भाषा से मात खाती न्याय व्यवस्था
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न्या. (से.नि.) चंद्रशेखर धर्माधिकारी
भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यायाधीशों की कमी को लेकर प्रकट की गई वेदना को कई लोगों ने कमजोरी माना है। वस्तुस्थिति इसके उलट है। सिर्फ न्यायाधीशों की कमी की पूर्ति से हमारी न्याय व्यवस्था पटरी पर नहीं आ जाएगी। इसमें कुछ बुनियादी कमियां अभी भी मौजूद हैं। प्रस्तुत आलेख उनमेें कुछ की पड़ताल कर रहा है। – का.सं.
भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा वेदना व्यक्त करते समय आंसू नहीं रोक पाने पर अंग्रेजी मीडिया ने दुर्भाग्यपूर्ण टीका टिप्पणी की है। वह यह भूल गये कि संवेदनशीलता कमजोरी नहीं है। जब मैं उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना तब पिताजी ने मुझे आशीर्वाद पत्र में लिखा कि ‘बी इम्पार्शल बट् नॉट इम्पसिव्ह’ मतलब तटस्थ रहो लेकिन संवेदना शून्य मत रहो। न्यायधीश की यही खासियत होनी चाहिए। पत्थर तटस्थ नहीं होता वह तो पथरीला या संवेदनाशून्य होती है। मेरी दृष्टि में यदि न्यायाधीश संवेदनशील नहीं रहेगा, तो इस देश के गरीबों को या दुर्बल घटकों को कभी न्याय नहीं मिलेगा। आज की परिस्थिति में तो हर संवेदनशील व्यक्ति के आंखों में आंसू आने ही चाहिए।
यदि ‘शासन’ या लोकतंत्र के अन्य अंग अपना काम नहीं करेंगे तो हर काम न्यायपालिका करेगी और आज ऐसी ही स्थिति निर्मित हो गई है। लोगों का विश्वास इसके बावजूद सिर्फ न्यायपालिका पर है। परन्तु न्यायपालिका सुचारू रूप से न्याय कर सके, न तो ऐसी व्यवस्था है न योजना और न ही वैसी मानसिकता। फिर भी न्यायालय के खिलाफ जो टीका टिप्पणी होती है, उसका मैं स्वागत करता हूं। ज्ञातव्य है शासन के खिलाफ ही सबसे अधिक मामले अदालत में आते हैं और प्रलम्बित हैं। इतना ही नहीं आज धनवान वर्ग निचले वर्ग को धमकी देते हैं कि उनकी बात नहीं मानी तो वे उन्हें अदालत में खीचेंगे। अर्थात् वे न्यायालयीन प्रक्रिया को शोषण की प्रक्रिया या हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं। प्रतिपक्षीय न्यायप्रणाली में प्रतिवादी पक्ष हमेशा विलंब चाहता है ताकि न्याय चाहने वाला पक्ष थककर, अन्याय सहे। वकीलों का व्यवसाय तो नोबल है, लेकिन वकालत करने वाले कई व्यवसायी नोबल नहीं हैं।
वर्तमान न्याय प्रणाली हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली है। गांधीजी ने कहा था, ‘यह प्रणाली अंग्रेजों ने नेटिव इंडियन्स (मूलनिवासी भारतीयों) को न्याय देने के लिए प्रस्थापित नहीं की थी, बल्कि अपना साम्राज्य मजबूत करने के लिए इस न्याय प्रणाली का गठन किया गया था। इस न्याय प्रणाली में ‘स्वदेशी’ कुछ भी नहीं है। इसकी भाषा, पोशाक तथा चिन्तन सब कुछ विदेशी है।’ अतीत में भारत में जो न्याय दिलाने वाली संस्थाएं विद्यमान थीं, उन्हें पूर्णत: समाप्त कर एक केन्द्रीभूत तथा सर्वव्यापी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों ने स्थापित की। गांधीजी ने यह भी कहा था कि ‘जिसकी थैली बड़ी होगी उसी को यह न्याय प्रणाली सुहाती है।’ प्रतिपक्षीय न्याय प्रणाली में न्याय में निर्णय करने के प्रक्रिया गवाहों पर आधारित है और सौ फीसदी सच बोलने वाला गवाह इस धार्मिक देश में कहीं अस्तित्व में ही नहीं है।
आज की न्याय प्रणाली में जीतने वाला भी समाधानी नहीं है। विनोबा जी ने कहा था कि ‘भारत का अपना एक न्याय था और बाहर से आया हुआ एक न्याय। भारत का न्याय था ‘पंच परमेश्वर द्वारा न्याय। आजकल अपने यहां जो बाहर का चलता है वह एक बोले, दो बोले, तीन बोले, पांच बोले परमेश्वर है। यह इम्पोर्टेड (आयातित) न्याय है। उसे एक्सपोर्ट कर देना चाहिए (बाहर भेज देना चाहिए।) वेद में वाक्य आता है ‘अनुजनात् यतते पञ्त्रधीरा’ (ऋ.9,5,8) गांव में जो ज्ञानी, बुद्धिमानी पुरुष होते हैं वे गांव के बारे में पंचों की जो राय होती है तदुनासार चलती आ रही है। यह सारा इसलिए कहा कि बाबा न्याय करने से डरता है। इसलिए हमने अदालत ही मुक्ति कसौटी गनी है। इसमें न्याय की बात नहीं आती, ‘समाधान’ की बात आती है। इसलिए न्याय शब्द को छोड़ा, ‘समाधान’ शब्द को अपनाया।
कानून की अपनी कुछ मर्यादाएं हैं। वह तब तक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता या कामयाब नहीं हो सकता जब तक उसे लोक सम्मति का आधार प्राप्त नहीं हो। कानून हक प्रदान करता है तथा अवसर उपलब्ध करा देता है लेकिन यदि वह सामान्यजनों तक नहीं पहुंचेगा तो प्रेरणादायी नहीं हो सकता। आज तो ऐसी स्थिति है कि कानून पालन करने वालों से कानून तोडऩे वालों की प्रतिष्ठा अधिक है। इतना ही नहीं आपकी कानून तोडऩे की क्षमता ही आपकी आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक ‘प्रतिष्ठा’ का मापदंड बनती जा रही है। दूसरी और सभी राजनीतिक पक्ष ऐसी संपूर्ण स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायप्रणाली चाहते हैं जिन्हें सिर्फ उनके ही पक्ष में निर्णय देने की स्वतंत्रता रहे। अभी यह स्थिति कायम रहेगी क्योंकि आमूलचूल परिवर्तन के बारे में सोच और चिंतन करने की मानसिकता नहीं है। आज तो यह बहस चल रही है कि संसद, शासन और न्यायपालिका में से कौन श्रेष्ठ है? महाराष्ट्र के विदर्भ में एक लोकोक्ति प्रचलित ‘दो बैलों की टक्कर में कौन सा बैल जीतता है, यह संदर्भहीन है क्योंकि कोई भी जीते या हारे या किसी का भी बैल जीते। परन्तु यह टक्कर जिस खेत में होती है उस खेत का ‘विनाश’ तो अटल है। (सप्रेस)