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जैविक खेती बचाएगी भूमि की उर्वराशक्ति

कृषि में सबसे महत्वपूर्ण है मिट्टी। यदि खेत में मिट्टी न हो तो खेती नहीं की जा सकती है। जो वैश्विक आवश्यकताओं की पूर्ति का अंश मात्र भी नहीं है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इस मिट्टी को, जिसे हम मिट्टी के मोल मानते हैं, उसकी एक इंच सतह बनने में सामान्यत: 500-1000 वर्ष का समय लगता है। परंतु यदि मिट्टी के कटाव को न रोका जाये तो एक वर्षा की बौछारों से ही कई इंच मिट्टी खेत में बहकर नदी नालों के माध्यम से समुद्र की तलहटी तक पहुंच जाती है। अत: यह भी एक प्रकार से मिट्टी को खोना या उसकी हत्या करना है। दूसरी तरफ देखें तो खेतों में रसायनिक उर्वरक कीटनाशक एवं नींदानाशकों के लगातार उपयोग से सूक्ष्म जीवाणुओं के माध्यम से जीवन होता है। एक जीवंत माध्यम ही नए जीव को जन्म दे सकता है। तात्पर्य है कि फसल उत्पादन में रसायनों के उपयोग से मिट्टी मृत प्राय: होती जा रही है। क्योंकि रसायनों का मुख्य धर्म है मारना। कीटनाशक एवं नींदानाशक तो कीटों एवं खरपतवारों को मारने के लिये उपयोग किये जाते हैं। रसायनिक उर्वरक भी मिट्टी में क्रियाशील होकर जहां पौधों को आवश्यक तत्व उपलब्ध कराते हैं, वहीं मिट्टी में हानिकारक रसायन पैदा करते हंै।
दूसरी तरफ मशीनीकरण के युग में भारी भरकम मशीनें खेतों को तैयार करने से लेकर बोनी एवं कटाई के लिये उपयोग की जा रही हैं। जिसके फलस्वरूप जमी जहां सख्त होती है वहीं जीवाणु भी नष्ट होते हैं। मशीनों से कटाई के बाद खेतों में नरवाई रह जाती है। गेहूं के खेतों में नरवाई से भूसा रीपर चलाकर पशुओं के लिये भूसा तैयार किया जा सकता है। इसी प्रकार धान, सोयाबीन और अन्य फसलों के खेतों में रोटावेटर चलाकर फसलों के अवशेष को मिट्टी में मिलाया जा सकता है और जीवांश की मात्रा मिट्टी में बढ़ाई जा सकती है। मिट्टी को जीवंत बनाने की प्रक्रिया को अपनाते हुए थोड़ा सा श्रम बचाने के उद्देश्य से खेतों में आग लगा दी जाती है। इस प्रक्रिया में खेतों से फसल अवशेष तो खत्म हो जाते हैं परंतु दुष्परिणाम स्वरूप मिट्टी के जीवाणु आग से नष्ट हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में धुएं के रूप में उत्पन्न कार्बन डाईआक्साइड वायुमंडल को दूषित करती है और ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा कारण भी बनती है। पिछले दिनों पंजाब एवं हरियाणा के खेतों में जलाये गये फसल अवशेषों के धुएं का प्रभाव बड़े पैमाने में दिल्ली के वायुमंडल में भी देखा गया।
70 के दशक के पूर्व खेतों में सूक्ष्म जीवाणु एवं लाभदायक केंचुओं की भरमार रहती थी। खेतों में जाने पर हमेशा डर रहता था कि कहीं केचुएं पैरों के नीचे दब कर न मर जायें। वहीं आज इनके दर्शन भी दुलर्भ हो गये हैं। यह इसी प्रकार के क्रियाकलापों का परिणाम है। इस प्रकार जहां खेत भूमि क्षरण, रसायनों के उपयोग एवं आग लगने की प्रक्रिया से बचे रहते हैं उनमें सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या और जिन खेतों में लगातार मृदा को क्षति पहुंचाई जा रही हैं, इनमें सूक्ष्म जीवों की संख्या के अंतर