी भड़ास निकाल रहा है। और एक मेहनती किसान उसके सामने साफे को फांसी बना कर लटक गया। एक पुरानी कहानी के अनुसार बाल सुलभ प्रतिक्रिया होती है – ओह, राजा तो नंगा है। पर बेशर्म राजा तो रिंग में ही दंडपेल रहा है। और हम अभिशप्त हैं इनके करतबों पर ताली बजाने के लिये। हुकुमतें जरूर बदली। अंग्रेज लौट गए बर्तानिया, पर ‘मी लार्डÓ यही छोड़ गए। भेष कोई भी हो, भूषा जैसी भी हो, भाव ‘अहं बह्मास्मिÓ का ही है इस व्यवस्था की भूमिका में।
इधर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चाहते है कि नर्मदा के विस्थापित किसान पहले आंदोलन बंद करें तब बात होगी। ये अकडऩ किस बात की? ये संवादहीनता की जकडऩ क्यों? कर लो बात। किसानों को जमीन के मुआवजे पर हर युग की सत्ता ‘धृतराष्ट्रÓ क्यों बन जाती है?
मान भी लिया कि आपने राहत की गंगा बहा दी है। पर व्यवस्था की नहरें तो दुरूस्त हो। विमोह (नरक) क्यों फल रहा है? अंतिम पंक्ति, अंतिम व्यक्ति, दरिद्रनारायण, अन्नदाता ऐसी इमोशनल ब्लैकमैलिंग तो न करें सरकार। गंगाराम के उजड़े खेत में बैठकर, रामलाल की टूटी खटिया पर टिक कर, जोधाराम की झूठी पत्तल में खाकर किसान बिरादरी का भला नहीं होने वाला है। राहत तो मिलना चाहिए। जल्दी और सीधे।

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