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घर का जोगी जोगड़ा… उपेक्षा का शिकार कृषि अनुसंधान

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– पंजाब कृषि वि.वि. से दिखावटी समझौता
– प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालयों को बजट नहीं
– पंजाब और मध्यप्रदेश में जलवायु का फर्क
– प्रदेश के वैज्ञानिकों की हौसला अफजाई नहीं
– विवि में शीर्ष स्तर पर दूरदर्शी वैज्ञानिक नेतृत्व की जरूरत

हाल ही में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की पहल पर ज.ने.कृषि वि.वि. जबलपुर और पंजाब कृषि वि.वि. के मध्य कृषि अनुसंधान कार्य में समन्वय के लिये समझौता हुआ है। जन साधारण के लिये यह संधि भले ही लोक-लुभावन हो परंतु कृषि के जानकार लोगों के लिये यह प्रयास हास्यास्पद एवं ज.ने. कृषि विश्वविद्यालय के शीर्ष नेतृत्व की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह है।
मध्यप्रदेश कृषि क्षेत्र में विगत चार वर्षों से कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व प्रगति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कृषि कर्मण पुरस्कार प्राप्त कर रहा है, कृषि क्षेत्र में विकास पर 20 प्रतिशत के लगभग बताई जा रही है और किसानों के अथक परिश्रम से गेहूं उत्पादन में प्रदेश का नाम देश भर में दूसरे स्थान पर पहुंच गया है, इसमें निश्चय ही ज.ने. कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों का भी भरपूर योगदान है। इसके बावजूद पंजाब कृषि विश्वविद्यालय से अलग से समझौते की आवश्यकता महसूस करना यही दर्शाता है कि घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध!
मध्यप्रदेश में गेहूं पर वैज्ञानिक कृषि अनुसंधान की परंपरा विगत 112 वर्षों से अधिक समय से निरंतरता में चली आ रही है। होशंगाबाद जिले के पवारखेड़ा क्षेत्र में वर्ष 1903 में ही गेहूं अनुसंधान केन्द्र बन चुका था। जिसे ज.ने. कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ ही क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान के रूप में समायोजित कर लिया गया। इस केंद्र ने गेहूं की कई उन्नत किस्में भी विकसित की हैं, जिनमें नर्मदा-4, नर्मदा-112, जे.डब्लू 17, नर्मदा-195, तवा-267, जे.डब्लू-1106 आदि हैं। इस केंद्र पर जल प्रबंधन, जल ग्रहण क्षेत्र विकास आदि कृषि परियोजनाओं पर गहन अनुसंधान चल रहा है, इसके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के गहराते संकट से निपटने के लिए गेहूं के गर्म वातावरण में भी अधिक उपज देने वाले जीनोम का विशाल संग्रह है। पवारखेड़ा के अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा संचालित क्षेत्रीय गेहूं अनुसंधान केंद्र भी इंदौर में संचालित है जिसमें गेहूं की कई उन्नत प्रजातियां विकसित करने के साथ गेहूं उगाने की उन्नत कार्यप्रणाली भी विकसित की है। यह केंद्र भी किसानों, कृषि वैज्ञानिकों के लिये मार्गदर्शक, प्रेरणा स्रोत है व देश ही नहीं विदेशों में भी कठिया गेहूं उत्पादन में मध्यप्रदेश को इस केंद्र ने विशिष्ट, पहचान दिलाई है।
राष्ट्रीय स्तर पर कृषि अनुसंधान कार्य में संलग्न केंद्रों में समन्वय व मार्गदर्शन के लिये भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के नेतृत्व में ढेरों अखिल भारतीय समन्वित कृषि अनुसंधान परियोजनायें संचालित हैं जिनमें प्रति वर्ष क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान विषयक संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं इन कृषि अनुसंधान परियोजनाओं में कार्यरत देश भर के शीर्ष वैज्ञानिक आपस में मिल-बैठकर परिचर्चा करते हैं, अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं, देशव्यापी भावी कार्य योजनाएं बनाते हैं। ऐसी व्यवस्थित कार्य प्रणाली की उपलब्धता के बावजूद ज.ने. कृषि विश्वविद्यालय और पंजाब कृषि वि.वि. में अलग से समझौता करने की आवश्यकता समझ से परे है।
