State News (राज्य कृषि समाचार)

पौध संरक्षण की अधूरी कवायद

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पौध संरक्षण को लेकर देश में की जा रही कवायद अभी अधूरी है। इसके लिये सरकारी प्रयासों के साथ जागरूकता की जरूरत है। माना जाता है कि भारत में पौध संरक्षण के लिये औसतन 600 ग्राम प्रति हेक्टेयर दवाओं का उपयोग होता है जबकि अन्य देशों में 1.8 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक उपयोग होता है।
भारत में जहां तक दवाओं के औसतन उपयोग का सवाल है तो इसके पीछे की कहानी भी कोई खास संतोषजनक नहीं है। जागरूकता के अभाव में कई किसान जरूरत से ज्यादा पौध संरक्षण दवाओं का उपयोग करते हैं तो कई कृषक भगवान भरोसे फसल छोड़ देते हंै। ऐसे में दोनों ही स्थितियां फसल सहेजने के लिए ठीक नहीं है। विदेशों में दवाओं के उपयोग की औसत ज्यादा होती है इसके पीछे विभिन्न कारणों में से एक कारण यह भी है कि वहां लैंड होल्डिंग ज्यादा होती है। परिणाम स्वरूप कई बार पौध संरक्षण दवाओं का हवाई छिड़काव किया जाता है जिससे दवा ज्यादातर व्यर्थ फिक जाती है। जब न्यूनतम 2 हजार एकड़ के खेत में हवाई छिड़काव होगा तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि फालतू फिकने वाली दवा की मात्रा क्या होगी?
एक आकलन के मुताबिक देश में पौध संरक्षण दवाओं का मार्केट 25 हजार करोड़ से अधिक का है। जिसमें सालाना 8-10 प्रतिशत वृद्धि भी हो रही है। खरपतवारनाशकों की 30 से 40, कीटनाशक की 12 से 15 तथा अन्य में 25 से 30 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान होता है। इस बढ़ते बाजार के पीछे एक कारण यह भी है कि कीटों की सहनशीलता में भी वृद्धि हो रही है। उदाहरण के लिये बीटी कॉटन में रस चूसक कीटों को मारने के लिए इमिडाक्लोप्रिड नामक दवा का उपयोग किया जाता है। किसान भाईयों का मानना है कि कुछ साल पहले इस दवा की जो मात्रा लगती है उसकी दो गुनी मात्रा खेत में डालना पड़ रही है। इसके बावजूद कई बार कीट नहीं मरते हैं। मतलब साफ है कि कीट दवा के प्रति सहनशील हो जाते हैं जिसके चलते दवा ज्यादा डालना पड़ती है। इससे स्वाभाविक है कि दवाओं के बढ़ते मार्केट की एक वजह यह भी हो सकती है।
बायोप्रोडक्ट के नाम पर हो रही लूट-खसौट पर भी सरकारी नियंत्रण लगाने की बेहद जरूरत है। देश में 3 हजार करोड़ सालाना के इस कारोबार में नित-नए पंख लग रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकार इससे अनभिज्ञ है। सब कुछ पता होने के बावजूद कुशल नीति बनाने की पहल नहीं की जा रही है। इन बायो उत्पादों में केमिकल का उपयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। इन्हें सेंट्रल इंसेक्टिसाइड बोर्ड में पंजीकृत कराने की भी जरूरत नहीं होती है। न तो इसके कोई मानक तय है और न ही गुणवत्ता परखने की कोई पुख्ता प्रक्रिया है। यदि वास्तव में सरकार पौध संरक्षण यानी फसल बचाने को लेकर गंभीर है तो उसे मानक तय कर सख्ती से लागू करने की पहल करनी होगी। साथ ही अमानक उत्पादों की बिक्री या कारोबार करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतनी होगी। किसानों की ही नहीं बल्कि पूरे देश की आर्थिक धुरी या नफा-नुकसान, कृषि उत्पादन पर आधारित है। यही कारण है कि किसानों को जागरूक बनाने के साथ-साथ नियम-कानून की सख्ती और उत्पाद गुणवत्ता पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है।

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