गौ पशुओं में संक्रामक रोग एवं उनकी रोकथाम
भारत वर्ष कृषि प्रधान देश है, कृषि व पशुपालन दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं । पशु रोगों से पशु को बचाना हमारा कर्तव्य हो जाता है चूंकि रोगों से पशुओं की उत्पादन व प्रजनन क्षमता कम हो जाती है अत: पशुओं को इन रोगों से बचाना अति आवश्यक है और उसका प्रमुख उपाय है:- टीकाकरण ।
टीकाकरण से लाभ
सर्वप्रथम तो यह कि पशु रोग ग्रस्त हो जाता है व पशुपालक को उपचार में होने वाले आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है । कभी कभी पशु में रोगावस्था के दौरान ही कई प्रकार के विकार जैसे उत्पादन व शारीरिक क्षमता में कमी, लंगड़ापन, श्वास रोग, गर्भपात आदि उत्पन्न हो जाया करते हैं । अत: पशुपालकों को सलाह दी जाती है कि नियमित व उचित समय पर निम्न रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण करवायें।
छड़ रोग (एन्थ्रेक्स)
इस बीमारी के प्रमुख लक्षण हैै – तीव्र ज्वर, श्वास लेने में तकलीफ, पेट दर्द, भोजन से अरूचि, खून के दस्त, एवं मुंह, नाक तथा गुदा से गाढ़ा, न जमने वाला, कालापन लिए रक्त-स्त्राव का होना । पशु की मृत्यु 1-2 घंटे से 3-4 दिन में होती है । यह रोग बीमार पशुओं से मनुष्यों को भी हो सकता है ।
रोग से बचाव
- पशुओं का नियमित टीकाकरण। एन्थ्रेक्स स्पोर वेक्सीन 3 माह से ऊपर के पशुओं में 1 मि.ली. प्रति वर्ष लगाना चाहिये।
- रोगग्रस्त पशु को अलग बांधें तथा इसका इलाज करते वक्त दस्ताने, मास्क इत्यादि पहने।
- मृत्यु होने की दशा में पोस्ट-मार्टम नहीं करें। पशु के मृत शरीर को जला देवें अथवा गहरा गाडऩे के पश्चात् चूने की परत डाल दें।
- जानवर बांधने की जगह तथा उसके संपर्क में आई समस्त वस्तुओं का निर्जन्तुकरण।
- पशु उत्पादों का निर्जन्तुकरण ।
क्षय रोग (ट्यूबरकुलोसिस)
यह मनुष्यों व जानवरों में होने वाली एक छूत की बीमारी है। इसकी गठाने शरीर के किसी भी अंग में हो सकती है। यह रोग जानवरों से मनुष्यों में भी हो सकता है। इस बीमारी के लक्षण जानवरों में बाहर से पूर्णत: प्रदर्षित नहीं होते है। कुछ दिनों बाद जानवर कमजोर दिखने लगता है चारा खाना बंद कर देता है। कभी बुखार तेज तो कभी कम हो जाता है। जानवर सुस्त व आलसी हो जाता है, पंरतु उसकी आंखें चकमदार व जागरूक ही होती है। यदि गठानं फेफड़ों में बनती है तो जानवर को खंासी आती है यदि जानवर थोड़ी सी भी मेहनत करे तो हांफने व खांसने लगता है। जानवरों में गर्भाधान नहीं हो पाता है, थनों में सूजन आ जाती है तथा दूध सामान्य नहीं होता है। गर्भित जानवर से बीमारी बछड़े को भी हो सकती है।
इस रोग से ग्रसित पशु का दूध पीने लायक नहीं होता है। रोग की रोकथाम के लिये बीमार जानवर को बाकी स्वस्थ जानवरों से दूर रखना चाहिये। जानवरों की एवं उनके आस-पास के स्थान की साफ-सफाई पर विषेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
गलघोंटू (एच.एस./घटसर्प )
यह वर्षा ऋतु में होने वाला प्रमुख रोग है, जानवर पर काम का बोझ ज्यादा पड़ता है या जानवर भूखा रहता है तथा इस मौसम में उत्पन्न नये हरे चारे के तन्तुओं जिसमें इस रोग के जीवाणु रहते है उन्हें पशु खा लेता है एवं बीमार हो जाता है। इसमें एक या दो दिन में ही पशु को तेज बुखार, भूख न लगना, आलस्य जोर-जोर से सांस चलना, मुंह से लार आना और आंखों में सूजन आना प्रमुख लक्षण है। आंखें लाल भी हो जाती हैं पशु के गले एवं छाती बाहर निकल जाती है। जो कि बहुत ज्यादा तकलीफ दायक होती है। जीभ ठीक से नहीं ले पाता है और गले से घर्र-घर्र की आवाज आती है जो कि लगभग 100 फीट दूरी से भी सुनाई देती है। जानवर की कुछ घंटों में ही मृत्यु हो जाती है ।
गलघोंटू से बचाव हेतु पशुओं का प्रत्येक वर्ष टीकाकरण करवाना चाहिये ।
घटसर्प तेल मिश्रित टीका (एच.एस. ऑयल एडज्यूवेंट वेक्सीन: मात्रा 135 किलो तक शारीरिक भार वाले पशुओं में 2 मि.ली. तथा उससे अधिक शारीरिक भार वालों में 3 मि.ली. अंतमांसपेशीय में प्रति वर्ष लगाना चाहिये।
घटसर्प फिटकरी मिश्रित टीका (एच.एस.एलम प्रिसिपिटेटेड वेक्सीन) : मात्रा: बड़े पशुओं में 10 मि.ली. तथा छोटे पशुओं में 5 मि.ली. अंतत्वचा में प्रति छ: माह में लगाया जाता है। पशुओं को बारिश, तेज ठंड से बचाना चाहिये। गलगोंटू का सक्रमंण रोकने हेतु रोगग्रस्त पशुओं एवं उनके संपर्क में आई समस्त वस्तुओं को अलग रखना चाहिये।
गर्भपात – इस बीमारी में पशुओं में गर्भपात होने से दूध का उत्पादन कम होने व नपुंकसता आने के कारण पशुपालकों को आर्थिक नुकसान बहुत ज्यादा होता है। यह बीमारी जानवरों से मनुष्यों में भी होती है। इस बीमारी में मादा पशुुओं का गर्भावस्था के 8-9 महिने में गर्भपात हो जाता है । नर पशुओं में नपुंकसता हो जाती है । यह नर पशुओं से मादा पशुओं में लैंगिंग संपर्क से फैलता है। जो मादा पशु गर्भधारण नहीं करते है, उनके थनों में सूजन आ जाती है। यह बीमारी एकसाथ कई जानवरों को हो जाती है । इसलिये प्रत्येक पशु की जांच कराना जरूरी है । जानवर के गर्भाशय में सूजन आ जाती है और जड़ (प्लासेण्टा) में मवाद पड़ जाता है व गर्भाशय से दुर्गंधयुक्त स्त्राव निकलता है ।
उक्त रोगों की रोकथाम हेतु पशु पालकों को उनके पशुओं के दूध एवं खून की जांच समय में करवाना चाहिये । गर्भवती गाय को प्रसव तक अन्य पशुओं से अलग रखना चाहिये । सभी पशुओं को विभिन्न रोगों से बचाव हेतु पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार टीकाकरण अवश्य कराना चाहिये।