को स्पष्ट रूप से आंका जा सकता है। एक आकलन के अनुसार कम्पोस्ट से भरपूर मिट्टी में 600 मिलियन से अधिक जीवाणु पाये जाते हैं। जबकि कृषि रसायनों के उपयोग वाली मृदा में इनकी संख्या घटकर लगभग 100 मिलियन रह जाती है। स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रतिकूल प्रक्रियाएं अपनाने से वातावरण दूषित हो रहा है और मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं के हृास के फलस्वरूप मिट्टी की हत्या हो रही है।
अब हम दूसरी तरफ देखें तो रसायनों विशेष रूप से कीटनाशकों के फसलों पर अनियंत्रित उपयोग के फलस्वरूप कीटनाशकों के अवशेष खाद्यान्न, सब्जी-फलों एवं पीने के पानी के निर्धारित मानकों से कहीं अधिक, भोजन के माध्यम से मानव के शरीर में जा रहे हैं। एक आकलन के अनुसार प्रतिदिन हमारे शरीर में 0.5 मिली ग्राम कीटनाशक याने वर्ष भर में लगभग 170-175 मिलीग्राम उपभोग किया जा रहा है। यदि इतना ही कीटनाशक या जहर का सेवन एक दिन में कर लिया जाये तो उस व्यक्ति की इहलीला उसी दिन समाप्त हो सकती है। परंतु यह जहर धीरे-धीरे शरीर में जा रहा है। इसे धीमा जहर दिया जाना भी कह सकते हैं। इसके परिणाम दूरगामी होते हैं। इसे सेवन करने वाले तरह-तरह की व्याधियों से ग्रस्त होकर, कष्ट दायक मृत्यु की ओर अग्रेषित हो रहे हैं, किंतु वे इन विपदाओं से अनजान बने रहते हैं। विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा प्रचार माध्यमों की सहायता से इस प्रकार के धीमे जहर के बारे में उपभोक्ताओं को अवगत कराया जा रहा है, फिर भी जाने-अनजाने इनका उपयोग एवं सेवन जारी है। जो इस बारे में जानते नहीं है, उनका दोष यह है कि वे जानना चाहते ही नहीं है। लेकिन तथा कथित बुद्धिजीवी, जो रसायनिक जहर के उद्गम से लेकर प्रवाह और प्रभाव तक की पूरी प्रक्रिया के न केवल ज्ञाता होते हैं, बल्कि इस विषय पर छिडऩे वाली बहस के प्रखर वक्ता भी, वे जब स्वयं उपभोक्ता के रूप में आंख मीच कर जहरीले खाद्यान्न अपनाते हैं तो क्या इसे आत्महत्या नहीं कहा जाना चाहिये? और अगर यह आत्महत्या है तो जिस अपराध के रूप में आत्महत्या हमारी दंड संहिता में दर्ज है, क्यों न उसके लिये निर्धारित दंड के दायरे में इस अपराध को भी लाया जाये। अन्यथा प्रकृति तो अपने तौर पर रोगी बनाकर,हमें सजा दे ही देती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण, कैंसर के व्यापक प्रभाव से ग्रस्त पंजाब राज्य में देखा जा रहा है।
स्पष्ट है कि वे फसल उत्पादक जो खेतों में आग लगाकर मिट्टी की हत्या कर रहे हैं। वे उत्पादक, जो कृषि रसायनों के अवशेष के रूप में उपभोक्ता को जहर परोस रहे हैं। साथ ही वे उपभोक्ता, जो जानते हुए भी धीमा जहर प्रतिदिन भोजन एवं पानी के माध्यम से सेवन कर रहे हैं। इन सभी को हत्या या आत्महत्या जैसे अपराध की श्रेणी में रखकर क्यों न कड़े दंड के योग्य माना जाये, इस पर गंभीर विचार करना आवश्यक है। सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर, इस दिशा में क्या प्रयास किये जाना चाहिये, इस पर विचार करने का यह सही समय है। अन्यथा कहीं देर हमें भारी न पड़ जाये।

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