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बीज का महत्व

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मनुस्मृति में कहा गया है-

अक्षेत्रे बीजमुत्सृष्टमन्तरैव विनश्यति।
अबीजकमपि क्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं भवेत्।।
सुबीजम् सुक्षेत्रे जायते संवर्धते
उपरोक्त श्लोक द्वारा स्पष्ट किया गया है कि अनुपयुक्त भूमि में बीज बोने से बीज नष्ट हो जाते हैं और अबीज अर्थात् गुणवत्ताहीन बीज भी खेत में केवल लाथड़ी बनकर रह जाता है। केवल सुबीज-अर्थात् अच्छा बीज ही अच्छी भूमि से भरपूर उत्पादन दे सकता है। अब यह जानना आवश्यक है कि सुबीज क्या है सुबीजम् सु तथा बीजम् शब्द से मिल कर बना है। सु का अर्थ अच्छा और बीजम् का अर्थ बीज अर्थात् अच्छा बीज। अच्छा बीज जानने के पूर्व यह जानना भी आवश्यक है कि बीज क्या है?

  • अदृश्य बीज : हरिमाया
    ऐसे हजारों बीज हैं, जो अदृश्य रुप से धरती में विद्यमान रहते हैं और हवा तथा पानी के साथ दूर-दूर तक अपना क्षेत्र-विस्तार करते रहते हैं। ऐसे अवांछित खरपतवार को जिन्हें किसान निराई करके खेत से बारह निकालता है, सूख जाने पर जलाता है वे भी खेत में कहीं न कहीं छिपे रह जाते हैं और मौसम आने पर उग आते हैं। आक, पापड़ी, सेंमल इत्यादि के बीज हवा के साथ उड़ते हैं और अपने लिए जमीन बना लेते हैं। पानी के साथ सैकड़ों प्रकार के बीज बहकर यहाँ से वहाँ फैल जाते हैं। बथुआ, खुत्ती की फली या खत्तुआ आदि को पशु खा लेते हैं और गोबर के साथ वे बीज जमीन में गिरते हैं और जम जाते हैं। इन्हें किसान हरिमाया से उपजा हुआ कहते हैं। कई बार ऐसे अदृश्य बीज विदेशों से मंगाए गए अनाज के साथ भी आ जाते हैं जैसे-गाजरघास (जिसे कांग्रेस घास भी कहते हैं)। वे बीज हवा के साथ फैलते हैं और बड़ी तेजी के साथ वंश-वृद्धि करते हैं।
  • पक्षी बीज बोते हैं
    पीपल और वट जैसे वृक्षों के बीजों को बोने में पक्षियों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। वट और पीपल के गोद (फलों) को कौआ जैसे पक्षी खा लेते हैं परंतु उन फलों के बीज नहीं पचते, वे उनकी बीट के साथ बाहर आते हैं। बीट जहाँ भी गिरती है वहीं पीपल, वट उग आते हैं। कभी-कभी तो सीमेंट की बहुमंजिला इमारतों पर इतनी ऊँचाई पर इन वृक्षों को उगा हुआ देखा जा सकता है, जहाँ सामान्यतया मनुष्य का हाथ नहीं पहुँच पाता। पीपल की जड़ें बहुत गहराई और विस्तार में फैलती हैं। इन जड़ों से भी पीपल और वट के पौधे उग आते हैं। पक्षी के पेट में पहुँचने पर पीपल और वट के बीज की रसायनिक क्रिया हो जाती है, जो उसकी उत्पादक शक्ति को बढ़ा देती है। पिछले दिनों वनस्पति-वैज्ञानिकों का ध्यान मारीशस के डोडो वृक्ष की प्रजाति की ओर गया था, जो प्राय: नष्ट हो रही है। इसके नष्ट होने का कारण उस पक्षी का विनाश किया जाना है, जो इस वृक्ष के ही नाम से जाना जाता था। यह डोडो पक्षी पेड़ के फलों को निगलता था। पेट में फलों का गूदेदार भाग तो पच जाता था परंतु बीज नहीं पचते थे। बीज के ऊपर का कड़ा छिलका डोडो पक्षी के पाचन-तंत्र के पाचक रसों की क्रिया के कारण नरम पड़ जाता था और ऐसे बीज जो डोडो पक्षी की बीट के साथ जमीन पर गिरते थे उनका ही अंकुरण होता था। डोडो पक्षी के अभाव में टर्की नामक पक्षी को ये बीज जबरदस्त खिलाए गए, उसकी बीट के साथ निकले बीजों को बोया तो वे अंकुरित हो गए। 1 वट और नीम के अतिरिक्त पक्षी की बीट में शहतूत के पत्तों का अवशिष्ट और नीम की निबौली भी निकलती है, जिनसे इनके पौधे उपज आते हैं। अमरबेल के अंश को अपनी चोंच में दबाकर पक्षी उड़ता है और दूर किसी वृक्ष पर डाल देता है। जहाँ भी यह बेल गिरती है, उसी वृक्ष पर फैल जाती है तथा उसी वृक्ष से अपनी जीवनी शक्ति प्राप्त करती है।