इसे ज.ने. कृषि वि.वि. की असफलता ही कहा जाएगा कि वे पवारखेड़ा में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के गेहूं अनुसंधान कार्यों की जानकारी से प्रदेश के मुखिया को भली-भांति अवगत नहीं करा सके। तभी मुख्यमंत्री को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय से अलग से समझौते की आवश्यकता प्रतीत हुई। यह भी ज्ञातव्य है कि पवारखेड़ा स्थित इस कृषि अनुसंधान केन्द्र को कभी अंतर्राष्ट्रीय गेहूं अनुसंधान केंद्र में भी बदलने का प्रस्ताव था जो विश्वविद्यालय की लचर कार्यप्रणाली के चलते मूर्तरूप नहीं ले सका।
म.प्र. सरकार को ऐसे दिखावटी समझौते करने की बजाय प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय को कृषि अनुसंधान कार्य के लिये भरपूर धनराशि उपलब्ध करानी चाहिए ताकि विश्वविद्यालय केंद्र सरकार (भा.कृ.अ.प.) द्वारा प्रदत्त धनराशि के आधार पर केवल अखिल भारतीय कृषि अनुसंधान परियोजनायें ही संचालित करता न रह जाए वरन् प्रदेश की आवश्यकता के अनुरूप नई अनुसंधान परियोजनायें भी चला सकें। हाल ही में चंबल के बीहड़ों की दशा सुधारने के लिये विदेशों से कृषि विशेषज्ञ आमंत्रित किये इसकी बजाय क्षेत्रीय प्रगतिशील किसानों को ही समस्या समाधान पर सुझाव देने के लिये बुला लिया होता तो अधिक सार्थक होता।
पंजाब अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु का क्षेत्र है व वहां पर मृदा भी अलग किस्म की है वहीं मध्यप्रदेश उष्ण जलवायु क्षेत्र में आता है व यहां पर काली, दुमट मृदा की अधिकता है। सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने के बाद पंजाब में रेही-खारी जमीन होने की समस्या कई सालों बाद विकसित हुई है और वहां की लाखों एकड़ जमीनें इस कारण बंजर हो गईं, उनमें घास भी नहीं उगता जबकि मध्यप्रदेश की काली जमीनों में पंजाब की जमीनों की तुलना में घुलनशील लवण भी कहीं ज्यादा हैं और सूर्य की तीव्र तपन भी अधिक है। इससे मध्यप्रदेश की काली भूमि में सुनिश्चित सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने पर घुलनशील लवण मृदा की ऊपरी सतह पर तेजी से आयेंगे और तुलनात्मक रूप से मध्यप्रदेश में कृषि भूमि के रेही-खारी होने की समस्या तेजी से बढ़ेगी जिसका सुधार करना भी आर्थिक रूप से नुकसान का सौदा होगा। भविष्य में आसन्न इस समस्या का समाधान यदि नहीं खोजा गया तो बर्बाद होने में देर नहीं लगेगी।
प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय की दुर्दशा का एक कारण राज्य सरकार से आवश्यक आर्थिक सहयोग न मिल पाना भी है। यदि कृषि वैज्ञानिक की भाषा में कहें तो शीर्ष स्तरीय एकेडमिक इनब्रीडिंग भी इस दुर्दशा का प्रमुख कारण है।
मुख्यमंत्री से अपेक्षा है कि प्रदेश के किसानों को देश-विदेश में भेजने की बजाए इन कृषि विश्वविद्यालय को ही सुविधा सम्पन्न और मार्गदर्शक बनायें ताकि प्रदेश के किसान देसी भाषा में देसी अंदाज में यहां से सीख लेकर अपनी उन्नति कर सकें। वस्तुत: प्रदेश को कृषि विकास के लिए बाहरी समझौतों की नहीं वरन् शीर्ष स्तर पर कुशल दूरदर्शी वैज्ञानिक नेतृत्व की आवश्यकता है जो कि प्रदेश के किसानों की आर्थिक उन्नति के लिये प्रदेश में चल रहे कृषि अनुसंधान को उचित दिशा में सक्रिय कर सके व कृषि विश्वविद्यालयों को अधिक मार्गदर्शी, परिणाममूलक बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। इसी से ही प्रदेश में कृषि विकास संभव है।

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