  • प्रकृति का संविधान : अदृश्य विवेक
    लोकमानस ने इस सम्पूर्ण प्राकृतिक-प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में अदृश्य विवेक का अनुभव किया है, ये बीज धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचते हैं तो उसके प्रकीर्ण को मात्र-संयोग कहना पर्याप्त नहीं होगा, अवश्य ही उसके मूल में प्रकृति का कोई संविधान है। बीज में ऐसी कौन-सी आकर्षण शक्ति है, जिससे प्राणीमात्र वनस्पति के इर्द-गिर्द खिंचा चला आता है और बीज के जीवन-चक्र में भूमिका प्रस्तुत करता है। क्या वनस्पति का यह आकर्षण भूख और अन्न के अंत:संबंध में है या कि गंध, रुप, रंग और रस के रहस्य में है?
    बीज का यह जीवन इस प्रश्न का जीवंत उत्तर है कि क्या प्रकृति का सम्पूर्ण व्यापार विरोधों से बना है या सामंजस्य से अथवा उसमें मात्र संयोग ही है?
  • वृक्षारोपण की प्रक्रिया : मनुष्य द्वारा
    आषाढ़ के महीने में आम की गुठली गाढ़ दी जाती है। एक माह में पपैया उपजता है। पपैया को एक-एक बलिश्त की दूरी पर बो दिया जाता है। जब यह दो साल का हो जाता है, तब सोलह गज दूरी पर कलमी तथा तीस गज दूरी पर देशी आषाढ़ में ही रोपा जाता है। जब खूब वर्षा हो जाय तब एक गज बड़ा गोल तथा एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा जाता है, उसमें गज भर नीचे पौध रोपी जाती है तथा सप्ताह में एक बार पानी दिया जाता है। तीन वर्ष में कलमी पर और पाँच वर्ष में देशी पर फल आ जाता है। माह में बौर लगती है, फाल्गुन में बौर लगती है, फाल्गुन में अमियाँ छट जाती हैं तथा आषाढ़ में पकना शुरु हो जाता है। जामुन, अमरुद, बेर इत्यादि वृक्षों को भी आम की तरह से ही रोपा जाता है।
    – राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की पुस्तक ‘धरती और बीज से (इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र)
  • मशरूम का बीज (स्पान) तैयार करना

मशरूम का बीज वैज्ञानिक तरीके से तैयार किया जाता है। इन बीजों को बोतल या पॉलीथिन की थैलियों में 250 या 500 ग्राम प्रति बोतल या थैली भरते हैं। थैली के मुंह पर पहले लोहे का छल्ला लगाते हैं फिर उसमें रुई की डॉट लगाते हैं। बोतल या थैली को जीवाणुविहीन करने के लिये आटोक्लेब/ कुकर में 22 पौंड दाब प्रति वर्ग इंच पर 2 घंटे रखते हैं। ठण्डा होने पर माध्यम में मशरूम बीज (स्पॉन) मिलाते हैं। यह कार्य जीवाणुविहीन कक्ष में किया जाता है। मशरूम फफूंद की वृद्धि इन दानों पर 14-20 दिनों में हो जाती है एवं फफूंद के कवकजाल द्वारा सम्पूर्ण दाने ढंक लिये जाते हैं। इसे मशरूम का बीज (मदर स्पॉन) कहते हैं। इस प्रकार तैयार बोतलों से बीज दूसरी बोतल में मिलाया जाता है तब इसे प्रथम संतति स्पॉन कहते हैं।

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